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भारत
राजनीति
बिहार : सड़क के मुद्दों की अब विधानसभा में गूंजने की बारी...
विधानसभा चुनाव के दौरान उठाए गए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमिहीन को जमीन जैसे तमाम सवाल उठाने वाले अब विधानसभा में हैं तो इन मुद्दों की गूंज भी विधानसभा में सुनाई देगी।
इन्द्रेश मैखुरी
17 Nov 2020
वामपंथ

बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद वामपंथ की चर्चा काफी जोरशोर से है। इस विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के साथ तीन वामपंथी पार्टियों ने 16 सीटें जीती हैं। भाकपा (माले) 19 सीटें लड़ कर 12 सीटों पर विजयी हुई, भाकपा 06 और माकपा 04 सीटें लड़ कर क्रमशः 02-02 सीटों पर विजयी हुईं। बीते एक-डेढ़ दशक में यह वामपंथ का सबसे बड़ा जत्था है जो बिहार विधानसभा में पहुंचा है। इसलिए वामपंथ और खास तौर पर भाकपा (माले) की निरंतर चर्चा हो रही है।

कटिहार जिले के बलरामपुर विधानसभा क्षेत्र से भाकपा (माले) के विधायक चुने गए कॉमरेड महबूब आलम के साधारण रहन-सहन और कच्चे मकान संबंधी पोस्टें तो बीते कुछ दिनों से फिर सोशल मीडिया पर वायरल हैं। वामपंथ के समर्थकों के अलावा जो वामपंथ के समर्थक नहीं भी हैं, वे भी कॉमरेड महबूब आलम के सादगी पूर्ण रहन-सहन वाले पोस्ट को शेयर कर रहे हैं। महबूब आलम चौथी बार विधायक चुने गए हैं। बिहार विधानसभा के इस चुनाव में वे सर्वाधिक वोटों से चुन कर विधानसभा पहुंचे हैं। उन्हें कुल 104489 वोट मिले और उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 53597 वोट के अंतर से पराजित किया। यह जानना भी रोचक है कि उनके निकटतम प्रतिद्वंदी 2015 में भाजपा के प्रत्याशी थे और इस बार भाजपा ने यह सीट विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को दे दी तो वे वीआईपी के प्रत्याशी हो गए। यानी भाजपा ने अपने गठबंधन के सहयोगी को सीट ही नहीं दी, सीट पर लड़ने के लिए प्रत्याशी भी दिया!

लेकिन ऐसा नहीं है कि महबूब आलम ही इकलौते वामपंथी विधायक हैं जो सादगी से रहते हैं। महबूब आलम वामपंथ और खास तौर पर भाकपा (माले) के विधायकों की सादगीपूर्ण जीवन की परंपरा के अपवाद नहीं नियम हैं। इसका कारण यह है कि भाकपा (माले) जैसी जमीनी संघर्ष की पार्टी में टिकट पाने के लिए धन संपन्नता अनिवार्य योग्यता नहीं है। विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान पटना में एक कर्मचारी नेता ने इस लेखक से कहा “ऐसे वक्त में जब पार्टियां टिकटों की बोली लगा रही हैं, माले ने एक ऐसे गरीब को टिकट दिया, जिसके पास अपना घर तक नहीं है। यह अद्भुत है।” वे पटना जिले की फुलवारी सीट से भाकपा (माले) के प्रत्याशी कॉमरेड गोपाल रविदास की बात कर रहे थे। यही कॉमरेड गोपाल रविदास 91124 वोट हासिल करके फुलवारी विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए हैं।

संघर्षों की आंच में तप कर भाकपा (माले) में नेता बनते हैं, इसका उदाहरण हैं कॉमरेड मनोज मंजिल। अगिआंव विधानसभा क्षेत्र से 86327 वोट हासिल करके 48550 वोट के अंतर से जीत हासिल करने वाले 36 वर्षीय युवा मनोज मंजिल एक भूमिहीन दलित परिवार से आते हैं। उनके माता-पिता ईंट के भट्टे पर मजदूरी करते हैं। छात्र संगठन आइसा में सक्रियता के दिनों में साथी मनोज मंजिल से मुलाकातें होती रहीं। इस कदर तंग माली हालत उनके घर की थी कि कम उम्र में शादी होने के बाद पत्नी को रखने की जगह का संकट पैदा हो गया। लेकिन मनोज ने गरीबी को व्यक्तिगत मसला नहीं समझा बल्कि अपने जैसे हजारों-हजार भूमिहीनों,गरीबों,दलितों, वंचितों के लिए संघर्ष को उन्होंने अपने जीवन का मकसद बना दिया। पिछले एक दशक से उनके इलाके में कोई संघर्ष हो,दमन-उत्पीड़न का मसला हो,संघर्ष का लाल परचम थामे कॉमरेड मनोज मंजिल सबसे आगे नजर आते हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में वे तीसरे नंबर पर आए,परंतु संघर्ष के मोर्चे पर वे हमेशा अव्वल रहे। बालू मजदूरों के हक में खड़े होना हो या सामंती उत्पीड़न झेलने वालों के पक्ष में लड़ना हो, मनोज हर लड़ाई में खड़े दिख जाएँगे। उनके द्वारा चलाये गए “सड़क पर स्कूल” आंदोलन ने विकास का दम भरने वाले नितीश कुमार के राज में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा की ओर ध्यान खींचा और संघर्ष के इस सृजनशील तरीके ने भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।

विधानसभा पहुँचने वाले माले के 12 कॉमरेड इसी तरह जनसंघर्षों के तपे-तपाये चेहरे हैं। पश्चिमी चंपारण में अपने जीवन का खतरा उठा कर भूमिहीन गरीबों के हक में सामंतों-जमींदारों के खिलाफ निरंतर संघर्ष में जूझने वाले कॉमरेड वीरेंद्र गुप्ता सिकटा सीट से विधानसभा पहुंचे हैं। एक तरफ धनबल-बाहुबल से लैस शिकारपुर इस्टेट का प्रतिनिधि और दूसरी तरफ भूमिहीनों, खेत मजदूरों की ताकत के बल पर चुनाव लड़ते कॉमरेड वीरेंद्र गुप्ता। लड़ाई बेहद कठिन थी पर अंततः ग्रामीण गरीबों ने अपने संघर्ष के साथी को विधानसभा पहुंचा दिया।

अरवल भाकपा (माले) के संघर्षों का पुराना इलाका है। अरवल जिले में ही वह लक्ष्मणपुर बाथे गाँव है, जहां 01 दिसंबर 1997 को सामंतों द्वारा बनाई गयी रणवीर सेना ने 58 दलित और पिछड़ों की हत्या कर दी थी, इनमें महिलायें और बच्चे बड़ी संख्या में थे। रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह से जब महिलाओं और बच्चों की हत्या का कारण पूछा गया तो उसने कहा कि बच्चों को इसलिए मारा क्यूंकि वे बड़े हो कर नक्सली बनते हैं और महिलाओं को इसलिए मारा क्यूंकि वे नक्सलियों को जन्म देती हैं। ऐसे क्रूर, बर्बर हत्यारे में भाजपा नेता गिरिराज सिंह को यदि गांधी के दर्शन हो रहे थे तो उनकी पक्षधरता को समझा जा सकता है।

अरवल सीट से भाकपा (माले) के कॉमरेड महानंद सिंह चुनाव जीते हैं। अरवल में पहले चरण में 28 अक्टूबर को चुनाव था। उसी दिन सुबह-सुबह पटना में चुनाव प्रचार में घूमते हुए, हमारी प्रचार गाड़ी के पास त्रिशूल नुमा टीका लगाए, धोती-कुर्ता पहने एक सज्जन आए और बोले- महानंद तो निकल गए समझिए, हमारे लोग मोटर साइकलों पर बैठ कर उनको वोट देने जा रहे हैं। अरवल के बगल वाले जिले जहानाबाद से ट्रेड यूनियन नेता रामबलि सिंह यादव माले के प्रत्याशी के रूप में घोसी सीट से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं।

बिहार विधानसभा में पिछली बार भाकपा (माले) के तीन विधायक थे। ये तीनों- महबूब आलम, सत्यदेव राम और सुदामा प्रसाद फिर जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं और पिछली बार से बड़े अंतर से जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। पिछली विधानसभा में माले के ये तीन विधायक जनता और विपक्ष की सबसे सशक्त आवाज़ थे। लगातार जनता के मुद्दों को लेकर विधानसभा के बाहर और अंदर पोस्टर लहराने वाले इन विधायकों से पोस्टर न लहराने की आरजू-मिन्नत करते हुए कई बार विधानसभा अध्यक्ष देखे गए। एक मौके पर अध्यक्ष, माले विधायक दल के नेता कॉमरेड महबूब आलम से बोले- आप फिर ये पोस्टर ले कर आ गए, क्यूँ रोज-रोज ये पोस्टर बनाने वाले को भी परेशान करते हैं आप! जाहिर सी बात है कि पोस्टर में उठाए जा रहे सवालों से सत्ता असहज महसूस कर रही थी। एक अन्य मौके पर सदन में विधानसभा अध्यक्ष ने कहा- महबूब जी अपने नाम का अर्थ तो याद रखिए, महबूब है आपका नाम। अपेक्षा यह थी कि माले के ये विधायक, सत्ता के प्रति भी थोड़ी मोहब्बत रखें। परंतु जनता के महबूब, जनता के मुद्दों को छोड़ कर सत्ता के प्रति मोहब्बत भला क्यूँ रखते!

एक मौके पर विधानसभा में माले के विधायक कॉमरेड सत्यदेव राम के सवालों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बौखला कर आपा ही खो बैठे। कॉमरेड सत्यदेव राम ने विधानसभा में सीलिंग से फाजिल जमीन और अन्य ज़मीनों को गरीबों में बांटने की मांग उठाई। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नितीश कुमार ने डी. बंधोपाध्याय की अध्यक्षता में भूमि सुधार आयोग का गठन किया था। 2008 में सौंपी गयी रिपोर्ट में आयोग ने बिहार में ज़मीनों का आंकड़ा जुटाते हुए भूमिहीन और आवास हीन गरीबों को जमीन देने की अनुशंसा की थी। बड़े भू स्वामियों के दबाव में नीतीश कुमार ने भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसी संदर्भ में जब पिछली विधानसभा में दारौली से विधायक सत्यदेव राम ने भूमिहीनों को जमीन देने का मामला उठाया तो नीतीश कुमार बौखला उठे और बोले- कहाँ है जमीन, ये बकवास बात है। माले विधायक द्वारा जमीन के मसले पर घेरे जाने की बौखलाहट तो यह थी ही पर इसमें बड़े भू स्वामियों के सामने घुटने टेक कर भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालने की खिसियाहट भी शामिल थी।

मुख्यमंत्री को बौखलाने और खिसियाने पर मजबूर करने वाले यही कॉमरेड सत्यदेव राम, सीवान जिले के दारौली विधानसभा क्षेत्र से 81067 वोट हासिल करके 12119 वोटों से जीत कर पांचवीं बार विधानसभा पहुंचे हैं।

और इनके साथ छात्र और युवा राजनीति के नेतृत्वकारी चेहरों का दस्ता भी माले के टिकट पर जीत कर विधानसभा पहुंचा है। सीवान के जीरादेई से इंकलाबी नौजवान सभा (आरवाईए) के मानद राष्ट्रीय अध्यक्ष कॉमरेड अमरजीत कुशवाहा, पालीगंज से जेएनयू छात्र संघ के पूर्व महासचिव और आइसा के राष्ट्रीय महासचिव कॉमरेड संदीप सौरव, डुमरांव से आरवाईए के बिहार राज्य के अध्यक्ष कॉमरेड अजित कुशवाहा विधानसभा पहुंचे हैं। इनमें से अमरजीत कुशवाहा एक फर्जी मामले में फंसाए जाने के बाद बीते पाँच सालों से जेल में हैं और जेल से चुनाव लड़ते हुए ही 69442 वोट प्राप्त कर वे 25510 वोटों से चुनाव जीते हैं।

सड़कों पर संघर्ष करने वाले अनुभवी और युवा नेताओं का सम्मिश्रण अब विधानसभा में है। सड़क के मुद्दों के अब विधानसभा में गूंजने की बारी है। विधानसभा चुनाव के दौरान उठाए गए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमिहीन को जमीन जैसे तमाम सवाल उठाने वाले अब विधानसभा में हैं तो इन मुद्दों की गूंज भी विधानसभा में सुनाई देगी। विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समेत तमाम नेताओं ने जो भाकपा (माले) का डर दिखाने की कोशिश की, उसमें जनता के वास्तविक मुद्दों पर संघर्ष करने और उन पर अड़े रहने वालों के विधानसभा पहुँचने का डर निहित था। उनका यह डर हकीकत में परिणित हो चुका है,आगे-आगे देखिये होता है क्या...।

(लेखक एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और भाकपा माले के सदस्य हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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