NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
आज़ादी@75: लोकतंत्र को फिर से जीवित करने का संघर्ष हो
अब तक हमारी चितां देश को लोकतंत्र को बेहतर बनाने की होती थी। हमारी चिंता यह नहीं होती थी कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं...।
अनिल सिन्हा
15 Aug 2021
आज़ादी@75: लोकतंत्र को फिर से जीवित करने का संघर्ष हो
Image courtesy : India Today

कुछ साल पहले तक भारत की आजादी का जश्न मनाते वक्त कम से कम इस बात पर हम फख्र कर सकते थे कि भारत एक लोकतंत्र है। हमारी चितां इसे बेहतर बनाने की होती थी कि हम कैसे देश में बसने वाले सभी समूहों को भागीदारी दें। हमें लगता था कि अगर लोकतंत्र को सच्चा बनाना है तो आर्थिक और सामाजिक बराबरी की ओर बढ़ना होगा। हमारी चिंता यह नहीं होती थी कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं। 1975 में लगी इमरजेंसी के वक्त यह ख्याल जरूर आया था कि भारत में लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोगों को यह लगा था कि शायद इंदिरा गांधी चुनाव नहीं कराएंगी। लेकिन उन्होंने न केवल 1977 में चुनाव कराए बल्कि 1980 में सत्ता में अपनी वापसी के बाद इमरजेंसी के दौरान बने उन कानूनों को वापस लाने की जिद भी नहीं की जिन्हें जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के कारण सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने रद्द कर दिया था। कांग्रेस ने दोबारा इमरजेंसी का नाम भी नहीं लिया। आपातकाल की परीक्षा पास करने के बाद यह भरोसा हो गया था कि भारत के लोकतंत्र को कोई हरा नही सकता। हम समझने लगे थे कि पार्टियां सत्ता में आएंगी और जाएंगी, वे चुनाव जीतने के लिए पैसे तथा ताकत का इस्तमाल करेंगी तथा लोगों की भावनाएं भड़काएंगी, लेकिन अंत में उन्होंने जनता की बात ही माननी पड़ेगी।

टीएन शेषन के कार्यकाल में और इसके बाद  चुनाव आयोग ने इतनी शक्ति हासिल कर ली थी कि यह लगने लगा था कि देश जनादेश को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक ढंग से प्रभावित करने की कोशिशें भी बर्दाश्त नहीं करेगा। जाति और सांप्रदायिक भावनाओं के आधार पर वोट मांगने के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपना लिया था। क्या आजादी के 75वें साल में प्रवेश करते समय हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र साबूत है?

इस सवाल के जवाब में लोग पश्चिम बंगाल का उदाहरण दे सकते हैं कि बेशुमार पैसा बहाने, सरकारी संस्थाओं का दुरूपयोग करने, चुनाव आयोग के पक्षपात और सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी चुनाव नहीं जीत पाई और ममता बनर्जी वापस सत्ता में आ गई। लेकिन हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि बंगाल के चुनावों में भारतीय लोकतंत्र घुटने पर आ गया और वह कभी भी औंधे मुह गिर सकता है। इसके संकेत चुनाव नतीजों के बाद राज्यपाल के आचरण और भाजपा की नौटंकियों में देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी तथा गृहमंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल के जनादेश को खारिज करने में लगे हैं।

पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से संतुष्ट होने वालों को इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि मोदी-शाह से लोकतंत्र को बचाने के लिए लोगों को ममता बनर्जी की शरण में जाना पड़ा जिन पर व्यक्तिवादी ढंग से राज चलाने का आरोप है। वहां के नतीजों से कारपोरेट घराने भी खुश होंगे कि लेफ्ट का सफाया हो गया। विचारधाराओं की विविधता को इस राज्य में भयंकर नुकसान हुआ है। यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। असल में वहां भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे कमजोर प्राणि की शक्ल में दिखाई दे रहा है जिसके वस्त्र चीथड़े हो गए हैं। 

भारतीय लोकतंत्र की दुर्गति का सबसे बड़ा सबूत दिल्ली की सीमाओं पर महीनों से चल रहा किसानों का धरना है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में जुटे लोग पूरे अनुशासन के साथ सत्ता की कठोरता तथा फरेब का अहिंसक मुकाबला कर रहे हैं। वे तीखी गर्मी, कड़ाके की ठंड और भारी बारिश के बीच वे पुलिस की घेराबंदी में डटे हैं। देश का पूरा विपक्ष उनके समर्थन में खड़ा है। लेकिन सरकार पूरी ढिठाई के साथ इस पर अड़ी है कि वह उन तीन कानूनों को वापस नहीं लेगी जो उसने खेती को कारपोरेट घरानों को सौंपने के लिए बनाए हैं।

हमने नागरिकता संशोधन कानून के मामले में देखा कि किस तरह शाहीन बाग की महिलाओं के आंदोलन को बदनाम करने तथा उनकी आवाज का दबाने के लिए सरकार ने हर तरह के हथकंडे अपनाए।

हम इस हालत की तुलना 2012 के अन्ना आंदोलन से करें तो फर्क समझ में आएगा। किसान आंदेालन की तुलना में काफी कम जन-समर्थन वाले आंदोलन की बात सुनने के लिए मनमोहन सरकार को मंत्रियों की कमेटी बनानी पड़ी थी। दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के आमरण अनशन पर संसद ने चर्चा की थी। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मनमोहन सरकार को कोयला घोटाले से लेकर टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करानी पड़ी थी। स्पेक्ट्रम घोटाले पर कैग की रिपोर्ट ही इसका सबूत है कि संस्थाएं कितनी आजादी से काम कर सकती थीं। कैग के मुखिया विनोद राय जिस जोश और आत्मविश्वास के साथ मीडिया के सामने पेश होते थे, वह किसी भी संवैधानिक संस्था के मुखिया के चेहरे पर आज दिखाई देता है क्या? चुनाव आयोग से लेकर रिजर्व बैंक तक सकुचाए चेहरों की फौज ही दिखाई देती है।

यह भी याद रखने की जरूरत है कि विशाल बहुमत के सहारे सरकार चला रहे राजीव गांधी ने भी बोफोर्स घोटाले की जांच संसदीय समिति से कराई थी। बोफोर्स घोटाले के मुकाबले रफाल घोटाले में ज्यादा साफ सबूत हैं जिनकी जांच की जरूरत है। लेकिन मोदी सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा है।

इन सबसे बढ़ कर है पेगासस का मामला। भले ही लोग साफ-साफ देख रहे थे कि 2014 के बाद से सुप्रीम कोर्ट से लेकर बाकी तमाम संस्थाएं सरकार के खिलाफ कदम नहीं उठा रही थीं। लेकिन उनके सामने पर्दे के पीछे चल रही गतिविधियों साफ तस्वीर नहीं थी। यह अंदाजा लोग जरूर लगा लेते हैं कि संस्थाओं की बांह मरोड़ने के लिए अपने लोगों को बहाल किया जा रहा है या सरकार का विरोध करने वाले लोगों की फाइलें खोली जा रही हैं। लेकिन भारत में एक ऐसा दिन भी आएगा कि नाजी जर्मनी या स्टालिन के सोवियत रूस की तरह विरोधियों ही नहीं अपने लोगों की हर गतिविधियों पर नजर रखी जाएगी, उनकी हर बातचीत सुनी जाएगी और उनके मिलने-जुलने का हिसाब-किताब रखा जाएगा। इस तरह का खुफिया तंत्र लोकतंत्र में नहीं चल सकता है। पेगासस का मामला सामने आने से इस बात का सबूत आ गया है कि भारतीय लोकतंत्र एक फासीवादी राज्य में बदल गया है और यह महज व्यक्तिगत पसंद या नापसंदगी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। यह इस बात का संकेत है कि वह लोगों को जवाब देना जरूरी नहीं मानते हैं। विपक्ष और संसद के साथ भी वह इसी तरह का रवैया अपनाए हैं। पेगासस खुलासे ने यह बता दिया है कि वह विरोधियों का सामना जनता की अदालत में करने के बदले उन्हें ‘ठीक’ करने में  यकीन करते हैं। पेगासस ‘ठीक’ करने के काम आने वाला हथियार है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि जब सत्ता को जनमत की फिक्र न रहे तो समझ लेना चाहिए कि लोकतंत्र श्मसान की ओर बढ़ रहा है। पेगासस खुलासा इसी का संकेत दे रहा है।

लोकतंत्र के साथ ही सेकुलरिज्म का मसला है। उस मोर्चे पर हमारी हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कि भारत का प्रधानमंत्री राममंदिर का शिलान्यास करता है। बाबरी मस्जिद का ध्वंस भारत के सेकुलरिज्म पर कुल्हाड़ी का प्रहार था। लेकिन प्रधानमंत्री का आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के साथ मंदिर के शिलान्यास की पूजा करना भारत के हिंदू राष्ट्र में बदलने की अनौपचारिक घोषणा है। इस समय हमें याद करना चाहिए कि महात्मा गांधी ने सोमनाथ मंदिर बनाने में सरकारी पैसा लगाने का विरोध किया था और मंदिर बनाने में दिलचस्पी ले रहे सरदार पटेल ने उनकी राय को स्वीकार किया था। जब मंदिर में जीर्णोद्धार के बाद कलश स्थापना के लिए डॉ. राजेंद्र प्रसाद गए तो उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें मना किया था और उनके कदम की आलोचना की थी यह राज्य के सेकुलर होने की अवधारणा के खिलाफ है। अब तो सरकारी पैसे से अयोध्या में धार्मिक कार्यक्रम हो रहे हैं। हिंदुत्व ने देश की राजनीति में ऐसी स्थिति बना दी है कि मोदी के विकल्प में खड़े राहुल गांधी के जनेऊधारी हिंदू होने का दावा पेश किया जाता है। मुसलमानों को पिछले सालों में मॉब लिंचिंग का सामना करना पड़ा है और नागरिकता संशोधन कानून जैसे पक्षपात को झेलना पड़ा है।

फादर स्टेन स्वामी की मौत राज्य प्रायोजित हिंसा का ही एक नमूना है। इसके पहले हम जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 के खात्मा और स्वायत्तता की मांग कर रहे कश्मीर का राज्य का दर्जा छीन लेने की करतूत देख चुके हैं। भारतीय लोकतंत्र में देश के संघीय ढांचे की महत्वपूर्ण जगह है। हम जानते हैं कि उसकी आज क्या हालत है।

आजादी के 75वें साल में यह खोजना भी जरूरी है कि किन वजहों से हमारे लोकतंत्र की ऐसी हालत हुई है और हम अघोषित तानाशाही के दौर में पहुंच गए हैं। एक चीज तो साफ दिखाई देती है कि देश की अर्थव्यवस्था पर देशी-विदेशी पूंजी का शिकंजा कसने और जल, जमीन तथा जंगल की लूट तेज होने का लोकतंत्र पर हमले से सीधा संबंध है। लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाओं-सुप्रीम कोर्ट, रिजर्व बैंक चुनाव आयोग आदि-को कमजोर करने की रफ्तार उसी हिसाब से बढ़ी है। मोदी सरकार उस राजनीतिक व्यवस्था को खत्म करने में लगी है जो आजादी के आंदेालन में उभरे विचारों पर आधारित है। आजादी का आंदोलन उपनिवेशवाद, विषमता तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष था। मोदी सरकार के मार्गदर्शी संघ परिवार के विचार तीनों को बनाए रखने के पक्ष में है। हमें उस लोकतंत्र को फिर से जीवित करने का संघर्ष करना पड़ेगा जिसकी स्थापना आज से 75 साल हमने की। 

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

75th Independence day
independence day
democracy
Indian democracy
Save Democracy
Fundamental right
Indian constitution
Narendra modi
Modi Govt

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

सरकारी एजेंसियाँ सिर्फ विपक्ष पर हमलावर क्यों, मोदी जी?

भाजपा के लिए सिर्फ़ वोट बैंक है मुसलमान?... संसद भेजने से करती है परहेज़


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License