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भारत
राजनीति
राजस्थान के बाद छत्तीसगढ़ में भी शुरू हो सकती है उठा-पटक
सवाल यह उठ रहा है कि आखिर वे कौन से कारण हैं, जिसके चलते कांग्रेस में बेहद आसानी से टूट हो जा रही है, जबकि पार्टी बेहद बुरे दौर से गुजर रही है। विधानसभा चुनावों में जनादेश हासिल करने के बाद उसके हाथ से एक के बाद एक राज्य फिसलते जा रहे हैं।
अफ़ज़ल इमाम
01 Aug 2020
भूपेश बघेल और अशोक गहलोत
साभार : ट्विटर

राजस्थान में सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा? यह 14 अगस्त को विधानसभा का सत्र शुरू होने के बाद पता चलेगा। वैसे कांग्रेस और सचिन पायलट व भाजपा की ओर से साम, दाम, दंड, भेद हर तरह से अपने विरोधी पक्ष में सेंधमारी की कोशिशों का सिलसिला अब भी जारी है। यही कारण है कि दोनों खेमों ने अपने विधायकों को सत्र शुरू होने तक होटलों में छिपा कर रखने का फैसला किया है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सिर्फ मंत्रियों को सरकारी कामकाज निपटाने के लिए सचिवालय जाने के इजाजत दी है। फिलहाल आंकड़े गहलोत के पक्ष में, इसलिए हो सकता है कि उनकी सरकार का अंजाम कर्नाटक और मध्यप्रदेश जैसा न हो। इसकी एक वजह यह भी है कि पिछले अनुभवों को देखते हुए वे न सिर्फ पहले से चौकन्ने थे, बल्कि उन्होंने इस लड़ाई को इंकम टैक्स, ईडी व सीबीआई के छापों की परवाह किए बिना निडर होकर पुरजोर तरीके से लड़ रहे हैं।

इन सबके बीच सवाल यह उठ रहा है कि आखिर वे कौन से कारण हैं, जिसके चलते कांग्रेस में बेहद आसानी से टूट हो जा रही है, जबकि पार्टी बेहद बुरे दौर से गुजर रही है। विधानसभा चुनावों में जनादेश हासिल करने के बाद उसके हाथ से एक के बाद एक राज्य फिसलते जा रहे हैं।

चर्चा तो यह भी है कि राजस्थान के बाद अब छत्तीसगढ का भी नंबर आ सकता है, क्योंकि वहां भी सरकार में भारी कलह चल रही है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच उसी तरह के रिश्ते हैं, जो राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच थे। दूसरा सवाल यह कि क्या भविष्य़ में किसी भी राज्य में विपक्षी दलों की सरकार नहीं रह जाएगी और यदि कहीं बनी भी तो उनके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और केजरीवाल सरीखे होंगे? ऐसा हुआ तो फिर लोकतंत्र का क्या अर्थ रह जाएगा?

बहरहाल कांग्रेस की बात की जाए तो यह साफ दिख रहा है कि पार्टी में कुछ नेताओं को छोड़ कर वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी है, जिसके चलते किसी भी समय किन्हीं कारणों से उन्हें अपनी पार्टी में भितरघात करने में देर नहीं लगती है। खासतौर पर प्रदेशों में अवसरवाद की समस्या ज्यादा है। यदि आम दिनों में उठने वाले मुद्दों पर नजर डाली जाए तो उसमें भी बहस व तर्क- वितर्क के दौरान पार्टी के कई नेताओं में वैचारिक कमजोरी झलकती है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व जब भी किसी बड़े व ज्वलंत मुद्दे पर कोई लाइन लेता है तो, कई नेता उससे संतुष्ट नजर नहीं आते हैं। खुद राहुल गांधी को इस बात का मलाल है कि जब उन्होंने रफ़ाल का मामला उठाया था तो पार्टी के बड़े नेताओं ने साथ नहीं दिया।

वैसे कांग्रेस में यह मर्ज कोई नया नहीं, काफी पुराना है। सत्ता में रहते हुए जब पार्टी ने मनरेगा और भोजन का अधिकार कानून बनाया तो भी कुछ बड़े नेता बंद कमरों में उसकी आलोचना करते हुए कहते थे कि इससे तो देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ जाएगा। सत्ता से बाहर होने के बाद तो पूर्व मंत्री जयराम रमेश ने उज्ज्वला योजना तो सलमान खुर्शीद ने आयुष्मान योजना को लेकर मोदी सरकार के कसीदे पढ़े। शशि थरूर ने नरेंद्र मोदी की आलोचना न करने की नसीहत ही दे डाली थी। राहुल के करीबी कहे जाने वाले मिलिंद देवड़ा भी मोदी सरकार की तारीफों के पुल बंध चुके हैं। वर्तमान में टीवी पर होने वाली बहसों में भी कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता दमदार तरीके से इसलिए भी अपनी बात नहीं रख पाते हैं, क्योंकि वे संबंधित विषय पर अपनी ही पार्टी की लाइन से सहमत नहीं होते हैं। जब कोई व्यक्ति स्वयं दिमागी तौर पर किसी बात से सहमत नहीं है तो वह सामने वाले कैसे जवाब दे पाएगा? इतना ही नहीं चुनावों के समय टिकट बंटवारे में भी प्रत्याशी की वैचारिक पृष्ठभूमि पर ध्यान नहीं दिया जाता है। सिर्फ यह देखा जाता है कि कौन व्यक्ति जीत सकता है?

दूसरे पार्टी में सांगठनिक व्यवस्था भी बेहद लचर है, जिसका असर आम कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। पार्टी आलाकमान की ओर से जिन नेताओं को राज्यों का प्रभार सौंपा जाता है, वे या तो उसे सही रिपोर्ट नहीं देते हैं या फिर उसे किसी रणनीति के तहत दबा जाते हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि प्रदेश के नेताओं की आपसी लड़ाई में प्रभारी महोदय स्वयं ही साझीदार बन गए, जिसका नतीजा यह हुआ कि संगठन जर्जर होने की स्थिति में पहुंच गया।

ऐसा भी नहीं की प्रदेशों की सरकारों व संगठन में जो कुछ चल रहा होता है, उससे शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से अंजान होता है। उसे अन्य माध्यमों से काफी खबरें होती हैं। वह चाहे तो उसके बारे में प्रभारी से पूछताछ सकता है, लेकिन संभवतः वह ऐसा इसलिए नहीं करता है, क्योंकि कांग्रेस में यह व्यवस्था पहले से बनी हुई है कि प्रभारी महासचिव हर माह उसे अपनी लिखित रिपोर्ट सौंपता है। साथ ही मौखिक रूप से भी राज्य के ताजा घटनाक्रमों की जानकारी देता है।

राजस्थान कांग्रेस के एक बड़े नेता ने बताया कि पिछले 4-5 माह से गहलोत और सचिन के बीच टकराव काफी बढ़ गया था, लेकिन प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे की ओर से उसे सुलझाने के लिए कोशिश नहीं गई और न ही उन्होंने स्वयं औपचारिक रूप से इसकी सही रिपोर्ट पार्टी आला कमान को दी।

ध्यान रहे कि कांग्रेस में पहले भी जब प्रदेश के नेताओं में झगड़ा बढ़ता था तो प्रभारी महासचिव उन्हें साथ में बिठा कर सुलह-समझौता करा देता था। इसके लिए अक्सर ‘डिनर डिप्लोमेसी’ का भी सहारा लिया जाता था। महाराष्ट्र में जब मुख्यमंत्री का दूसरे बड़े नेताओं से विवाद होता था तो इसी तरह मामला हल कराया जाता था। यहां तक वर्तमान अध्यक्ष बाला साहेब थोराट व हाल ही भाजपा में शामिल हुए राधाकृष्ण विखे पाटिल के बीच का झगड़ा भी कई बार स्थानीय स्तर पर बैठक कर निपटाया गया। पार्टी की इस परंपरा को पांडे अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि उनका संबंध नागपुर से है। दूसरे वे यूथ कांग्रेस के समय से ही कांग्रेस से जुड़े हुए हैं। वे पहले एमएलसी व महाराष्ट्र स्टेट स्माल स्केल इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एमएसएसआईडीसी) के चेयरमैन बने। इसके बाद पार्टी सचिव व राज्यसभा सदस्य और फिर महासचिव पद पर पहुंचे। यही कारण है कि पार्टी में कई लोग सवाल पूछ रहे हैं कि संगठन में इतना लंबा अनुभव रखने वाले पांडे अपने प्रभार वाले प्रदेश राजस्थान के घटनाक्रम पर इस रहस्यमयी तरीके से मूक दर्शक क्यों बने रहे ? सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि कश्मीर में फारूख अब्दुल्ला की रिहाई के बाद से ही ‘आपरेशन राजस्थान’ पर काम शुरू हो गया था।

इस आपरेशन के अंजाम देने वाले लोगों को अंदाजा था कि पायलट सरकार गिराने भर के लिए जरूरी कम से कम 30 विधायकों का जुगाड़ फिट कर लेंगे। इसमें वे काफी हद तक कामयाब भी हो गए थे, क्योंकि 15 जुलाई को मानेसर के फाइव स्टार होटल पहुंचने तक उनके पास 22 विधायक थे। इनमें से 4 ने जब यह देखा कि इस खेल के पीछे भाजपा है तो वे तुरंत वापस हो गए। अब पायलट के पास सिर्फ 18 विधायक बचे हैं। कांग्रेस का दावा है कि इनमें भी 8 लोग वापस आना चाहते हैं, हालांकि पार्टी खुद अपने विधायकों को भाजपा की पहुंच से बचाती फिर रही है। इन विधायकों को अब जैसलमेर में एक बेहद सुरक्षित जगह पर रखा गया है। इसबीच राजस्थान की लड़ाई अदालत में भी लड़ी जा रही है। बसपा ने भी हाईकोर्ट में अपने 6 बागी विधायकों को लेकर याचिका दायर की है, जो पिछले साल ही दिसंबर में कांग्रेस में शामिल हो गए थे।

इन सब के बीच छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच खींचतान का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा है। साथ ही कुछ और मंत्री और बड़े नेता भी मुख्यमंत्री से नाराज हैं। सूत्रों का कहना है कि देव पार्टी आलाकमान से मिलने दिल्ली आने वाले थे, लेकिन कोरोना महामारी और राजस्थान प्रकरण के चलते उन्होंने अपना दौरान टाल दिया है। ध्यान रहे कि हाल ही में उन्होंने अपनी ही सरकार के कामकाज पर परोक्ष रूप से सवाल खड़े करते हुए ट्वीट किया था ‘ सभी बेरोजगार शिक्षा कर्मियों, विद्या मितान, प्रेरकों एंव युवाओं की पीड़ा से मैं बहुत दुःखी और शर्मिंदा हूं। जन घोषणापत्र के माध्यम से जो वादा आपको किया था, मैं उस पर अटल हूं। यही विश्वास दिला रहा हूं कि सरकार प्रयास कर रही है। हम आपके साथ हैं और रहेंगे।’ उनके इस ट्वीट के बाद अटकलों का बाजार गर्म हो गया था।

इतना ही नहीं वे यह भी कह चुके हैं कि य़दि वादे के मुताबिक किसानों को धान का एमएसपी प्रति क्विंटल 2500 रुपये नहीं मिला तो वे पद से इस्तीफा देंगे। इस तरह के कुछ और भी प्रकरण हैं जो सरकार और संगठन में अंदरूनी कलह की ओर इशारा करते हैं। बताया जाता है कि कुछ और मंत्री व विधायक भी असंतुष्ट थे, लिहाजा उन्हें मनाने के लिए करीब दर्जनभर विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया है। यहां के प्रभारी पीएल पुनिया हैं, जिनका काम करने का अंदाज तकरीबन अविनाश पांडे जैसा ही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार के पास तगड़ा बहुमत है, लेकिन अंतर्कलह बढ़ी तो मुसीबत आने में देर नही लगेगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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