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नज़रिया
भारत
राजनीति
आपात स्थिति के समय में प्रहार करती न्यायपालिका (भाग-1)
जब अदालतें अपनी भूमिकायें कार्यपालिका की सहायता करने के रूप में देखती हैं; जब अदालतें नज़र आ रही लोगों की हक़ीक़त पर भी भरोसा नहीं कर पाती हैं, जब अदालतें अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने में नाकाम हो जाती हैं; तो ऐसे में किसी का इस बात लोकर हैरान होना स्वाभाविक है कि आख़िर इन अदालतों के होने के मतलब क्या है?
मिहिर देसाई  
03 Jun 2020
sc

यह आलेख इस बात को लेकर नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग सुनवाई के असर क्या रहे या सुनवाई के लिए कितने न्यायाधीशों या फिर न्यायाधीशों को सुनवाई के लिए लगातार बैठना चाहिए या नहीं। यह आलेख उच्चतर भारतीय न्यायपालिका,विशेष रूप से उस सर्वोच्च न्यायालय की अनिच्छा को लेकर है, जिसने इससे पहले कोविड-19 पर जताई गई चिंताओं को संबोधित करने और इस तरह भारत के संविधान की रक्षा करने के अपने स्वयं के कर्तव्य को ख़ारिज कर दिया है। कोई अधिकतम संदेह का लाभ उठा सकता है और इस बात को स्वीकार कर सकता है कि लॉकडाउन के शुरुआती हफ़्ते में सुप्रीम कोर्ट को लगा हो कि सरकार शायद अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रही है। लेकिन,यह भ्रम कब तक बना रह सकता था, जब कि सात दिनों के भीतर ही संकट की विभीषिका एकदम साफ़ हो गयी थी। हालांकि, कुछ गंभीर मांगे तो नहीं थीं, लेकिन उच्च स्तर की चिकित्सा विशेषज्ञता की मांग की जा रही थी, सर्वोच्च न्यायालय के सामने अनेक मुद्दे उठाये गये थे, जिन पर विचार किया जा सकता था और उन पर विचार किया जाना चाहिए था, लेकिन सबसे बड़ी अदालत ऐसा कर पाने में नाकाम रहीं।

दो भागों की श्रृंखला वाले इस आलेख में महामारी के समय मानवीय संकट के सिलसिले में अदालतों की भूमिका पर विचार विमर्श किया जायेगा। पहला भाग इस मायने में ख़ास होगा कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल सरकार को लेकर क्रमश: सम्मान दिखाने और सरकार पर प्रहार करने के लिए किया है। 1975-77 के आपातकाल के दौरान की तरह उच्च न्यायालयों में से कुछ उच्च न्यायालय लोगों के अधिकारों को लेकर ज़्यादा सक्रिय रहे हैं। अब तक, 19 उच्च न्यायालयों ने विभिन्न मुद्दों पर उसी तरह के फ़ैसले सुनाये हैं और सरकारों को दिशा-निर्देश दिये हैं, जिस तरह के फ़ैसले और दिशा-निर्देश संवैधानिक न्यायालय को मानवीय संकट के समय में देने चाहिए।

प्रवासी मज़दूर

हालांकि 24 मार्च का लॉकडाउन लोगों के लिए अचानक किसी वज्रपात के रूप में आया रहा होगा, लेकिन केंद्र सरकार के लिए तो यह एक सुनियोजित कार्रवाई थी। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित कर दिया था। अप्रैल की शुरुआत में कोविड-19 याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार द्वारा दाखिल एक स्टेटस रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था कि केंद्र सरकार ने 7 जनवरी, 2020 से ही अस्पताल की तैयारी जैसी सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं। सुप्रीम कोर्ट मार्च के पहले सप्ताह से ही बहुत सीमित तत्काल सुनवाई के आधार पर चलना शुरू कर दिया था।

2019 में सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) और अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की तरफ़ से किये गये एक अध्ययन का अनुमान है कि भारत के बड़े शहरों में 29% आबादी दैनिक वेतन भोगियों की है। दरअस्ल यही उन लोगों की वह संख्या है, जो ठीक ही कह रहे रहे हैं कि वे सब अपने-अपने राज्य में वापस जाना चाहते हैं।  कोई तो ऐसी कुशल सरकार होगी, जिसने अपने गृह राज्यों में प्रवासियों के रेला के आने की आशंका व्यक्त की होगी और जिसके लिए उन्होंने योजना बनायी होगी।

अलख आलोक श्रीवास्तव की तरफ़ से दायर एक याचिका में केंद्र सरकार ने कहा है कि लगभग 6 लाख प्रवासी श्रमिकों को सरकारी शेल्टरों में रखा गया और क़रीब 22 लाख लोगों को भोजन मुहैया कराया गया है। "करोड़ों अन्य प्रवासियों का क्या होगा", निश्चित रूप से यह एक ऐसा सवाल था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल ही नहीं माना। सॉलिसिटर जनरल ने अविश्वसनीय रूप से बयान दिया कि 31 मार्च की सुबह 11 बजे तक "एक भी प्रवासी मज़दूर नहीं चल रहा था!”, आगे कहा गया कि प्रवासी मज़दूरों के चलने की बात दरअस्ल फ़र्ज़ी ख़बरों से पैदा हुआ आतंक है। यह एक चकित कर देने वाला दावा था, लेकिन न्यायालय ने इन सभी अर्ज़ियों को स्वीकार कर लिया। अदालत ने पूरे मामले को यह कहते हुए निपटा दिया कि केंद्र सरकार जो कर रही है, उसे करते रहना चाहिए। इस तरह, प्रवासी संकट पर अदालती किताब का पहला अध्याय पूरा हो गया।

बिना किन्हीं स्पष्ट कारणों के अदालत ने प्रवासी संकट पर सांसद महुआ मोइत्रा की याचिका पर लिये गये अपने स्वत: संज्ञान को खारिज कर दिया। इस तरह, अध्याय दो भी पूरा हो गया।

7 अप्रैल को दायर एक याचिका, जिसमें प्रवासी श्रमिकों को मज़दूरी का भुगतान किये जाने की मांग की गयी थी, उसकी सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने बेफ़िक़्री से कह डाला कि "अगर प्रवासियों को खिलाया जा रहा है, तो उन्हें पैसे क्यों चाहिए ?" और किसी इंसान की दूसरी वित्तीय आवश्यकताओं और ज़रूरतों की अनदेखी कर दी। इसके अलावा, अदालत ने याचिकाकर्ता हर्ष मंदर की तरफ़ से दायर शपथपत्र को सरकार के दावों की जांच या सत्यापन के किसी भी प्रयास के बिना मौखिक रूप से ख़ारिज कर दिया। इस तरह, तीसरा अध्याय भी पूरा हो गया।

अदालत ने 4 मई को प्रवासियों को अपने मूल राज्यों में वापस जाने की अनुमति से जुड़ी तमाम याचिका का निपटारा यह मानते हुए कर दिया कि अदालत उनकी यात्रा को लेकर शुल्क के मुद्दे पर विचार नहीं कर सकती।। इससे चौथा अध्याय भी पूरा हो गया।

 16 मई को अपने-अपने गृह राज्य जा रहे कुछ प्रवासी मज़दूरों पर एक ट्रेन के गुज़र जाने से उनकी मौत हो गयी। अलख आलोक श्रीवास्तव की तरफ़ से अदालत के सामने ज़िला मजिस्ट्रेटों को निर्देश दिये जाने की मांग करते हुए तत्काल अर्ज़ किया गया कि वे चल रहे लोगों को आश्रय और भोजन का इंतज़ाम करायें। न्यायाधीशों में से एक ने टिप्पणी करते हुए कहा कि यह अर्ज़ी पूरी तरह से अख़बार की रिपोर्टों पर आधारित थी। इसके अलावा, वास्तव में उदात्त टिप्पणी करते हुए एक दूसरे न्यायाधीश ने कहा, "हम लोगों को चलने से आख़िर रोक कैसे सकते हैं।" सॉलिसिटर जनरल ने अपनी विशिष्ट असंवेदनशीलता के साथ टिप्पणी करते हुए कहा, "अगर लोग ट्रेन यात्रा को लेकर अपनी बारी का इंतज़ार करने को तैयार नहीं हैं, तो इसमें सरकार क्या कर सकती है।" इन असंवेदनशील टिप्पणियों ने उस महत्वपूर्ण बिंदू को भुला दिया कि लोगों को चलने में मजबूर किया गया था, क्योंकि उन्हें भोजन या पानी कुछ भी नहीं मिल रहा था; वे इसलिए चल रहे थे, क्योंकि उनके पास ट्रेन का टिकट ख़रीदने के लिए पैसे नहीं थे; वे इसलिए चल रहे थे, क्योंकि किसी को भी इस बात का इत्मिनान नहीं था कि ट्रेन से यात्रा करने की उनकी बारी कब आयेगी। अप्रत्याशित रूप से और पहले से ही निर्धारित प्रतिमान के साथ आगे बढ़ते हुए, इस अर्ज़ी को भी ख़ारिज कर दिया गया। इस तरह पांचवा अध्याय भी पूरा हो गया।

लेकिन, इसके ठीक उलट, हाईकोर्ट सरकारों को निर्देश जारी कर रहे हैं और इसे लेकर सरकारों की नाकाफ़ी कार्रवाइयों के लिए सरकारों की खिंचाई कर रहे हैं। 12 मई को मोहम्मद आरिफ़ जमील बनाम भारत संघ के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि हालांकि राज्य सरकार की तरफ़ से विशेष "श्रमिक" ट्रेनों के लिए भुगतान की उम्मीद की जा रही है, लेकिन कर्नाटक सरकार राज्य के प्रवासी श्रमिकों से ट्रेन का किराया वसूल रही है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इसे प्रवासी श्रमिकों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताया और राज्य सरकार को एक स्पष्ट समय सारिणी सुनिश्चित करने का निर्देश दिया ताकि प्रवासी अपने-अपने गृह राज्य वापस जा सकें। पीठ ने 12 मई को ट्रेनों में प्रवासियों को बैठाने के लिए उनके चयन करने की किसी तरह की "पारदर्शी या तर्कसंगत नीति" के नहीं होने पर सरकार को फटकार लगायी।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने 15 मई को प्रवासियों के लिए शिविर और शहर से बाहर उनके रहने के ठिकाने स्थापित करने का निर्देश दिया। इस निर्देश में शिविरों और ठिकानों पर डॉक्टर, पानी, भोजन, ओआरएस घोल, शौचालय और सेनेटरी के प्रावधान शामिल थे। इसके अलावा, निर्देश में इस बात का  भी ज़िक़्र था कि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बसों और पुलिस गश्ती वैन का इस्तेमाल करते हुए प्रवासियों को निकटतम आश्रय स्थलों तक पहुंचाया जाय और उनके बीच ऐसे पंपलेट वितरित किये जायें, जिनमें निकटतम आश्रय स्थलों के बारे में जानकारियां हों।

इसी तरह, गुजरात हाईकोर्ट ने 11 मई को प्रवासियों की दुर्दशा को लेकर इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख के आधार पर स्वत: संज्ञान लिया। ‘घर जाने वाले प्रवासी श्रमिकों को रोकें, उन्हें शेल्टर में ले जायें: डीजीपी’। कोर्ट ने भोजन और पानी की व्यवस्था के साथ-साथ कितने शेल्टर होम चालू हैं, इस पर जवाब मांगा था। कोर्ट ने सहानुभूतिपूर्वक इस बात पर ध्यान देते हुए भुखमरी के व्यापक भय को महसूस किया और राज्य सरकार से प्रवासी मज़दूरों में भरोसे और आत्मविश्वास की बहाली के लिए क़दम उठाने को कहा। "यही उचित समय है,जब राज्य सरकार इस नाज़ुक स्थिति से बहुत सावधानी से निपटे और लोगों के मन में इस बात का भरोसा पैदा करे कि उनका ध्यान रखा जायेगा।"

मद्रास उच्च न्यायालय ने 15 मई को एपी सूर्यप्रकाशम बनाम पुलिस अधीक्षक मामले में एक आदेश पारित किया, जिसमें प्रवासियों के संकट को उल्लेख किया गया। कोर्ट ने कहा, “पिछले एक महीने से मीडिया में दिखाये जा रहे प्रवासी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को देखकर कोई भी अपने आंसू नहीं रोक सकता। यह एक मानवीय त्रासदी के अलावा और कुछ नहीं है… प्रिंट मीडिया के साथ-साथ विज़ुअल मीडिया में भी यह हृदयविदारक कहानियां बतायी-दिखायी जा रही है कि लाखों कामगार अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ अपने-अपने मूल राज्यों की तरफ़ चल देने के लिए मजबूर हैं ….., उन प्रवासी मज़दूरों की मदद के लिए सरकारों की तरफ़ से किसी तरह के कोई ठोस क़दम नहीं उठाये गये हैं।”  अदालत ने मूल और प्रवासित, दोनों ही राज्यों को श्रमिकों की सुरक्षा और हितों के लिए जवाबदेह बताया और सभी राज्य अधिकारियों को इन श्रमिकों के लिए मानवीय सेवाओं को बढ़ाने और उन्हें मुहैया कराने का निर्देश दिया।

पटना उच्च न्यायालय ने मुज़फ़्फ़रपुर रेलवे स्टेशन पर ज़बरदस्त डिहाइड्रेशन और भुखमरी से पीड़ित गुजरात से आने वाली अरबीना नाम की एक प्रवासी मज़दूर की मौत का स्वत: संज्ञान लिया। राज्य अधिवक्ता ने शर्मनाक आरोप लगाते हुए कहा कि वह मानसिक रूप से विक्षिप्त थी और उसकी मौत एक स्वाभाविक मौत थी; लेकिन मृतक के पिता ने इस दावे का खंडन किया। अदालत ने वक़ील आशीष गिरी को एमिकस यानी एक निष्पक्ष सलाहकार के रूप में नियुक्त किया है, और केंद्र सरकार के साथ ओवरलैप करने वाले मुद्दों पर सभी तथ्यों और सूचनाओं पर राज्य अधिवक्ता से जवाब तलब किया है।

 भोजन और राशन

लॉकडाउन लगने के साथ ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि न सिर्फ़ प्रवासी मज़दूरों,बल्कि उन लोगों को भी भोजन और पीने के पानी की ज़रूरत होगी, जो ग़रीबी रेखा के नीचे अपना जीवन गुज़र-बसर कर रह रहे हैं। बड़ी संख्या में श्रमिक रातोंरात बेरोज़गार हो गये और कई श्रमिकों को तो उनके पिछले वेतन का भुगतान तक नहीं किया गया। 24 मार्च की रात 8 बजे लॉकडाउन को लेकर प्रधानमंत्री का जो भाषण था, उसमें खाद्य आपूर्ति के सम्बन्ध में किसी तरह का न दिशा-निर्देश था या न ही किसी तरह का आश्वासन था, ऐसे में व्यापक रूप से ख़रीदारी को लेकर हड़कंप मच गया और जमकर जमाखोरी भी हुई।

हालांकि मुफ़्त राशन की घोषणा ज़रूर की गयी थी, लेकिन यह तभी उपलब्ध होता, जब आप पहली बार राशन ख़रीदते। भारत में बड़ी संख्या में लोगों के पास या तो राशन कार्ड ही नहीं हैं या अगर है भी तो उनके अपने राज्य स्थित उनके गांव वाले राशन कार्ड हैं। इन दोनों वजहों से प्रवासी मज़दूरों की पात्रता राशन पाने की नहीं रह गयी और इसका नतीजा यह हुआ कि वे मुफ़्त राशन से वंचित हो गये। ग़ौरतलब है कि एफ़सीआई के गोदामों में इतना बफ़र स्टॉक पड़ा है कि पूरी आबादी को कई बार खिलाया जा सकता है। सरकार को न केवल लॉकडाउन के दौरान स्टॉक जारी करना चाहिए था, बल्कि इसके बाद के महीनों के लिए भी लोगों को पूरी तरह से मुफ़्त राशन दिया जाना चाहिए था। यह भोजन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में कार्यान्यवन को सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीक़ा था।

आयोम वेलफ़ेयर ट्रस्ट की तरफ़ से एक याचिका दायर की गयी थी, जिसमें सरकार से उन्हें भी राशन दिये जाने का अनुरोध किया गया था,जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं और इस याचिका में सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक सार्वभौमिक पहुंच की भी मांग की गयी थी। इस याचिका को एक "नीतिगत मामला" कहकर निपटा दिया गया और सरकार से अनुरोध किया गया कि वह इस मामले पर विचार कर सकती है। दूसरी ओर, उच्च न्यायालयों ने सरकारों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए क़दम उठाने के लिए दबाव डाला। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्वराज अभियान मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा कि सूखे के समय किसी भी तरह का पहचान प्रमाण पत्र राशन का दावा करने के लिए पर्याप्त है और राशन कार्ड के सम्बन्ध में कोविड -19 संकट के लिए भी यही तर्क लागू होता है। इसके अलावा, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने राज्य से पूछा कि आख़िर किस तरह (और कि नहीं) वह आंगनवाड़ी और मिड डे मिल से बच्चों को भोजन मुहैया करा पायेगा, जिसके चलते सरकार के पास योजना बनाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया।

अदालत ने माना कि भिखारी, ट्रांसजेंडर और यौनकर्मी जैसे हाशिये पर रहने वाले समुदायों से जुड़े कई लोगों के पास राशन कार्ड नहीं हो सकते हैं। अदालत ने इस बात पर बल दिया कि राज्य सरकार भोजन पर एक व्यापक नीति के प्रावधान करे। अदालत ने मुफ़्त गैस सिलेंडर नहीं देने पर सरकार को ज़बरदस्त लताड़ लगायी। अदालत ने कहा कि बेघरों की पहुंच अख़बारों तक नहीं हो सकती है, इसलिए सरकारी राहत उपायों को लेकर ऐसे विज्ञापन निरर्थक होते हैं। अदालत के इस सभी फ़ैसले और दिशा-निर्देशों ने राज्य को एक खाद्य नीति बनाने और राहत उपायों की सार्वजनिक घोषणा करने की दिशा में क़दम उठाने के लिए प्रेरित किया।

 मुफ़्त परीक्षण

साफ़ है कि कोविड-19 का पता लगाने और इसके उपचार के लिए कोविड का परीक्षण बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि कुछ सरकारी प्रयोगशालायें हैं, जहां परीक्षण मुफ़्त में उपलब्ध है, लेकिन वहीं बड़ी संख्या में ऐसी निजी प्रयोगशालायें हैं, जहां परीक्षण के लिए भुगतान किया करना होता है। भुगतान की रक़म 4,500 / - प्रति परीक्षण है। एक व्यक्ति का दो बार परीक्षण करना होता है। इसलिए, अगर किसी परिवार में चार लोग हैं,तो न्यूनतम परीक्षण शुल्क 36,000 /रुपये होगा। ग़रीबों के लिए इतनी राशि ख़र्च कर पाना नामुमकिन था। सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर भी एक याचिका दायर की गयी थी।

 अदालत ने 8 अप्रैल को एक आदेश पारित करते हुए कहा था कि सरकारी और निजी अस्पतालों में कोविड-19 परीक्षण मुफ़्त होना चाहिए। निजी अस्पतालों ने तुरंत यह मांग करते हुए हस्तक्षेप किया कि आयुष्मान भारत योजना में सिर्फ़ ग़रीब ही नि: शुल्क परीक्षण का लाभ उठा सकते हैं। भारत में कम से कम पांच करोड़ से ज़्यादा ग़रीब इस योजना में शामिल नहीं हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि लाखों कमाने वाली निजी प्रयोगशालाओं को कुछ धर्मार्थ कार्य करने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए। अदालत को कम से कम निजी अस्पतालों को ये परीक्षण मुफ़्त करने के लिए कहना ही चाहिए था और सरकार को इन परीक्षणों के लिए भुगतान करने का निर्देश देना चाहिए था।

 निष्कर्ष

जब अदालतें अपनी भूमिकायें कार्यपालिका की सहायता करने के रूप में देखती हैं; जब अदालतें नज़र आ रही लोगों की हक़ीक़त पर भी भरोसा नहीं कर पाती हैं, जब अदालतें अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने में नाकाम हो जाती हैं; तो ऐसे में किसी का इस बात लोकर हैरान होना स्वाभाविक है कि आख़िर इन अदालतों के होने के मतलब क्या है?

बेशक कोई यह कह सकता है कि उच्च न्यायालयों ने भी कुल मिलाकर कार्यपालिका के हीले हवाली के सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय का ही अनुसरण किया है, लेकिन इसके बावजूद अब भी इसके कई अपवाद हैं। ऊंची अदालतें  प्रहार करती रही हैं, दबाव बनाती रही हैं, शर्मसार करती रही हैं और जांच-पड़ताल को लेकर सवाल उठाती रही हैं, क्योंकि ऐसा करना किसी संवैधानिक न्यायालय का कर्तव्य होता है।

मैं इस श्रृंखला के भाग-2 में उन उपायों और शक्तियों की जांच-पड़ताल करूंगा,जिसका इस्तेमाल इस तरह के संकट के समय में अदालतें सरकार को निर्देश देने के लिए कर सकती हैं और इस तरह अपने संवैधानिक शासनादेश को पूरा कर सकती हैं। मैं उन ज़रूरी तात्कालिकता पर भी जोर दूंगा, जिनसे राज्य के नीति निर्देशक तत्व (डीपीएसपी) मौलिक राज्य दायित्वों के रूप में मौलिक अधिकारों में बदल जाते हैं, जिन्हें अदालतों को लागू करना चाहिए।

 

सबसे पहले द लिफ़लेट में प्रकाशित।

सौजन्य: द लिफ़लेट

https://www.newsclick.in/A-Prodding-Judiciary-in-Times-of-Emergencies

 

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