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अर्थशास्त्र में 2020 का नोबेल : निजीकरण के लिए एक पुरस्कार
नीलामी के सिद्धांत का विकास जन्मजात तरीके से नवउदारवाद और निजीकरण से जुड़ा है।
टोनी कुरियन
16 Oct 2020
नोबल

अल्फ्रेड नोबेल की याद में दिया जाने वाला, "द स्वेरिग्स रिक्सबैंक प्राइज़ इन इक्नॉमिक साइंस", जिसे लोकप्रिय तौर पर अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार कहते हैं, इस बार पाउल मिलग्रॉम और रॉबर्ट विल्सन के गुरु-छात्र की जोड़ी को दिया गया है। यह पुरस्कार नीलामी के सिद्धांत में अग्रणी काम करने के लिए दिया गया है।

मिलग्रॉम और विल्सन ने जो काम किया है, उससे नीलामी के सिद्धांत में विकास हुआ। दोनों ने कई तरह के कामों के लिए इस सिद्धांत को उपयोगी बनाया है। स्वीडिश एकेडमी के शब्दों में "उन्होंने नए नीलामी तरीके बनाने के लिए अपनी गहरी जानकारी का उपयोग किया। यह नीलामी तरीके उन माल व सेवाओं के लिए थे, जिनकी पारंपरिक तौर पर नीलामी संभव नहीं थी, जैसे रेडियो फ्रिक्वेंसी। उनकी खोज से विक्रेता, खरीददार और करदाताओं सभी को मदद मिली।"

जैसा एकेडमी ने भी माना है कि नीलामी के सिद्धांत और दूसरे नीलामी तरीकों का इस्तेमाल दुनिया भर की सरकारों ने अपनी संपत्तियों को बेचने के लिए किया है। इनमें रेडियो स्पेक्ट्रम से लेकर खनिज तक शामिल हैं। "रॉबर्ट विल्सन ने नीलामी के एक ऐसे सिद्धांत का निर्माण किया, जिसका एक साझा मूल्य था- यह मूल्य नीलामी के पहले अनिश्चित होता है, लेकिन आखिर में सभी के लिए एक समान होता है।"

मिलग्रॉम ने बोलियों की ऐसी रणनीतियां बनाईं, जिसमें बोली लगाने वाले एक-दूसरे के मूल्य को जान सकते हैं। इससे विक्रेता को ज़्यादा राजस्व की प्राप्ति होती है। जैसे-जैसे सरकारें जटिल विषयों के आवंटन के लिए नीलामी की प्रक्रिया अपनाती गईं, वैसे-वैसे नीलामी के सिद्धांत को  सामाजिक लक्ष्यों के साथ राजस्व अधिकतम करने के लिए विकसित किया जाता रहा।

लेकिन यह पहली बार नहीं है कि जब नीलामी के सिद्धांत को लेकर किसी अर्थशास्त्री को नोबेल पुरस्कार मिला है। 1996 में विलियम विकरे ने नीलामी के सिद्धांतों में बुनियादी काम करने के लिए साझा नोबेल पुरस्कार मिला था।

लेकिन नीलामी के सिद्धांत के लिए पुरस्कृत होना नोबेल पुरस्कार तक सीमित नहीं है। सन् 2000 में ब्रिटेन की एक नीलामी ने वहां की सरकार को 34 बिलियन डॉलर दिलवाए। इस नीलामी के अकादमिक सिद्धांतकार प्रोफ़ेसर केनेथ बिनमोर थे। उन्हें 2003 में इंग्लैंड की रानी की तरफ से "कमांडर ऑफ द ब्रिटिश अंपायर" की पदवी दी गई।

नीलामी के सिद्धांत की सफलता को मीडिया में भी खूब सराहा गया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने 1994 में फेडरल कम्यूनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा की गई नीलामी को "किसी भी वक़्त की सबसे महान नीलामी" करार दिया। भारत में भी मीडिया ने 2010 में 3G नीलामी की तारीफ़ की थी, जिससे सरकार को ज़्यादा राजस्व प्राप्ति हुई थी। 

तो नीलामी के सिद्धांत को इस पेश के भीतर और बाहर जो प्रशंसा मिलती है, उसकी वज़ह क्या है? हम अर्थशास्त्र के इस नए-नवेले क्षेत्र के आकस्मिक उभार को कैसे समझ सकते हैं? इसका जवाब उस राजनीति में छुपा है, जो नीलामी के सिद्धांत को सार्वजनिक नीति और इसके द्वारा वांछित लक्ष्य प्राप्ति के केंद्र में आने का मौका देती है।

नीलामी का सिद्धांत और निजीकरण: स्वर्ग में बनी जोड़ी

नीलामी के सिद्धांत का उभार सरकारों में नवउदारवाद की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के साथ हुआ। नीलामी के सिद्धांत, इससे संबंधित बाज़ारू ढांचा और अर्थशास्त्र की इंजीनियरिंग की शुरुआत 1950 और 1960 के दशक की समाजवादी गणना से मानी जा सकती है। वहीं इस सिद्धांत को प्रमुखता 1990 के दशक में मिली, जब सरकारों और औद्योगिक घरानों ने संपत्तियों की खरीददारी और बिक्री के लिए अकादमिक अर्थशास्त्रियों को सलाहकार के तौर पर नियुक्ति देनी शुरू की। एक ऐसी विचारधारा, जो कम से कम राज्य हस्तक्षेप और बाज़ार के मूल्यों पर समाज के पुनर्गठन पर आधारित है, नीलामी का सिद्धांत उसका स्वाभाविक मित्र है।

नीलामी के सिद्धांत में बाज़ार को सूचना प्रक्रमक (इंफॉर्मेशन प्रोसेसर) माना जाता है। इसी जानकारी का इस्तेमाल सरकार के स्वामित्व वाली संपत्तियों के लिए बाज़ार बनाने के लिए किया जाता है। "मोलभाव और हस्तांतरण" के साथ-साथ नीलामी निजीकरण करने की प्रक्रियाएं रही हैं, लेकिन नीलामी के सिद्धांत में विकास होने के साथ-साथ इसने बाकी दो चीजों को निजीकरण की प्राथमिक प्रक्रिया के तौर पर स्थानांतरित कर दिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नीलामी ने पूर्णत: बाज़ार आधारित कीमत तय करने की अनुमति दी। 90 की दशक की शुरुआत से यह प्रक्रिया निजीकरण की अनिवार्य शर्त बन गई।

सरकारी संपत्तियों के निजीकरण के साथ-साथ कार्बन क्रेडिट के लिए बाज़ार निर्माण जैसी चीजों में नीलामी के सिद्धांत के विशेषज्ञों की मांग बढ़ती गई। दूसरे शब्दों में कहें तो नीलामी के सिद्धांत का उपयोग नवउदारवाद के सामने आ रही दो दिक्कतों- कीमत को तय किया जाना और बाहरी तत्वों को दूर करना, उनके समाधान के लिए किया गया। इसे करने के लिए दूसरी संभावनाओं की कीमत पर आर्थिक क्षेत्र में कुशलता को संकीर्णता के साथ परिभाषित किया गया। इसका एक उदाहरण अमेरिका के उपराष्ट्रपति अल्बर्ट गोर की FCC नीलामी की शुरुआत में दिए गए भाषण से मिलता है, उन्होंने कहा था, "लाइसेंस उन लोगों के हाथों में दिया जा रहा है, जिन्हें उनकी सबसे ज़्यादा कद्र है।"

जब निजीकरण में इसका इस्तेमाल होता है, तो नीलामी के सिद्धांत में बुनियादी तौर पर माना जाता है कि सबसे ज़्यादा बोली लगाने वाला सबसे बेहतर कुशलता के साथ माल का इस्तेमाल करते हुए जनहित में सबसे अच्छी सेवा करेगा। जैसा भारत के टेलीकॉम समेत कई उदाहरणों से बताया गया, स्पेक्ट्रम की सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को नीलामी मिलने का मतलब जनता का सबसे बेहतर हित नहीं होता। नीलामी के ज़रिए सरकार के लिए ज़्यादा राजस्व हासिल करने से क्षेत्र का विकास धीमा हुआ और 5G सर्विस आने में वक़्त लगा। साथ में टेलीकॉम क्षेत्र में कर्ज़ा बढ़ता गया, जिससे इस क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति मजबूत होती गई।

नीलामी के सिद्धांत की सफलता और तटस्थता, अर्थशास्त्र में बस अतीत की कहानी बनकर रह गई है, सच्चाई इससे कहीं अलग है। जैसा अर्थशास्त्री एडवर्ड निक-खा ने 1994 की FCC नीलामी के बारे में कहा, "बड़े स्तर पर फैले विश्वास के उलट, नीलामी के सिद्धांत ने सार्वजनिक नीति के प्रोत्साहन को असफल किया है।"

जैसे-जैसे नीलामी के सिद्ंधांतकार, अपने औद्योगिक मुवक्किलों के चलते बाज़ार अर्थव्यवस्था के लिए सलाहकार बनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे इस सिद्धांत का विकास और सरकार को उसका प्रस्ताव लोगों की भलाई के बजाए औद्योगिक ग्राहकों के व्यापारिक हितों को लेकर हो रहा है।

इस तथ्य का FCC नीलामी में भी अच्छी तरह दस्तावेज़ीकरण हुआ है, जिसमें नीलामी सिद्धांतकारों ने अपने-अपने ग्राहकों के हिसाब से अलग-अलग प्रस्ताव दिए थे। जबकि वे सभी एक ही वैचारिक संप्रदाय से ताल्लुक रखते थे। इन प्रस्तावों को हमेशा कुशल और जनता के हित में बताया जाता रहा। उदाहरण के लिए, इस साल जिन लोगों को नोबेल पुरस्कार मिला है, उन्होंने अपने औद्योगिक ग्राहक पेसिफिक बेल के हितों वाला प्रस्ताव ज़मा किया था। 

मिलग्रॉम और विल्सन ने "साइमल्टेनियस मल्टीपल असेंडिंग" किस्म के नीलामी ढांचे का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने सलाह दी थी कि इससे बोली लगाने वालों को, नीलामी के दौरान सामने आने वाली जानकारी से बोली लगाने में मदद मिलेगी। 1994 की FCC नीलामी में ज़्यादातर अर्थशास्त्रियों ने इस तरह के फॉर्मेट का विरोध किया था। लेकिन FCC नीलामी के आयोजकों ने मिलग्रॉम विल्सन के मॉडल को अपना लिया। क्योंकि यह पेसिफिक बेल समेत कुछ बड़ी टेलीकॉम कंपनियों के हितों के अनुकूल था। बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों के लिए सलाहकार बनकर नीलामी सिद्धांतकार अपने ग्राहकों के हिसाब से ढांचा तैयार कर अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह हस्तक्षेप कभी राजनीतिक तौर पर तटस्थ नहीं रहा और हमेशा इस हस्तक्षेप ने बाज़ार आधारित कुशलता के विचार का समर्थन किया है। 

नीलामी के सिद्ंधात का विकास बेजोड़ तरीके से नवउदारवाद और निजीकरण के प्रोजेक्ट से जुड़ा है। पॉल मिलग्रॉम समेत नीलामी के सिद्धांतकारों द्वारा पेश किए गए दस्तावेज़ हमेशा सरकार द्वारा संपत्तियां बेचे जाने और समस्याओं के लिए बाज़ार आधारित समाधानों की तारीफ़ करते नज़र आते हैं।

नीलामी का सिद्धांत सिर्फ़ निजीकरण का हिस्सा नहीं रहा। इसने सरकार और भारी जेब वाले कॉरपोरेट खिलाड़ियों को अपने मुनाफ़े के अधिकतम करने का रास्ता प्रदान किया है। साथ में नीलामी के सिद्धांत ने निजीकरण की प्रक्रिया और सार्वजनिक नज़र में वैज्ञानिक दर्जा हासिल करने में बाज़ार आधारित समाधानों को मदद दी है। नीलामी सिद्धांतकारों द्वारा समर्थित पक्षों के लिए एक ऐसी नीलामी प्रक्रिया, जिसमें कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं है, उससे जो जनता का मत बनता है, वह उन पक्षों की मदद करता है।

एक मौका खो दिया गया

यह बात बहुत आम है कि अपने 52 साल के इतिहास में अर्थशास्त्र में दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कार में नस्लीय और लैंगिक विविधता की कमी रही है। यह भी एक खुला तथ्य है कि यह पुरस्कार आमतौर पर अर्थशास्त्र के विधर्मिक संप्रदाय/स्कूल को नज़रंदाज करता है। लेकिन 2020 अलग हो सकता था। इस समय दुनिया अर्थशास्त्र के उस संकट से गुजर रही है, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। अर्थशास्त्र की प्रभावी समझ मौजूदा आर्थिक समस्याओं के नए समाधान देने में नाकामयाबी के चलते आलोचना का शिकार हो रही है।

इस पृष्ठभूमि में, हमारे आर्थिक जीवन में विकेंद्रीकृत समुदाय और राज्य आधारित फ़ैसले लेने वाली प्रक्रिया की मांग तेज हो रही है। 21 वीं शताब्दी की समस्याओं के लिए अर्थशास्त्र के नए तौर-तरीकों और प्रक्रियाओं की यह मांग काफ़ी मुखर हो रही है। क्योंकि कोरोना महामारी भी पारंपरिक आर्थिक विमर्श की कमियों को उजागर कर चुकी है। साथ में नोबेल पुरस्कार देने और आर्थिक पेशे में विविधता को लेकर जागरुकता बढ़ी है। इन सभी तथ्यों के बावजूद नोबेल अकादमी ने काम के पुराने ढर्रे को ही जारी रखा।

नोबेल जीतने वाले सिद्धांतकारों ने जो नीलामी के सिद्धांत में जो विकास किए हैं, वह इस सिद्धांत और नीलामी में इसके क्रियान्वयन पर गंभीर असर रखते हैं। लेकिन एक ऐसे सिद्धांत को पुरस्कार देकर, जिसका निजीकरण और नवउदारवाद से जन्मजात संबंध है, अकादमी ने एक बार फिर अपने वैचारिक संबंध और राजनीतिक प्राथमिकताओं को साफ़ कर दिया है।

लेखक IIT बॉम्बे के मानवीय संकाय और सामाजिक विज्ञान विभाग में पीएचडी के छात्र हैं। उन्होंने भारत में स्पेक्ट्रम नीलामी में नीलामी के सिद्धांत के उपयोग पर एमफिल प्रोजेक्ट किया है। यह उनके निजी विचार हैं।

 इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

2020 Nobel for Economics: A Prize for Privatisation

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