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ब्लॉग: क्या बच्चों के लिए 2020 उम्मीदों, सपनों और आकांक्षाओं के टूट जाने का साल है?
यूनिसेफ समेत बच्चों के लिए काम करने वाली दूसरी संस्थाओं द्वारा जारी हर रिपोर्ट भयावहता की तरफ इशारा कर रही है। बच्चों के लिए ये समय बहुत सारी अनिश्चितताओं और चुनौतियों से भरा हुआ है। दुखद ये है कि बदइंतजामी के चलते बच्चों को सुरक्षित करने में एक देश, समाज और परिवार के तौर पर हम फेल हो रहे हैं।
अमित सिंह
24 Jul 2020
children
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Ketto

दिल्ली: बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में आठ साल की बच्ची दामिनी रहती है। अभी बाढ़ के चलते उनका पूरा परिवार अपना घर छोड़कर राहत शिविर में शरण लिया हुआ है। उनके सामने खाने का संकट है। वह भुखमरी से जूझ रही हैं। मार्च महीने से वह स्कूल नहीं गई हैं। उनकी पढ़ाई लिखाई बंद है। उनको मिडडे मील नहीं मिला है। कोरोना संक्रमण के चलते उनकी छोटी बहन का टीकाकरण नहीं हुआ है। पोषण बेहतर नहीं मिलने से वह बीमार हैं, लेकिन बेहतर अस्पताल और डॉक्टर की व्यवस्था उनके इलाके में नहीं है।

बच्ची होने के चलते कोरोना संक्रमित होने की आशंका उनकी ज्यादा है लेकिन वह किसी तरह गुजारा कर रही हैं। लगातार ऐसी विषम परिस्थिति में रहने के कारण उनका बचपना कब गायब हो गया है ये बात दामिनी को भी पता नहीं है। कई महीने घर में बंद रहने और अभावों के चलते वह तमाम मानसिक परेशानियों और अवसाद से भी गुजर रही हैं लेकिन अभी कब तक वह ऐसी तमाम विपरीत परिस्थितियों में गुजारेंगी यह नहीं पता है। हालांकि वह उन्हीं के जिले की बेनीबाद पुलिस चौकी के केवटसा गांव की उन दो बच्चियों से बेहतर हालात में हैं जिनकी बागमती की बाढ़ से भरे पानी में डूबकर बुधवार को मौत हो गई थी।

दरअसल दामिनी एक काल्पनिक पात्र है लेकिन घटनाएं और जगहें वास्तविक हैं। और ऐसा भयावह बचपन सिर्फ दामिनी का ही नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ ने गुरुवार को कहा कि भारत में हाल ही में आई बाढ़ के कारण लगभग 24 लाख बच्चे प्रभावित हुए हैं।

संस्था ने कहा कि बाढ़ से उपजी चुनौतियों का सामना करने के लिए त्वरित सहायता, अतिरिक्त संसाधनों और नए उपाय करने की जरूरत है। एक वक्तव्य में यूनिसेफ ने कहा कि हालांकि बाढ़ हर साल आती है लेकिन जुलाई के मध्य में इतने बड़े स्तर पर बाढ़ आना असामान्य बात है।

वक्तव्य के अनुसार, “भारत में बिहार, असम, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, केरल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 60 लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हैं जिनमें 24 लाख बच्चे शामिल हैं।”

दक्षिण एशिया के लिए यूनिसेफ की क्षेत्रीय निदेशक जीन गफ ने कहा, “ऐसे मौसम द्वारा लाई गई तबाही से यह क्षेत्र भली भांति परिचित होने के बावजूद हाल ही में भारी मानसूनी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन से बच्चों और उनके परिवारों की दुनिया उजड़ गई है।”

उन्होंने कहा, “कोविड-19 महामारी और इसकी रोकथाम के लिए भी उपाय करने जरूरी हैं इसलिए समस्या और विकट हो गई है क्योंकि बहुत से प्रभावित क्षेत्रों में कोविड-19 के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं।”

इससे पहले बुधवार को जारी एक अध्ययन में यूनिसेफ ने चेतावनी दी कि कोरोना वायरस महामारी फैलने के कारण भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के करीब 2.2 करोड़ बच्चे अपनी प्रारंभिक शिक्षा से वंचित हो गए हैं।

रिपोर्ट में दुनिया भर में बच्चों की देखभाल की स्थिति, शुरुआती शिक्षा और कोविड-19 के कारण महत्वपूर्ण पारिवारिक सेवाओं के बंद होने के पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया गया है।

यूनिसेफ ने दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को अपने अध्ययन में शामिल किया है। दक्षिण एशिया के लिए यूनिसेफ की क्षेत्रीय निदेशक जीन गफ ने कहा है, 'कोविड-19 महामारी से दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालों में बच्चे भी शामिल हैं। लंबे समय से स्कूल के बंद रहने और दूरस्थ शिक्षा की सीमित उपलब्धता के कारण वे अपने शिक्षा के अधिकार से वंचित हो रहे हैं।'

दक्षिण एशिया के लिए यूनिसेफ की क्षेत्रीय निदेशक जीन गफ ने कहा कि कोरोना से दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालों में बच्चे भी शामिल हैं। लंबे वक्त से स्कूल के बंद रहने और दूरस्थ शिक्षा की सीमित पहुंच के कारण वे अपने शिक्षा के अधिकार से वंचित हो रहे हैं। बच्चों की देखभाल और शुरुआती शिक्षा उन्हें उनकी अधिकतम क्षमता का एहसास कराने में मदद करती है। यदि अभी भी कुछ करने में असफल रहे तो क्षेत्र के करोड़ों बच्चों का भविष्य खराब हो जाएगा।

इससे पहले पिछले महीने बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली ब्रिटेन की संस्था "सेव द चिल्ड्रन" ने भी कहा था कि कोरोना महामारी ने एक अभूतपूर्व शिक्षा आपातकाल खड़ा कर दिया है जिसके कारण करोड़ों बच्चों से शिक्षा का अधिकार छिन जाएगा।

अपनी रिपोर्ट में सेव द चिल्ड्रन संस्था ने संयुक्त राष्ट्र के डाटा का हवाला देते हुए लिखा है कि अप्रैल 2020 में दुनिया भर में 1.6 अरब बच्चे स्कूल और यूनिवर्सिटी नहीं जा सके। यह दुनिया के कुल छात्रों का 90 फीसदी हिस्सा है। रिपोर्ट में लिखा गया है, "मानव इतिहास में पहली बार वैश्विक स्तर पर बच्चों की एक पूरी पीढ़ी की शिक्षा बाधित हुई।"

इसके परिणामस्वरूप जो आर्थिक तंगी देखी जाएगी, उसके कारण आने वाले वक्त में स्कूलों के एडमिशन पर बुरा असर पड़ेगा। इतना ही नहीं, रिपोर्ट के अनुसार अब 9 से 11 करोड़ बच्चों के गरीबी में धकेले जाने का खतरा भी बढ़ गया।

साथ ही परिवारों की आर्थिक रूप से मदद करने के लिए छात्रों को पढ़ाई छोड़ कम उम्र में ही नौकरियां शुरू करनी होंगी। ऐसी स्थिति में लड़कियों की जल्दी शादी भी कराई जाएगी और करीब एक करोड़ छात्र कभी शिक्षा की ओर नहीं लौट पाएंगे।

मसला सिर्फ पढ़ाई का ही नहीं है। गरीबी और टीकाकरण जैसे दूसरे मसले भी बच्चों को प्रभावित कर रहे हैं। यूनिसेफ और सेव द चिल्ड्रेन के एक संयुक्त अध्ययन में कहा गया है कि कोरोना वायरस महामारी 2020 के अंत तक 8.6 करोड़ और बच्चों को पारिवारिक गरीबी में धकेल सकती है।

विश्लेषण में कहा गया है कि यदि महामारी के कारण होने वाली वित्तीय कठिनाइयों से परिवारों को बचाने के लिए तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो कम और मध्यम आय वाले देशों में राष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले बच्चों की कुल संख्या वर्ष के अंत तक 67.2 करोड़ तक पहुंच सकती है।

इसी तरह यूनिसेफ ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस महामारी के चलते लाखों बच्चे खसरा, डिप्थीरिया और पोलियो जैसे जीवन रक्षक टीके से वंचित रह जाने के जोखिम का सामना कर रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ने कहा है कि कोविड-19 महामारी से पहले हर साल खसरा, पोलियो और अन्य टीके एक साल से कम आयु के लगभग दो करोड़ बच्चे की पहुंच से दूर थे। यूनिसेफ ने मौजूदा हालात को लेकर चेतावनी दी है कि यह 2020 में और इसके आगे भी भयावह स्थिति पैदा कर सकता है।

वहीं मई महीने में लैंसेट पत्रिका में छपे एक लेख के अनुसार पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने से भारत में अगले छह महीनों में पांच साल से कम उम्र के तीन लाख बच्चों की मौत हो सकती है। बाल मृत्यु का ये आँकड़ा उन मौतों से अलग होगा जो कोविड-19 के कारण हो रही हैं।

इस विश्लेषण के मुताबिक कोरोना वायरस के कारण परिवार नियोजन, प्रसव, प्रसव से पहले और प्रसव के बाद की देखभाल, टीकाकरण और उपचारात्मक सेवाओं में रुकावट आ रही है। पोषण में कमी और जन्मजात सेप्सिस व निमोनिया के उपचार में कमी भविष्य में सबसे ज़्यादा बाल मृत्यु का कारण हो सकते हैं।

यूनिसेफ समेत बच्चों के लिए काम करने वाली दूसरी संस्थाओं द्वारा जारी हर रिपोर्ट भयावहता की तरफ इशारा कर रही है। बच्चों के लिए ये समय बहुत सारी अनिश्चितताओं और चुनौतियों से भरा हुआ है। दुखद ये है कि बदइंतजामी के चलते बच्चों को सुरक्षित करने में एक देश, समाज और परिवार के तौर पर हम फेल हो रहे हैं।

बदइंतजामी को लेकर भी एक रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई है। इसका भी जिक्र किया जाना यहां जरूरी है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने एक रिपोर्ट में कहा है कि देश में लगभग 22 प्रतिशत स्कूल या तो पुरानी या जीर्ण-शीर्ण इमारतों से चल रहे हैं। रिपोर्ट ‘सुरक्षा एवं सुरक्षित स्कूल माहौल’ 12 राज्यों में 26,071 स्कूलों के सर्वेक्षण पर आधारित है। एनसीपीसीआर ने यह सर्वेक्षण स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा की पड़ताल के मद्देनजर किया।

रिपोर्ट में कहा गया कि सर्वेक्षण में भारत के उत्तर, पश्चिम, पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को शामिल किया गया। इसमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान के अनेक जिले शामिल किए गए। ओडिशा, मिजोरम, उत्तराखंड़, मेघालय, झारखंड और चंडीगढ़ के कुछ जिलों को भी इसमें शामिल किया गया।

सर्वेक्षण में पता चला कि 22 प्रतिशत स्कूल पुरानी या जीर्ण-शीर्ण इमारतों से चल रहे हैं, जबकि 31 प्रतिशत स्कूलों के ढांचे में दरारें आई हुई हैं। इसमें सामने आया कि 19 प्रतिशत स्कूल रेल पटरियों के पास हैं, जबकि एक प्रतिशत स्कूलों के नजदीक ही बच्चों की सुरक्षा के लिए सड़कों पर स्पीड ब्रेकर और जेब्रा क्रॉसिंग हैं। सर्वेक्षण में एक और महत्वपूर्ण बात पता चली कि 74 प्रतिशत स्कूलों में शौचालयों में पानी की व्यवस्था है, जबकि शेष स्कूलों में बच्चों को बाहर से पानी ले जाना पड़ता है।

रिपोर्ट में कहा गया, ‘यह खतरनाक स्थिति है। इससे छात्रों की स्वास्थ्य और शारीरिक सुरक्षा को खतरा है।’ इसमें कहा गया कि केवल 49 प्रतिशत स्कूलों में दिव्यांगों के अनुकूल शौचालय हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि स्कूलों में मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता से केवल 57 प्रतिशत बच्चे संतुष्ट हैं।

यानी बात साफ है बच्चों के लिए काम करने वाली सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा जारी की जा रही चेतावनियों से सरकार बेखबर है। संकट के इस काल में बच्चे सबसे आसान शिकार बन रहे हैं। उनके बीमार होने का खतरा ज्यादा है, उनकी पढ़ाई बाधित हो रही है, उनका टीकाकरण प्रभावित हो रहा है, उनके गरीबी और भुखमरी के चपेट में आने की संभावना ज्यादा है।

तो दूसरी ओर सरकार उनके लिए बेहतर पढ़ाई लिखाई, भोजन, शौचालय, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं को मुहैया करा पाने में असफल रही है। सरकार के फैसले भ्रम, अफरा-तफरी, भ्रष्टाचार से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। मिड-डे मील जैसे योजनाओं के वंचित बच्चों के लिए हम आनलाइन क्लासेज चला रहे हैं।

दरअसल हमें जरूरत बच्चों के बचपन और पोषण को बचाने की है। उनके लिए बेहतर मनोवैज्ञानिक माहौल बनाने की है। लेकिन अभी जो सरकारी और गैरसरकारी प्रयास हो रहे हैं उनके हिसाब से तो यह कहना पड़ेगा कि बच्चों के लिए 2020 उम्मीदों, सपनों और आकांक्षाओं के टूट जाने का साल है। दूसरी बात अगर यही हाल रहा तो दामिनी जैसे लाखों बच्चे इस देश में सिर्फ भयावहता दिखाने वाले आंकड़े बनकर रह जाएंगें।

यह भी पढ़े: क्या बच्चों को सुरक्षित किए बगैर कोरोना से जंग जीती जा सकती है?

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