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मज़दूर-किसान
भारत
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कृषि ने तो हमें बचा लिया, क्या हम भी कृषि को बचाएंगे?
आज कृषि ने स्वयं संकटग्रस्त होने के बावजूद शहर से उजड़े करोड़ों लुटे-पिटे मज़दूरों को अगर न संभाला होता तो  आज क्या हाल होता, इसकी कल्पनामात्र से ही  सिहरन होती है!
लाल बहादुर सिंह
31 Aug 2020
कृषि
फोटो साभार : ट्विटर

अपने राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर पूरा भारत भ्रमण करने के बाद गाँधीजी ने जब कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, यह गांवों का देश है, तो वह कोई जुमला नहीं था। 

आज एक सदी बाद फिर वह बात नाटकीय ढंग से सही साबित हुई जब महामारी के दौर में सरकार फेल कर गयी, पर गांवों ने, कृषि ने इस देश को बचा लिया, शहरों से उजड़े करोड़ों मजदूरों को गांव ने अपने आँचल में ले अभयदान, जीवनदान दिया!

साबित हुआ कि गांव ही भारत के मजदूरों का असली घर है, भले ही वे शहर में रह रहे हों!

इस तल्ख सच्चाई से हमारे राष्ट्रीय जीवन में कृषि की निर्णायक भूमिका एक बार फिर स्थापित हो गयी है, साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र के विकास का अधूरापन, अपर्याप्तता और vulnerability भी उजागर हो गयी है।

जिस कृषि की कारपोरेटपरस्त सरकारों और उनके अर्थशास्त्रियों ने यह कहकर घोर उपेक्षा की, विशेषकर पिछले 30 साल में नवउदारवाद के दौर में,  कि जीडीपी में इसका हिस्सा मात्र 15% रह गया है और उद्योग तथा सर्विस सेक्टर अब अर्थव्यवस्था की मुख्य चालक शक्ति है, आज उसी कृषि ने स्वयं संकटग्रस्त होने के बावजूद शहर से उजड़े करोड़ों लुटे-पिटे मजदूरों को अगर न संभाला होता तो  आज क्या हाल होता, इसकी कल्पनामात्र से ही  सिहरन होती है!

CMIE के आंकड़ों में केवल कृषि क्षेत्र ऐसा है जहां लॉकडाउन पीरियड में 1 करोड़ 49 लाख रोजगार बढ़ा दिख रहा है, बाक़ी सारे सेक्टर छंटनी और बेकारी से बेहाल हैं।

आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की विकासदर शून्य से नीचे (- 5 %) चली गयी अर्थात अर्थव्यवस्था 5% की दर से सिकुड़ने लगी, परन्तु कृषि विकास में वृद्धि दर 3 से 4 % के बीच बनी रही और उसने अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण  ध्वंस होने से देश को बचा लिया।

उचित तो यह था कि हमारे नीति नियंता भारी कीमत चुका कर हासिल किए गए इस अनुभव से सबक लेते तथा देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए गम्भीर नीतिगत बदलाव करते तथा उसके लिए सभी जरूरी कदम उठाते।

पर यहाँ तो आपदा को अवसर में बदलने के अपने प्रिय सिद्धांत पर चलते हुए मोदी सरकार ने एकदम उल्टी दिशा में ही कदम उठा लिए। बेहद हड़बड़ी में, संसद में लोकतांत्रिक ढंग से विचार-विमर्श का भी अवसर दिए बिना तथा राज्य सरकारों से सलाह मशविरा किये बिना ही (जबकि कृषि राज्य का विषय है), केंद्र सरकार ने दूरगामी महत्व के 3 अध्यादेश जारी कर दिए, जिनका हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर निहितार्थ है :

● कृषि उपज, वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020

● मूल्य आश्वासन पर (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता कृषि सेवा अध्यादेश 2020

● आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) 2020 

ये अध्यादेश भारतीय कृषि को साम्राज्यवादी देशों तथा कारपोरेट  पूंजी की जरूरत और मांग के अनुरूप ढालने की ओर लक्षित हैं। वित्तीय पूंजी लंबे समय से भारत जैसे देशों के सम्पूर्ण कृषि  उत्पादन के ढांचे पर  नियंत्रण कायम करने का प्रयास कर रही है। उनकी कोशिश है कि भारत में खाद्यान्न उत्पादन कम हो और भारत फल, सब्जी, पेय (beverages), fibres, विभिन्न किस्म के अनाजों, तेलहन आदि की फसलों का उत्पादक बनकर ठंडे आबोहवा वाले (cold temperate region ) के उन साम्राज्यवादी देशों को आपूर्ति करे जहां इनका उत्पादन या तो नहीं हो पाता या अपर्याप्त होता है। वे चाहते हैं कि भारत अपनी खाद्यान्न जरूरतों के लिए उनसे आयात करे, उनके ऊपर निर्भर रहे।

इसके लिए वे भारत में खाद्यान्न उत्पादन पर हर तरह की सब्सिडी,  सरकारी समर्थन मूल्य खत्म करने,  APMC के माध्यम से खरीद के ढांचे को समाप्त करने, तथा भारत में कृषि व्यापार के क्षेत्र में देशी-विदेशी निजी खिलाड़ियों को बड़े पैमाने पर प्रवेश देने, कांट्रेक्ट खेती के माध्यम से कृषि उत्पादन का प्रभावी नियंत्रण वित्तीय पूंजी और कारपोरेट के हवाले करने तथा विदेश से खाद्यान्न आयात करने के लिए भारत की सरकारो पर दबाव डालते रहे हैं। अपनी बात मनवाने के लिए  विश्व बैंक, IMF और WTO आदि का उन्होंने इस्तेमाल किया है।

आज, इन अध्यादेशों को लाकर मोदी सरकार ने इन दबावों के आगे समर्पण कर दिया है। इसके फलस्वरूप हमारे कृषि के मालिकाने, उत्पादन, व्यापार के ढांचे में बुनियादी बदलाव होंगे, जिसके  दूरगामी परिणाम होंगे।

इसका सबसे भयावह परिणाम होगा हमारी खाद्यान्न आत्मनिर्भरता का अंत और हम एक बार फिर अमेरिका से आने वाले अनाज पर निर्भर हो जाएंगे। आज निरंतर अकाल और कुपोषण से जूझते Sub- Saharan अफ्रीकी देशों के साथ यही तो हुआ था।

कल्पना करिए, महामारी और लॉकडाउन के दौर में जब हमारे करोड़ों मजदूर बेरोजगार होकर अपने घरों में कैद होने को मजबूर हो गए थे और बाद में भूखे-प्यासे वे अपने गांवों को वापस लौटे, उस समय अगर हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर न होते, अगर हमारे पास APMC के माध्यम से संग्रहित अनाज का विराट भंडार न होता तो हमारा क्या हाल हुआ होता, क्या हम इसके लिए उस अमेरिका पर भरोसा कर सकते थे जिसने हाइड्रोक्लोरोक्वीन के लिए हमें खामियाजा भुगतने की चेतावनी दे दी थी? हम सचमुच कितने मजबूर हो जाते, हमारी जनता के जीवन और हमारी संप्रभुता के लिए कितना बड़ा खतरा पैदा हो जाता!  

आज अमेरिका भारत पर जबरदस्त दबाव बनाए हुए है कि 6 अरब डॉलर का कृषि और डेयरी उत्पाद Mini Trade Deal के तहत भारत अमेरिका से खरीदे।

जाहिर है संकट की मौजूदा घड़ी में इससे हमारे किसानों और दुग्ध उत्पादकों व डेयरी उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। 

लेकिन कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर ट्रम्प ने जैसे कान उमेठ कर हाईड्रोक्लोरोक्वीन हमसे ले लिया था, वैसे ही मोदी सरकार समर्पण करके इसको भी स्वीकार कर ले। दरअसल यह अमेरिका के आसन्न चुनाव में वहां की फार्म लॉबी के महत्वपूर्ण वोटबैंक को प्रभावित करने के लिए ट्रम्प के लिए बेहद जरूरी है। वैसे भी मोदीजी अब की बार ट्रम्प सरकार का नारा दे ही आये हैं, Howdy Modi में!

सच्चाई यह है कि चाहे जितना चाशनी में डुबो के पेश किया जाय, ये कानून  कृषि के कारपोरेटीकरण की दिशा में अगला कदम हैं। 

वास्तव में देश में आज 93% किसान सीमांत या लघु किसान हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य जमीन है। खेती में बढ़ते मशीनीकरण और बेहद महंगी लागत के चलते अब ये जोतें viable नहीं रह गयी हैं, ये किसान बढ़ती लागत और उस अनुपात में अपनी फसलों की कीमत न मिल पाने, कई बार मानसून की कमी, खराब मौसम से फसलों के बर्बाद होने के कारण कर्ज़ में डूबते जा रहे हैं और आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। खेत बेचने के लिए मजबूर हो रहे है।

यही वो किसान हैं जिनकी जमीन पर वित्तीय पूंजी के शिकारी, कारपोरेट घराने आंख गड़ाए हुए हैं।

इन किसानों के सामने दो ही विकल्प हैं :  सहकारीकरण या कारपोरेटीकरण

या तो किसान अपनी छोटी छोटी जोतों को आपस में pool करके सहकारी खेती करें, सरकार उन्हें सस्ते दर पर (subsidy देकर) लागत सामग्रियां उपलब्ध कराए तथा समुचित लाभकारी मूल्य देकर उनकी फसलों के विपणन की गारंटी करे।

अथवा ये  जमीनें कांट्रेक्ट खेती के रास्ते कारपोरेट के हाथ चली जाएंगी।

पहला रास्ता, कृषि के पुनर्जीवन का रास्ता है, यह हमारे 60 करोड़ किसानों की ज़िंदगी में खुशहाली का रास्ता है।

दूसरा रास्ता इन गरीब किसानों की तबाही और मौत का रास्ता है, हमारी कृषि की बर्बादी, बेरोजगारी के महाविस्फोट और देशी-विदेशी कारपोरेट की लूट का रास्ता है !

अफसोसनाक है कि मोदी सरकार ने दूसरा रास्ता चुना है और कोरोना काल की विपदा को अवसर में बदलते हुए इस रास्ते की सारी बाधाओं को एक एक कर दूर करने में लगी है।

आज हालत यह है कि एक ओर सरकार कर्ज़ बांटने को ही राहत पैकेज बताकर वाहवाही लूटने में लगी है, वहीं किसानों को बैंकों से लोन नहीं मिल पा रहा है। रिजर्व बैंक के अनुसार,  जून 18-19 में किसानों को मिलने वाले लोन में 11% की दर से वृद्धि हुई, पर वह घटकर जून 19-20 में यह 6.7% रह गयी और अभी मार्च से जून के बीच तो यह दर negative यानी नकारात्मक हो गयी अर्थात इसमें वृद्धि की बजाय 1.8% की दर से कमी (contraction) आ गयी !

Reuters की रिपोर्ट के अनुसार, अनिश्चितता भरे मौजूदा माहौल में संकटग्रस्त बैंक कर्ज देने से हिचक रहे हैं। बैकों से सस्ती दर पर कर्ज न मिल पाने के कारण किसान प्राइवेट सूदखोर महाजनों से 60% तक की बेहद महंगी दरों पर कर्ज लेने को मजबूर हैं। नतीजतन, उनकी आय का बड़ा हिस्सा कर्ज़ का ब्याज चुकाने में चला जाता है और अगर मानसून की कमी या किसी अन्य कारण से फसल बर्बाद हो गयी तो वे खेत बेचने और खुदकशी को मजबूर हो जाते हैं।

विडंबना है कि मोदी जी ने 2016 में ऐलान किया था कि किसानों की आय 2022 तक दोगुनी हो जाएगी। यह हर खाते में 15 लाख डालने जैसा जुबानी जुमला भी नहीं था, वरन इसका बाकायदा संसद के अंदर उस साल का बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जिक्र किया था और यह बजट दस्तावेज का बाकायदा हिस्सा बना था।

पर आज इसकी याद दिलाने पर  किसानों को लगता है कि उनके जले पर नमक छिड़का जा रहा है। वे कहते हैं आय तो दोगुनी नहीं हुई, हमारा कर्ज जरूर दोगुना हो गया। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरत थी कि कृषि विकास दर 10.4% होती, लेकिन मोदी के पहले 5 साल में यह मात्र 2.9% रही। अब बचे समय में इस लक्ष्य को हासिल करना हो तो विकास दर को 15% होना होगा! 

मोदी हैं तो मुमकिन है की जुमलेबाजी के बावजूद, यह लक्ष्य हासिल कर पाना दरअसल नामुमकिन है!

इसीलिए 2022 तक (जिसे बाद में बढाकर 2024 कर दिया गया था) किसानों की आय दोगुना कर पाना असम्भव है। हालांकि आंकड़ों की बाजीगरी की तरह तरह की schemes पर काम चल रहा है। वैसे भी हमारी काबिल वित्तमंत्री निर्मला जी कह ही चुकी हैं कि यह सब Act of God है।

पर क्या देश के किसान इस सारे छल-छद्म को यूं ही स्वीकार कर लेंगे?

हम उम्मीद करें कि जिस तरह भूमि अधिग्रहण कानून में खतरनाक बदलाव की मोदी सरकार की कोशिशों को किसानों ने अपने जुझारू राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध से पीछे धकेला था, वैसे ही आने वाले दिनों में किसान आंदोलन की नई लहर उठेगी और कृषि के कारपोरेटीकरण की साजिशों का वे मुंहतोड़ जवाब देंगे।

(लेखक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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