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भारत
राजनीति
‘6 दिसंबर’ सिर्फ एक दिन का नाम नहीं है…
6 दिसंबर भारतीय समाज का ऐसा दिन है जिस दिन से बहुसंख्यकवादी राजनीति के चेहरे साफ़ साफ़ देखे जा सकते हैं।
अजय कुमार
07 Dec 2018
6 december

किसी भी देश की लोकप्रिय राजनीति बहुसंख्यक मत के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। भारत की राजनीति भी ऐसी है और इस राजनीति के प्रतीक के तौर पर अयोध्या को पिछले चार दशकों से भुनाया जाता रहा है। इसलिए 6 दिसंबर भारतीय समाज का ऐसा दिन है जिस दिन से बहुसंख्यकवादी राजनीति के चेहरे साफ़ साफ़ देखे जा सकते हैं। 
बहुसंख्यकवादी राजनीति के मूल में बहुत कुछ हो सकता था, ऐसा इसलिए क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता की परेशानियां गरीबी से लेकर भुखमरी तक की हैं लेकिन राम मन्दिर ही मूल मुद्दा बनाने की कोशिश की गई। यह समझना है तो इतिहास की एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी जिसका आधार जनता की गोलबंदी से है और जिसके पड़ाव में 6 दिसम्बर 1992 आता है।

80 का दशक

यूं तो अयोध्या विवाद 1949 से है लेकिन अस्सी के दशक में इसने तूल पकड़ा। इस दशक में करीब छह सालों तक यह विवाद जिसे अयोध्या विवाद, अयोध्या आन्दोलन और राम मंदिर आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है तेजी से चला। आजादी के बाद यह भारतीय जनमानस की गोलबंदी का सबसे बड़ा अभियान था। कहने वाले कहते हैं कि भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद सबसे अधिक गोलबंदी रामजन्म भूमि के लिए हुई थी। जेपी आंदोलन से भी ज़्यादा। विडंबना यह रही कि भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद भारत को आजादी मिली थी और छह दिसम्बर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भारत भीषण बहुसंख्यकवाद या हिन्दुत्ववादी उग्र राजनीति का शिकार होता चला गया। इसके बाद हुआ ये कि 1980 में अपनी स्थापना के बाद 1984 में केवल 2 लोकसभा सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने भारतीय राजनीति में अपने पैर जमाने शुरू दिए। कहने के लिए आन्दोलन राम मन्दिर बनाने के नाते सांस्कृतिक प्रकृति का था लेकिन इसके इरादे पूरी तरह से राजनीतिक थे और धर्म के नाम पर आसानी से ध्रुवीकरण करने के थे। ताकि सत्ता के शिखर तक पहुंचा जा सके। इस मुद्दे को आग बनाने का काम जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और भाजपा ने किया था, वहीं इस मुद्दे के लिए आधार का काम कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार पहली ही कर चुकी थी। इस तरह से भारत में हिंदुत्व की राजनीति के उभार के लिए अगर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को दोष देना अगर सही है तो कांग्रेस को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। असल में 1980 के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों हिन्दू कार्ड के सहारे वोट हथियाने में जुटी रहीं। उस समय फैजाबाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के भाषण इसे पूरी तरह से साबित करते हैं। इसके साथ जब कांग्रेस ने देखा कि विश्व हिन्दू परिषद और उसकी आड़ में बीजेपी की राजनीति परवान चढ़ने लगी है तो कांग्रेस ने 1989 में विवादित स्थल के निकट राममन्दिर के शिलान्यास की इजाजत दे दी। लेकिन इसके बाद एक सुनियोजित तरीके से इस मुद्दे को भुनाने में सबसे अधिक कामयाबी बीजेपी को मिली।
 
29 जनवरी 1989 को विश्व हिन्दू परिषद ने कुम्भ मेले के दौरान ‘राम जन्म भूमि की मुक्ति’ का संकल्प लिया। यानी बाबरी मस्जिद को हटाकर पूरी तरह राम मंदिर बनाने का संकल्प। विश्व हिन्दू परिषद ने अपील किया कि शहर और गाँव का प्रत्येक हिन्दू रामशीला यानी राम नाम से लिखी हुई ईंट लेकर अयोध्या पहुंचे। इस प्रस्ताव ने हिन्दू जनमानस के बीच उन्माद की तरह काम किया। आम लोगों से लेकर पढ़े लिखे लोगों तक राममंदिर के उन्माद में बहते चले गए। विश्व हिन्दू परिषद के इन कोशिशों के विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने हिफाजती दस्ता संगठित किया। विश्व हिन्दू परिषद के इरादों का विरोध करने के लिए हजारों मुस्लिमों ने अपनी  गिरफ्तारियां दीं।

आडवाणी की रथयात्रा

1989 में भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन में विश्वनाथ प्रताप की सरकार आई। भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने राम मन्दिर बनवाने के लिए सरकार पर दबाव डालना शुरू किया। इस दबाव को कम करने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग के उन सिरफारिशों को लागू करवाने का फैसला ले लिया जिसके तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने की सलाह दी गयी थी। मंडल की इस राजनीति से कथित ऊंची सवर्ण जातियों से जुड़ी हुई भाजपा परेशान हो गई और राम मन्दिर के नाम पर खुलकर सामने आने लगी। यानी भारतीय राजनीति में मंडल और कमंडल की राजनीति की हवा चलने लगी। उस समय बीजेपी की राजनीति के दो बड़े चेहरे थे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी। आडवाणी को जहां उग्र हिन्दुत्व के तौर पर स्थापित किया गया वहीं अटल को साफ्ट हिन्दुत्व के तौर पर और इस प्रकार बीजेपी या कहें कि उसके पितृ संगठन आरएसएस ने अपनी पकड़ बढ़ानी शुरू की। मंदिर मुद्दे को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा शुरू कर दी। हालांकि लालू यादव की सरकार ने बिहार के समस्तीपुर में इस रथ यात्रा को रोक दिया और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन भावुक हिंदुत्व के नाम पर लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की। इस समय भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सरकार को दिए गये समर्थन को वापस ले लिया। उसके बाद कांग्रेस के समर्थन में कुछ दिनों तक चंद्रशेखर की सरकार चली और बाद में कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के बाद वह सरकार भी गिर गयी। इसके बाद दसवें लोकसभा चुनाव हुए और भाजपा को राम जन्मभूमि मुद्दे की वजह से जमकर कामयाबी मिली। भाजपा को संसद के कुल 120 सीटों पर हिस्सेदारी मिली। इसी समय हिन्दुत्वादीयों की राजनीति उत्तर प्रदेश में शिखर पर पहुंची और उत्तर प्रदेश में पहली बार कल्याण सिंह की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी। इसी राजनीतिक फायदे को और भुनाने के लिए भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े लोगों ने 6 दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद ही केंद्र ने हर राज्य से भाजपा की सरकार को बर्खास्त कर दिया। उसके बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं आई। अब जाकर 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार आई। 
बाबरी मस्जिद गिरने के बाद भाजपा की सरकार हर राज्य से जरूर हटा दी गयी लेकिन भाजपा ने पूरे देश में अपनी पकड़ बना ली। उसके बाद 1996 में आम चुनाव हुए। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। लेकिन अटल बिहारी की अगुवाई में सरकार 13 दिन में ही गिर गयी। यह सरकार इसलिए गिरी क्योंकि भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी मानते हुए बहुत सारे दलों ने समर्थन नहीं दिया। भाजपा को यह पता चल गया था कि हिंदुत्व के नाम पर वोट इकट्ठा करना तो आसान है लेकिन संसदीय राजनीति के सभ्य गलियारे में जम पाना मुश्किल है। इसलिए भाजपा ने हिंदुत्व के शरीर से राम मन्दिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता, धारा 370 को खत्म करने वाले कपड़ों को हटा दिया और 1999 में कई दलों के साथ राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन कर सरकार बना ली। इसके बाद से भारतीय राजनीति भाजपा और कांग्रेस के इर्द गिर्द घुमने लगी। भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति के तहत स्वेदशी की जगह उदारीकरण और बाजार के औजारों का अपने फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल किया, लेकिन वोट बटोरने के लिए और अपनी वैचारिक स्थिति को मजबूत करने के लिए हिंदुत्व के भीतर राम मंदिर बनाने के आग्रह को कभी नहीं छोड़ा।
 इसके बाद हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की राजनीति को खुलकर बोलने का मंच मिल गया। कांग्रेस के किसी बात के विरोध में गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, रोजगार और सेहत से जुड़े मसले उठने चाहिए थे लेकिन भाजपा के मंच पर होने की वजह से ऐसे मसले उठे जिसमें बहुसंख्यकवादी आग्रह था, साम्प्रदायिकता के सहारे वोटबैंक बनाने की रणनीति थी और विकास के नाम पर बाजार को पूरी तरह से छूट देने की कोशिश थी ताकि सत्ता पाने के लिए पैसे की कमी कभी ना रहे। इसी का उदाहरण गुजरात मॉडल रहा, जहां नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में सन् 2002 में भीषण दंगे हुए। 
इस राजनीति से देश का कुछ भला नहीं हुआ। अटल बिहारी ने फील गुड और इंडिया शायनिंग के नाम पर 2004 में दोबारा वोट मांगा लेकिन उन्हें नहीं मिला और फिर दो बार यानी दस साल कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार रही। बीजेपी ने इसे हटाने के लिए अच्छे दिन और विकास की राजनीति का नारा दिया लेकिन इन मुद्दों पर पूरी तौर पर फिर फेल होने पर मोदी सरकार राम-मन्दिर मुद्दे पर लौट आई है, ताकि वह राम और हिन्दुत्व के नाम पर एक बार फिर जनता के असंतोष को दबा कर उसका रुख अपनी ओर मोड़ सके। इसलिए छह दिसम्बर 1992 भारतीय राजनीति में एक ऐसी जगह है, जहाँ से हिंदुत्व की राजनीति सत्ता तक पहुंची और जब-जब उसे लगता है कि वह सत्ता से बेदखल हो सकती है वह तब-तब छः दिसम्बर की तरफ बढ़ती है। 

6 december
Babri Demolition
Ram Janamabhoomi – Babri Masjid
communal polarization
right wing politics
BJP-RSS
VHP
bajrang dal

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