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भारत
राजनीति
वेंटिलेटर और अस्पतालों में बिस्तर की कमी का समाधान लॉकडाउन!
आख़िर हम थोड़े से और वेंटिलेटर क्यों नहीं बना पा रहे और अस्पतालों में कुछ और बेड का इंतजाम करा पाने की हालत में क्यों नहीं हैं? आख़िर इसके लिए कितने पैसे चाहिए?
एम. के. भद्रकुमार
27 Mar 2020
 लॉकडाउन

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राष्ट्र के नाम संदेश में "पूर्ण तालाबंदी" की घोषणा कर रहे थे, उसी समय ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सनारो भी अपने टीवी के जरिये संबोधन में कोरोनो वायरस के खिलाफ बचाव के ऐसे स्वास्थ्य उपायों को खारिज करते हुए इसे "झुलसी धरती" वाली चालबाजी साबित करने पर तुले हुये थे।

बोल्सनारो हम भारतीयों के लिए एक जाना-पहचाना चेहरा हैं। वे मोदी के सबसे खास दोस्तों में से एक हैं, उन्होंने इन्हें जनवरी में हमारे देश के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। दोनों ही धुर-दक्षिणपंथी राजनेता हैं लेकिन इसके बावजूद कोरोनो वायरस के प्रति उनका रवैया एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत है।

भारत में मोदी ने मानव इतिहास में दुनिया की अबतक की सबसे बड़ी तालाबंदी के निर्देश दिये हैं। मानव जाति के लगभग एक-पांचवें हिस्से को तालाबंदी के तहत डाल दिया गया है। मोदी ने कहा "सम्पूर्ण भारत को और प्रत्येक भारतीय को बचाने के निमित्त, बाहर निकलने को  पूर्णरूपेण प्रतिबंधित किया जा रहा है।"

मोदी के अनुसार कोरोना वायरस में वह क्षमता है कि यह “जंगल में आग की तरह फ़ैल” सकता है। उन्होंने कहा “आपको यह बात गाँठ बाँध लेनी होगी कि यदि आप अपने घरों से बाहर कदम रखते हैं तो आप अपने घरों में कोरोना वायरस जैसे भयंकर महामारी को दावत देने का काम कर रहे हैं।"

वहीं दूसरी तरफ बोल्सनारो ने कोरोनावायरस पर रोकथाम के लिए किये जा रहे व्यापक पैमाने पर क्वारंटाइन की जरूरत को ही सिरे से ख़ारिज कर दिया है। कोरोना वायरस को एक "मीडिया फंतासी" और उसकी एक "चाल" के रूप में बताते हुए वे शांत भाव से कहते हैं “यह वायरस आ चुका है और हम इससे लड़ रहे हैं और जल्द ही यह विपदा यहाँ से गुजर जायेगी।"

अपने देश में सत्ताधारी लोगों से इस सम्बन्ध में उन्होंने लगातार अपील की है कि कृपा करके अपनी झुलसी-धरती वाले विचारों को त्याग दें। बोल्सनारो ने अपने देशवासियों से अपील की है कि “हमारी जिन्दगी आगे बढ़ती रहनी चाहिए.... हमें यह सुनिश्चित करना होगा, जी, सामान्य स्थिति में लौट आयें।"

वे आगे कहते हैं, “दुनिया भर में जो कुछ हो रहा है उससे पता चलता है कि खतरे में सिर्फ वे लोग हैं जो 60 साल से ऊपर की उम्र के हैं। तो इसके लिए स्कूलों को क्यों बंद किया जाये? ... यदि हम सब लोग संक्रमित हो भी जाते हैं तो भी हममें से नब्बे प्रतिशत लोगों में इसके कोई लक्षण नहीं नज़र आयेंगे।

यह सच है कि जहाँ मोदी का कद इससे एक "मजबूत" नेता के रूप में उभरा है, वहीं बोल्सनारो का यह सम्बोधन उनके आलोचकों के चलते उनकी बहुत भद्द पिटवा रहा है। इस बारे में ब्राजील के एक प्रमुख पत्रकार ने अपने ट्वीट में कहा है  "राष्ट्रीय रेडियो और टेलीविजन पर पहली बार किसी के राजनीतिक आत्महत्या का सजीव प्रसारण।"

अब इसकी तुलना करें एक भारतीय टीवी में एंकरिंग करने वाले से जिसने अपने ट्विटर पेज पर लिखा है “आज रात के राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में पीएम जोरदार तरीके से नजर आये। वास्तविक। सशक्त। भावुक… [मोदी] ने जितने अच्छे तरीके से हो सकता था अपने काम को अंजाम दिया है… ”

मोदी-बोल्सनारो के बीच की मत भिन्नता को देखते हुए कौन सा पक्ष इसमें से तर्कसंगत है इसे इसका अनुमान लगाना इस बिंदु पर काफी मुश्किल है। क्योंकि ये कहानी अभी यहीं पर खत्म नहीं हो रही है, यह जारी रहने वाली है। पेंटागन में सवालों के जवाब देते हुए 2002 में पूर्व अमेरिकी रक्षा सचिव रोनाल्ड रम्सफेल्ड के शब्दों को यदि उधार लें जब उनसे सद्दाम हुसैन के आतंकी गुटों से जुड़े होने में साक्ष्य की कमी के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने जवाब कुछ इस प्रकार से दिया था,

"जो रिपोर्टें ये बताती हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है, वे हमेशा से मेरे लिए दिलचस्प रही हैं, क्योंकि जैसा कि हम जानते हैं, जो ज्ञात हैं वो ज्ञात हैं;  जैसे कि कुछ चीजें जिनके बारे में हम जानते हैं कि हम जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि कुछ चीजें ऐसी हैं जो ज्ञात हैं लेकिन अज्ञात हैं; कहने का मतलब है कि हमें पता है कि कुछ चीजें हैं जो हम नहीं जानते हैं। लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो हमें नहीं पता कि हमें नहीं पता हैं - जिन्हें हम नहीं जानते हैं उससे हम अनभिज्ञ हैं। और यदि आप अपने देश और दुनिया के तमाम स्वतंत्र देशों के समूचे इतिहास पर नजर डालें तो आप पायेंगे कि ये जो बाद वाली श्रेणी वाले हैं उनके मुश्किल में पड़ जाने मौके कहीं अधिक होते हैं। ”

दिलचस्प तथ्य यह है कि Covid-19 पर हाल ही में ऑक्सफ़ोर्ड में सैद्धांतिक महामारी विज्ञान की प्रोफेसर सुनेत्रा गुप्ता के नेतृत्व में ब्रिटिश वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा अपने अध्ययन को पूरा कर लिया गया है। इसमें पता चलता है कि कोरोना वायरस के पहले-पहल रिपोर्ट किये जाने से करीब दो हफ्ते पहले से ही यह जनवरी माह के मध्य से ब्रिटेन में लोगों के बीच घूम रहा था।

इस अध्ययन में पाया गया है कि Covid-19 से एक हजार से भी कम लोग अस्पताल में इलाज के लायक बीमार पाए गए, जबकि अधिकांश लोगों में इसके हल्के लक्षण विकसित हो रहे थे या उनको कुछ भी फर्क नहीं पड़ा था। जिसका सीधा सा अर्थ है कि चूंकि वायरस के व्यापक रूप से विस्तार हेतु पर्याप्त समय था, लेकिन इस बीच देश में कई लोगों ने प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर ली थी।

FT को दिए अपने एक साक्षात्कार में प्रोफेसर गुप्ता बोल पड़ती हैं "मुझे आश्चर्य होता है इस तरह के राजशाही मॉडल को ऐसी अयोग्य स्वीकृति मिलते देख [पढें लॉकडाउन पर ब्रिटेन के प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन के फैसले के सम्बन्ध में]"।

उनकी इस थीसिस को इस सप्ताह के अंत में जाकर परीक्षण में लाये जाने की उम्मीद है। यदि प्रोफेसर गुप्ता के निष्कर्षों की पुष्टि हो जाती है तो इसका अर्थ होगा कि ब्रिटेन ने पहले से ही इस बीमारी के अपरिचित प्रसार के जरिये पर्याप्त "हर्ड इम्युनिटी" हासिल कर ली है। इसका मतलब हुआ कि कोरोना वायरस का और अधिक फैलाव खत्म हो जाएगा जब पर्याप्त संख्या में लोग संक्रमित होने के बाद प्रतिरोधी हो चुके होंगे।

इसके अपने गंभीर निहितार्थ हैं। इसका मतलब है कि ब्रिटेन में जो समूचे स्तर पर बंदी है उसके जल्द ही हटाये जाने की उम्मीद बन सकती है। यूके में Covid-19 के बारे में पता करने के लिए अब तक 90,000 से अधिक लोगों का परीक्षण किया जा चुका है, जिनमें से 82,359 की रिपोर्ट नेगटिव पाई गई है। और सबसे महत्वपूर्ण रूप से जो बात निकलकर आई है वह यह कि जिन लोगों की मौत हुई है उन लोगों की उम्र 33 से लेकर 103 वर्ष के बीच थी और वे सभी बुनियादी स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ निस्सहाय समूहों से आते थे।

जॉनसन की तुलना में मोदी की ओर से की गई तालाबंदी कहीं अधिक कठोर है। जॉनसन ने अपनी घोषणा में ब्रिटिश जनता को सिर्फ चार वजहों से अपने घरों से बाहर निकलने की अनुमति दी है: आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी के लिए, प्रति दिन व्यायाम करने के लिए बाहर निकले की छूट, अपनी चिकित्सीय जरूरतों के लिए या किसी असहाय व्यक्ति की देखभाल हेतु और आवश्यक कार्य के लिए आवागमन की छूट। वहीं मोदी का जोर इस बात पर है कि कोरोनो वायरस हमारे दरवाजे के ठीक सामने झाँक रहा है।

साफ शब्दों में कहें तो स्थिति बेहद पेचीदा हो चली है: क्या एक वायरस का गणित देश भर को क्वारंटाइन करने को तार्किक ठहरा सकता है, जिसमें मृत्यु दर लगभग 1.5 प्रतिशत की है। जबकि नतीजे के तौर पर जो अकल्पनीय आर्थिक नरसंहार को सुनिश्चित करता है?

लेकिन देखने में आता है कि अक्सर ही ऐसे राजनेता, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो खुद को महाबलशाली दिखने में गौरवान्वित होते हैं, ऐसे विनाशकारी निहितार्थों के मौकों पर अपनी ओर से सुरक्षित चाल चलना ही श्रेयस्कर पाते हैं।

कुलमिलाकर मन की बात कुछ इस प्रकार से है कि कहीं से कोई चमत्कार हो जाये – जल्दी से इसका टीका तैयार हो, जिसका भारी पैमाने पर उत्पादन और वितरण हो सके, या भारत की चिलचिलाती गर्मी में इस वायरस का मारा जाना तय है; या भगवान कुछ कर देंगे, जैसा कि एचजी वेल्स के उपन्यास वॉर ऑफ़ द वर्ल्डस में है। कोरोनावायरस कोई जिन्न नहीं है जिसे आसानी से बोतल में डाल बंद किया जा सकता है।

इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि एक राष्ट्र के रूप में हमारे सामने जो कुछ घट रहा है, उसकी गंभीरता को समझें। हमें चुनाव इस बात को लेकर करना है कि क्या हम अनिश्चित काल तक के लिए क्वारंटाइन रहें और सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक सम्पूर्ण विनाश को स्वीकार कर लें। या यह जानते हुए कि किसी भी हालत में काफी लोग मारे जाने वाले हैं, तो ऐसे में वंचितों की सुरक्षा को लेकर विशेष ध्यान दिए जाये और अन्य को वापस काम-धंधों पर लगाने की जरूरत है।

बीबीसी के स्वास्थ्य और विज्ञान संवाददाता जेम्स गैलाघर की ओर से एक लेख छापा गया है जिसमें एक बड़े पते की बात पूछी गई है कि: यह प्रकोप कब खत्म होने जा रहा है, और जिन्दगी एक बार फिर से कब पटरी पर वापस लौटने जा रही है?

गैलाघर ने लिखा है: “चाहे अगले तीन महीनों में भी इन मामलों की संख्या में कमी होनी शुरू हो जाये, लेकिन इसके बावजूद हम इसके खात्मे को सुनिश्चित नहीं करने जा रहे। इस ज्वार के उतार में लम्बा वक्त लगने वाला है - संभवतः वर्षों तक इन्तजार करना पड़े। लेकिन इतना स्पष्ट है कि समाज के बड़े हिस्से की तालाबंदी वाली यह वर्तमान रणनीति लम्बे समय के लिए कहीं से भी टिकाऊ नजर नहीं आती।”

"आज देशों को जरूरत इस बात की है कि वे इससे 'बाहर निकलने की रणनीति' पर मंथन करें। ऐसे तरीके ढूंढे जिससे इन प्रतिबंधों को हटाया जा सके और वापस सामान्य स्थिति की ओर लौटा जा सके। क्योंकि कोरोनो वायरस गायब होने नहीं जा रहा। इस बात की पूरी संभावना है कि इधर आप उन प्रतिबंधों को हटाते हैं जिसके चलते वायरस आगे नहीं फ़ैल रहा था, ऐसे मामलों में अनिवार्य रूप से बढ़ोत्तरी देखने को मिले।"

वास्तव में “बाहर निकलने की रणनीति" क्या हो सकती है? इस संकट से उबरने के लिए गैलाघर ने अनिवार्य तौर पर तीन रास्ते सूचीबद्ध किए हैं: टीकाकरण; संक्रमण के माध्यम से पर्याप्त संख्या में लोग प्रतिरक्षा विकसित करें; या हमेशा के लिए हम अपने व्यवहार/समाज को बदल डालें।

निष्कर्ष के तौर पर वे लिखते हैं  "इन सभी उपायों से वायरस के फैलाव की क्षमता को कम किया जा सकता है।" लेकिन कोरोनो वायरस "गायब नहीं होने जा रहा" और लम्बे समय के लिए यह लॉकडाउन की रणनीति भी टिकाऊ नहीं है, क्योंकि इससे जो सामाजिक और आर्थिक नुकसान होने जा रहे हैं वे अपने आप में विनाशकारी हैं।

हमें पूरा ध्यान इस ओर लगाना चाहिए कि किस प्रकार से प्रतिबंधों में ढील दी जा सके और जिन्दगी को वापस पटरी पर लाया जाये। लेकिन हो यह रहा है कि वेंटिलेटर और अस्पतालों में बेड की अनुमानित कमी के चलते हम अनिश्चित काल के लिए अपनी बुनियादी स्वतंत्रता तक को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।

आखिर हम थोड़े से और वेंटिलेटर क्यों नहीं बना पा रहे और अस्पतालों में कुछ और बेड क्यों नहीं इंतजाम कर पा रहे? आखिर इस सब में कितने पैसे बर्बाद होंगे? मुझे लगता है कि लुटियंस दिल्ली में सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के एक मामूली से अंश से अधिक तो नहीं?

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

A Lockdown for Ventilators and Hospital Beds

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