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कृषि विधेयक: क्या संसद और सांसदों की तरह सड़क को ख़ामोश और किसानों को ‘निलंबित’ कर पाएगी सरकार!
खेती किसानी से जुड़े विवादित विधेयक भारी विरोध के बावजूद संसद से पारित हो गए हैं लेकिन सड़क पर किसान अभी जमे हुए हैं। हर मसले को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से जोड़कर पार निकलने की मोदी सरकार की कवायद भी इस मुद्दे पर फेल हो गई है।
अमित सिंह
21 Sep 2020
कृषि विधेयक
सदन से निलंबन के ख़िलाफ़ संसद परिसर में गांधी मूर्ति के आगे धरना देते सांसद। फोटो : ट्विटर से साभार

कृषि क्षेत्र से जुड़े दो महत्वपूर्ण विधेयकों को राज्यसभा ने विपक्षी सदस्यों के भारी विरोध के बीच रविवार को तथाकथित ‘ध्वनि मत’ से अपनी मंजूरी दे दी। कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) विधेयक-2020 और कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020 को लोकसभा पहले ही पारित कर चुकी है। इस प्रकार इन विधेयकों को संसद की मंजूरी मिल गई है, जिन्हें अब राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा जायेगा और राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाने पर इन्हें अधिसूचित कर दिया जाएगा।

संसद में क्या हुआ

रविवार को विधेयकों पर जोरदार बहस के बाद राज्यसभा ने विपक्षी सदस्यों के भारी विरोध और हंगामे के बीच इन्हें पारित कर दिया। इस दौरान विरोध कर रहे कुछ विपक्षी सदस्य कोविड-19 प्रोटोकाल की अनदेखी करते हुए उप सभापति हरिवंश के आसन की ओर बढ़े, उन्होंने नियम पुस्तिका उनकी ओर उछाली तथा सरकारी कागजों को फाड़ कर हवा में उछाल दिया। बारह (12) विपक्षी दलों ने बाद में उच्च सदन में दो कृषि विधेयकों को पारित कराने के तरीके को लेकर उप सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी दिया।

दरअसल राज्यसभा में समस्या तब शुरू हुई, जब सदन की बैठक का समय विधेयक को पारित करने के लिए निर्धारित समय से आगे बढ़ा दिया गया। विपक्षी सदस्यों का मानना था कि इस तरह का फैसला केवल सर्वसम्मति से ही लिया जा सकता है और वे सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए सभापति के आसन के सामने इकट्ठा हो गये। उन्होंने सरकार पर किसान विरोधी होने का आरोप लगाया। हंगामे के कारण कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को संक्षेप में अपनी बात रखनी पड़ी तथा उप सभापति हरिवंश ने विधेयकों को परित कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी।

विपक्ष द्वारा व्यापक जांच पड़ताल के लिए लाये गये चार प्रस्तावों को ध्वनिमत से नकार दिया गया। लेकिन कांग्रेस, तृणमूल, माकपा और द्रमुक सदस्यों ने इस मुद्दे पर मत विभाजन की मांग की। उप सभापति हरिवंश ने उनकी मांग को ठुकराते हुए कहा कि मत विभाजन तभी हो सकता है जब सदस्य अपनी सीट पर हों। तृणमूल नेता डेरेक ओ ब्रायन ने आसन की ओर बढ़ते हुए नियम पुस्तिका उप सभापति की ओर उछाल दी। सदन में खडे मार्शलों ने इस कोशिश को नाकाम करते हुए उछाली गई पुस्तिका को रोक लिया। माइक्रोफोन को खींच निकालने का भी प्रयास किया गया लेकिन मार्शलों ने ऐसा होने से रोक दिया।

द्रमुक सदस्य तिरुचि शिवा, जिन्होंने ओ'ब्रायन के साथ और कांग्रेस के केसी वेणुगोपाल और माकपा सदस्य केके रागेश के साथ मिलकर विधेयकों को प्रवर समिति को भेजने का प्रस्ताव किया था, उन्होंने कागजात फाड़कर हवा में उछाल दिए। उप सभापति हरिवंश ने सदस्यों को अपने स्थानों पर वापस जाने और कोविड-19 के कारण आपस में दूरी बनाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर आसन के समीप नहीं आने के लिए कहा था लेकिन उन्होंने हंगामा थमता न देख पहले सदन की लाइव कार्यवाही के ऑडियो को बंद करवा दिया और फिर कार्यवाही को 15 मिनट के लिए स्थगित कर दी।

जब सदन की कार्यवाही दोबारा शुरू हुई, तो विपक्षी दलों ने नारे लगाए लेकिन वे हरिवंश को ध्वनि मत से विधेयक को पारित करने के लिए रखने से रोक नहीं पाये। विपक्षी दलों द्वारा लाये गये संशोधनों को खारिज करते हुए दोनों विधेयकों को ध्वनि मत से पारित कर दिया गया।

अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज, आठ विपक्षी सदस्य निलंबित

फिलहाल राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने उपसभापति हरिवंश के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को सोमवार को खारिज कर दिया और कहा कि प्रस्ताव उचित प्रारूप में नहीं था। इसके लिए जरूरी 14 दिनों के समय का भी पालन नहीं किया गया है। सभापति ने कहा कि रविवार को हंगामे के दौरान सदस्यों का व्यवहार आपत्तिजनक और असंसदीय था।

इस दौरान सोमवार को भी सदन में हंगामा जारी रहा और सरकार ने आठ विपक्षी सदस्यों को मौजूदा सत्र के शेष समय के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव पेश किया जिसे सदन ने फिर तथाकथित ‘ध्वनि मत’ से स्वीकार कर लिया। निलंबित किए गए सदस्यों में तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन और डोला सेन, कांगेस के राजीव सातव, सैयद नजीर हुसैन और रिपुन बोरा, आप के संजय सिंह, माकपा के केके रागेश और इलामारम करीम शामिल हैं।

सड़क पर हैं किसान

पंजाब और हरियाणा में किसानों ने विभिन्न राजनीतिक और किसानों से जुड़े संगठनों के बैनर तले जगह जगह इन विधेयकों का विरोध करते हुए प्रदर्शन किए और सड़कों को अवरूद्ध कर दिया। भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) की हरियाणा ईकाई ने कुछ अन्य किसान संगठनों के साथ तीन घंटे तक राज्यव्यापी प्रदर्शन किए। पंजाब युवा कांग्रेस ने भी पंजाब से दिल्ली के लिए ट्रैक्टर रैली निकाली। इसके अलावा वाम दलों से जुड़े किसान संगठनों ने लगभग पूरे देश में इन विधेयकों के खिलाफ प्रदर्शन किया है।

इसके अलावा विधेयकों के विरोध में मोदी सरकार से पिछले सप्ताह मंत्री पद से इस्तीफा देने वाली हरसिमरत कौर बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल अपने रुख पर अड़े रहे और उन्होंने राष्ट्रपति से विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं करने की अपील की। उन्होंने अपील में कहा कि राष्ट्रपति विधेयकों को पुनर्विचार के लिये संसद को लौटा दें।

ख़त्म नहीं हुई सरकार की परेशानी

खेती किसानी से जुड़े विवादित विधेयक भारी विरोध के बावजूद संसद से पारित हो गए हैं लेकिन सड़क पर किसान अभी जमे हुए हैं। फिलहाल हर मसले को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से जोड़कर पार निकलने की सरकारी कवायद भी इस मुद्दे पर फेल हो गई है। इसके अलावा किसानों के मुद्दे को लेकर एनडीए के सबसे पुराने साथियों में से एक शिरोमणि अकाली दल ने बागी तेवर अपना लिए हैं। हरियाणा सरकार में शामिल दुष्यंत चौटाला की पार्टी 'जननायक जनता पार्टी' (जेजेपी) भी देर-सवेर ऐसा फैसला ले सकती है।

इसके अलावा विपक्ष पहले से ही सरकार पर हमलावर हैं। साथ ही कृषि विधेयक के रूप में विपक्ष को एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिस पर आम सहमति बन सकती है। उनके बीच इस मसले पर साझा एजेंडा तय हो सकता है।

वैसे भी किसानों की आय दोगुनी करने के कथित वादे पर दोबारा सत्ता में आई भाजपा के लाख आश्वासन के बावजूद भी किसान भरोसा करने के तैयार नहीं दिख रहे हैं। सरकार भले ही यह बात कहे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमसपी) और कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) जारी रहेंगी, यह किसी भी कीमत पर कभी नहीं हटाए जाएंगे लेकिन किसान लिखित में आश्वासन चाह रहे हैं।

आपको यह भी याद दिला दें कि आम चुनाव से पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश चुनाव में बीजेपी की हार का एक बड़ा कारण यहां लंबे समय तक चले किसान आंदोलन थे। इसके अलावा गुजरात में पार्टी के बुरे प्रदर्शन को किसानों और गांवों से जोड़ा गया था। पंजाब और हरियाणा में जिस तरह किसान सड़क पर हैं उससे यह संभावना साफ दिख रही है कि इसकी कीमत वोट के रूप में चुकानी पड़ सकती है।

इसके अलावा बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में भी इसकी झलक दिखाई पड़ सकती है, ज़रूरत बस इस बात की है कि विपक्ष इस मसले पर किसानों के साथ सड़क पर दिखाई दे।

(समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ)

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