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भारत
राजनीति
पेज भर विज्ञापन, मैदान भर किसान, विपक्ष निहाल, सरकार परेशान
किसानों की महापंचायत मौजूदा सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है और उसे पेज भर के विज्ञापनों, पेज भर की खबरों से ख़ारिज करने की कोशिश हो रही है। लेकिन उन दस लाख किसानों का क्या करेंगे जो हर तरह की गर्मी और बरसात झेलते हुए उन विज्ञापनों पर भारी पड़ रहे हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी
06 Sep 2021
पेज भर विज्ञापन, मैदान भर किसान, विपक्ष निहाल, सरकार परेशान

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के राजकीय इंटर कालेज के मैदान में देश के पंद्रह राज्यों से भी अधिक से आए दस लाख किसानों की महापंचायत ने मौजूदा सत्ताधीशों के सामने वही स्थिति पैदा कर दी है जो 1987 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने राजीव गांधी की सरकार के सामने और 2011 में भारत बनाम भ्रष्टाचार के आंदोलन ने यूपीए सरकार के सामने पैदा कर दी थी। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार और उसके पीछे पूरी ताकत से खड़ी मोदी सरकार भले पेज भर का विज्ञापन देकर दावा करे कि ---भरपूर फसल—वाजिब दाम—खुशहाल किसान—लेकिन हकीकत यह है कि पेज भर विज्ञापन—मैदान भर किसान, विपक्ष निहाल, सरकार परेशान।

किसान आंदोलन ने अराजनीतिक होते हुए भी वह काम कर दिया है जो विपक्ष की राजनीति नहीं कर पा रही थी। पिछले चालीस सालों में देश में ऐसा दो बार हो चुका है जब सत्तारूढ़ दल और उसके नेता अपने बहुमत के घमंड में चूर थे और उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उनके नीचे से कुर्सी खिसक गई। संयोग से उन दोनों मौकों पर जो आंदोलन खड़े हुए उसमें साम्प्रदायिक एकता और जनता के मुद्दे शामिल थे। भले ही बाद में उसे विभाजनकारी ताकतों ने हड़प लिया। इस बार किसानों का मुकाबला सीधे विभाजनकारी ताकतों से है और सत्ता में बैठे होने के नाते उन विभाजनकारी ताकतों को आंदोलनकारी बनने में मुश्किल आ रही है। इसलिए अगर इसे आंदोलन की जीत कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सत्ता जमीन पर उतर कर किसानों के सवालों का जवाब देने की कोशिश कर रही है।

यानी अब इधर उधर की बात करने से काम बन नहीं रहा है। न तो किसी को देशद्रोही और खालिस्तानी कहने से काम बन रहा है और न ही रामद्रोही। अब्बाजान की बात भी आई गई हो गई। रामराज की असलियत भी सामने आ चुकी है। इसलिए महापंचायत के मंच से राकेश टिकैत और दूसरे किसान नेता एलान करते हैं कि-- फसलों के वाजिब दाम नहीं तो वोट नहीं-- या वे कहते हैं कि--- उत्तर प्रदेश में मोदी, शाह और योगी जैसे बाहरी लोगों की सरकार नहीं चलेगी, तो योगी को कहना पड़ता है कि किसानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले परेशान। लगभग सरकारी मुखपत्र बन चुके उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े हिंदी अखबार ने पहले पेज पर जैकेट विज्ञापन में पहले मोदी जी के माध्यम से दावा किया है, `` –आत्मनिर्भर भारत अभियान का बड़ा लाभ उत्तर प्रदेश सरकार के किसानों को मिल रहा है। अब अन्नदाता जहां मंडी से बाहर भी अपनी उपज बेच सकते हैं वहीं बुआई के समय ही अपनी फसल का दाम तय कर सकते हैं। पशुपालन और डेयरी सेक्टर के लिए रुपए 15 हजार करोड़ का एक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बनाया गया है।’’

उसी रौ में योगी ने दावा किया है,`` किसान अन्नदाता हैं और समाज के भाग्यविधाता भी। किसान भाई सर्दी, गर्मी, बरसात और महामारी में भी अपनी मेहनत से अन्न का उत्पादन कर सभी का पेट भरने का कार्य करते हैं। इसलिए किसान उत्थान उत्तर प्रदेश सरकार की प्राथमिकता है।’’

सरकार इतने से ही नहीं हार मानने वाली है। उसने न सिर्फ पूरे पेज का विज्ञापन दिया है बल्कि दूसरी तरफ एक पूरा पन्ना किसानों की खुशहाली वाली खबरों का दिया है। यानी महज विज्ञापन पर योगी सरकार को भरोसा नहीं था, इसलिए उसने अखबार से एक पेज किसानों की पाजिटिव खबरों का करवाया है। उन खबरों में उन तमाम सवालों का जवाब देने की कोशिश है जो किसान उठाते रहे हैं। गोदी मीडिया के एक सबसे बड़े अखबार ने इन दोनों पृष्ठों से अपनी पत्रकारीय नैतिकता की भद्द पिटवा ली है। उसने साबित कर दिया है कि जो विज्ञापन देगा और सत्ता का दबाव डाल पाएगा उसकी ही तारीफ में खबरें की जाएंगी। इस तरह दोनों अविश्वसनीय हो गए हैं। यानी अखबार का स्पेस लोक का नहीं है। वह सत्तातंत्र और धनतंत्र के लिए सुरक्षित है। अखबार की थोड़ी बहुत नाक बच गई होती अगर उसने किसान आंदोलन की खबरों को अच्छी तरह से प्रस्तुत किया होता। लेकिन उस खबर को खानापूरी वाली खबर के रूप में प्रस्तुत करके उस अखबार ने अपना पक्षपात प्रकट कर दिया है।

भाजपा और उसके समर्थक तबके की खूबी यही है कि अब वे निष्पक्ष दिख नहीं पाते या फिर दिखना नहीं चाहते। उनका सारा कारोबार चाहे वह कारपोरेट लूट का हो या हिंदू मुस्लिम विभेद की राजनीति का हो वह एकदम खुला खेल हो चुका है।

किसान आंदोलन की खूबी यह है कि उसने कारपोरेट मीडिया की बमबारी और भाजपा और संघ परिवार के उत्तर सत्य और मिथकों के धुंध को चीरने वाले उजाले की एक आहट उपस्थित की है। वैसे तो इस देश और दुनिया के किसान तभी से बेचैन हैं और आत्महत्याएं कर रहे हैं, जबसे इस उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियां लागू हुई हैं लेकिन उन नीतियों ने जबसे हिंदुत्व के साथ गठजोड़ किया है तबसे पहली बार इतना बड़ा और जागरूक किसान आंदोलन देश में खड़ा हुआ है। इस आंदोलन की खासियत यह है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद यह विभाजित होता हुआ दिखता नहीं है। इतने सारे संगठन और इतने सारे नेता इतने लंबे समय तक कैसे एक साथ हैं और बिके नहीं इससे सरकार हैरान है। इसलिए उसने अपने शहरी और सांप्रदायिक मतदाताओं को संभालने की ठान रखी है।

उल्टे किसान आंदोलन जहां सत्तापक्ष के भीतर दरार डालता हुआ दिख रहा है वहीं समाज के भीतर पैदा की गई दरार को पाटता हुआ दिख रहा है। यह कोई सामान्य बात नहीं है कि किसान आंदोलन के पक्ष में भाजपा की सांसद मेनका गांधी और उनके बेटे वरुण फिरोज गांधी ने ट्विट किया। किसानों ने सरकार की कलई खोलने वाली जो बातें कहीं हैं उसी की लीपापोती के लिए पेज भर का विज्ञापन दिया गया है। किसानों ने कहा कि सरकारी खरीद 20 प्रतिशत भी नहीं हुई है। राज्य सरकार ने 86 लाख किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था लेकिन सिर्फ 45 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया। कृषि लागत और मूल्य आयोग का दावा है कि 2017 में गन्ने की कीमत 383 रुपए प्रति कुंतल थी लेकिन किसानों को सिर्फ 325 रुपए ही मिलते थे। बकाया भुगतान के तमाम दावों के बावजूद चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 8,700 करोड़ रुपए बकाया है।

लेकिन आंकड़ों की इस सरकारी बाजीगरी को उजागर करने के अलावा किसानों ने एक बड़ा काम उस सांप्रदायिक साजिश को समझने का किया है जिसके वे 2013 में शिकार हो गए थे। जब मंच से राकेश टिकैत नारा लगा रहे थे `अल्ला हू अकबर’ तो दूसरी ओर से नारा लग रहा था `हर हर महादेव’, तब विभाजनकारी राजनीति कांप रही थी। इस नारे ने 1987 के उस लंबे धरने की याद दिला दी जो राकेश टिकैत के पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने मुस्लिम लड़की नईमा के साथ हुए अत्याचार के विरुद्ध उसे न्याय दिलाने के लिए किया था। उस लड़की के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। यह बात जब चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को पता चली तो वे भोपा नहर के पास धरने पर बैठ गए। उस धरने में हजारों किसान शामिल हुए और नारा लगता था--- अल्ला हू अकबर, हर हर महादेव। वह धरना महीने भर से ऊपर चला था। वह तब उठा जब लड़की की लाश मिली और दोषियों पर कार्रवाई हुई।

राकेश टिकैत ने हिंदू मुस्लिम एकता का नारा लगवा कर इस बात की याद दिला दी कि किस तरह उनके पिता जी की हर सभा की अध्यक्षता सरपंच एनुद्दीन करते थे और सभा का संचालन गुलाम मोहम्मद जौला करते थे। भाजपा ने 2013 में उसी एकता को तोड़कर 2014 में अपनी विजय दर्ज की थी।  इस नारे ने चौधरी चरण सिंह की भी याद दिला दी जिनके नेतृत्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट और मुस्लिम किसानों ने एकता बनाई थी और लोकदल जैसी मजबूत जनाधार वाली पार्टी बनाकर कांग्रेस को उखाड़ फेंका था।

इस नारे ने 1857 के उस मुक्ति संग्राम की याद दिला दी जब मेरठ के क्रांतिकारी 10 मई को मशहूर शिव मंदिर पर शपथ लेकर और ---अल्ला हू अकबर और हर हर महादेव-- का नारा लगाकर दिल्ली रवाना हुए थे। यह वही हिंदू मुस्लिम एकता थी जिससे अंग्रेज हिल गए थे और जिसे तोड़ने में उन्हें नब्बे साल लगे। आजादी के 74 साल बाद फिर उसी एकता को तोड़ने की कोशिश हो रही है जिसे गांधी ने अपने खून से सींचा था। इसलिए किसानों की महापंचायत मौजूदा सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है और उसे पेज भर के विज्ञापनों पेज भर की खबरों से खारिज करने की कोशिश हो रही है। लेकिन उन दस लाख किसानों का क्या करेंगे जो हर तरह की गर्मी और बरसात झेलते हुए उन विज्ञापनों पर भारी पड़ रहे हैं जिनके लिए सरकार उनके टैक्स की लाखों की राशि लुटा रही है और पत्रकारिता अपनी साख गिरवीं रख रही है।

यह झूठ और लूट की दुनिया के खिलाफ सच्चे और मेहनतकश लोगों की लड़ाई है। यह सही है कि आज की दुनिया वर्चुअल वर्ल्ड में बदलती जा रही है और उसकी सच्चाई को ही लोग सच्चाई मानने लगते हैं। लेकिन किसान की दुनिया सिर्फ मोबाइल और चैनल की दुनिया नहीं है। वह साल में छह हजार और चार माह में दो हजार रुपए पाकर खामोश बैठ जाने वालों की दुनिया ही नहीं है। वह सिर्फ मंदिर- मस्जिद और जाति पांति के विभाजन में रहकर वोट बन जाने वाली नहीं है। हालांकि किसानों ने वोट की अहमियत तो समझ ली है और सरकार पर वोट से चोट करने की धमकी भी दे दी है। ऐसा इसलिए कि वह फर्जी विज्ञापनों के आधार पर अपने उस दर्द को नहीं भूलने वाला है जो कारपोरेट ने उसकी जमीनों को एसईजेड में बदल कर दिया है। उसकी मंडियों पर लालची निगाह डालकर जो खतरा पैदा किया गया है उसे भी किसान आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता। किसान उन छुट्टा जानवरों को भी नहीं भुला पा रहा है, जिन्होंने उनकी खेती की लागत को दोगुना कर दिया और उत्पादन को आधा।

किसानों को आंदोलनजीवी कहे जाने की बात उन्हें अखरी है। वे चंदाजीवियों को पहचानते हैं। वे उन्हें भी पहचानते हैं जो धर्म का बाना पहने हुए समाज के परजीवी हैं और निरंतर विभाजनकारी धर्म की सीख दे रहे हैं। किसानों का यह जागरण सरकार के लिए खतरे की घंटी है तो विपक्ष के लिए उम्मीद और सीख भी। कांग्रेस को भी समझना होगा कि अब उदारीकरण की कारपोरेट लूट को किसान और मजदूर बर्दाश्त नहीं करेगा। समाजवादी पार्टी को भी किसानों की भलाई को अपने घोषणा पत्र और नीतियों के संकल्प में शामिल करना होगा। बसपा को सोचना होगा कि ब्राह्मणों के जातिवादी सम्मेलन से वोट नहीं मिलने वाला। जब इस देश का किसान मजदूर जाग जाएगा तो जाति और धर्म के आधार पर शासन करने वालों की छुट्टी तय है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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