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भारत
राजनीति
किसानों के साथ अब नौजवानों ने भी योगी सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला
प्रदेश में 5 लाख खाली पदों पर भर्ती की मांग के साथ इको गार्डन, लखनऊ में प्रदर्शन के बाद युवा मंच के आह्वान पर प्रतियोगी छात्र-युवा अब इलाहाबाद बालसन चौराहे पर एक सितंबर को सड़क पर उतर रहे हैं। उधर, किसान मुज़फ़्फ़रनगर में 5 सितंबर की महापंचायत को ऐतिहासिक बनाने के लिए जुटे हुए हैं।

लाल बहादुर सिंह
31 Aug 2021
Up protest
यूपी में 5 लाख खाली पदों पर भर्ती की मांग को लेकर इको गार्डन, लखनऊ में कैंडिल मार्च निकाला गया।

5 सितंबर को किसानों की ऐतिहासिक महापंचायत मुजफ्फरनगर में हो रही है, जहाँ से भाजपा-मुक्त भारत बनाने के आह्वान के साथ मिशन यूपी का आगाज़ होगा। 25 सितंबर को किसान एक साल के अंदर तीसरा भारत-बंद करने जा रहे हैं।

उधर, छात्र-युवा रोजगार अधिकार मोर्चा के बैनर तले रोजगार के अधिकार को लेकर AISA-RYA जैसे तमाम संगठनों का प्रदेशव्यापी अभियान जारी है, योगी सरकार से उनका कहना है, " आकड़ो में मत उलझाओ, रोज़गार कहाँ है यह बतलाओ"।

DYFI युवा-संवाद आयोजित कर रही है।

प्रदेश में 5 लाख खाली पदों पर भर्ती की मांग के साथ इको गार्डन, लखनऊ में प्रदर्शन के बाद युवा मंच के आह्वान पर प्रतियोगी छात्र-युवा अब इलाहाबाद बालसन चौराहे पर एक सितंबर को सड़क पर उतर रहे हैं। वे प्रतियोगी परीक्षाओं के ज्वलंत प्रश्नों के साथ रोजगार को मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाने की मांग उठा रहे हैं और इसे लेकर मंच के संयोजक राजेश सचान के नेतृत्व में लगातार अभियान चला रहे हैं।

69000 शिक्षक भर्ती आरक्षण घोटाला के खिलाफ प्रदर्शनरत अभ्यर्थी युवक-युवतियां मंत्रियों के आवासों से लेकर SCERT कार्यालय, भाजपा मुख्यालय तक योगी सरकार का हर दमन झेलते हुए इको गार्डन, लखनऊ में जमी हुई हैं, 29 अगस्त को आयोजित उनके कैंडल मार्च में आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एन साई बालाजी भी मौजूद थे। उन्होंने कहा कि कुछ मंत्री बनाकर सामाजिक न्याय का ढोंग करने वाली भाजपा की सरकार सामाजिक न्याय की मांग कर रहे इन अभ्यर्थियों पर बर्बरता के नए रेकॉर्ड बना रही है ।

सितंबर का महीना, लगता है किसान और नौजवान आंदोलन के नारों से यूपी की धरती और आकाश गूंजता रहेगा।

दरअसल, बेरोजगारी का सवाल आज देश का सबसे बड़ा सवाल बन गया है। नौजवानों के लिए तो यह एक भोगा हुआ यथार्थ ही है, व्यापक समाज में भी आज यह common perception (आम धारणा) बन चुका है कि सरकार रोजगार के मोर्चे पर फेल कर गयी है।

हाल ही में India Today के Mood Of The Nation सर्वे में 83% लोगों ने माना कि देश में बेरोजगारी की समस्या गम्भीर रूप ले चुकी है, और इसे ( साथ ही महंगाई ) हल न कर पाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी नाकामी है। अधिकांश लोग ( 51% ) यह मानते हैं कि मोदी सरकार की उपलब्धि जीवन के इन मूलभूत सवालों का समाधान नहीं, बल्कि धारा 370 हटाना और मन्दिर बनाना है। इसीलिए मोदी की लोकप्रियता एक साल में औंधे मुंह गिरकर 66% से 24% और योगी की 49% से 29% हो गयी। नफरती, भावनात्मक मुद्दों पर अब जिंदगी के असली सवाल भारी पड़ रहे हैं।

जाहिर है संघ-भाजपा की चिंता बढ़ गयी है क्योंकि ध्रुवीकरण का उनका ब्रह्मास्त्र भी अब काम करता नहीं दिख रहा है। योगी बिहार के अनुभव से भी चिंतित हैं जहां 10 लाख नौकरी के विपक्ष के वायदे ने देखते-देखते चुनाव की बाजी करीब करीब पलट ही दी थी।

प्रतियोगी छात्रों के देश के सर्वप्रमुख केंद्रों में से एक इलाहाबाद में आये दिन युवक-युवतियों की दिल दहला देने वाली आत्महत्या की घटनाएं भी सबूत हैं कि बेरोजगारी का संकट और युवाओं के मन में उसकी पीड़ा कितनी गहरी हो चुकी है।

इस पूरी स्थिति को भांपते हुए योगी ने क्रूरता और संवेदनहीनता की सारी सीमाएं पार करते हुए पहले तो यह बयान दिया कि उत्तर प्रदेश में कोई बेरोजगारी है ही नहीं, जो बेरोजगार हैं उनके अंदर योग्यता नहीं है ! फिर बेरोजगारों से निपटने के लिए योगी जी ने एक नायाब रणनीति तैयार की,रोजगार सृजन न कर रोजगार के हवाई आंकड़े सृजित करने में पूरी ताकत झोंक दी। उन्होंने गोदी मीडिया और तमाम एजेंसियों, सरकारी पैसे से विज्ञापनों के माध्यम से एक प्रचारयुद्ध छेड़ दिया।

पर इस चालाकी से गढ़ी गयी रणनीति की एक बुनियादी कमजोरी है, दरअसल बेरोजगार युवाओं को किसी और से नहीं जानना है कि आज बेरोजगारी का सच क्या है, यह उनका अपना सच है जिसके दर्द से वे हर क्षण दो-चार हैं।

इसीलिए सरकार के भारी-भरकम आंकड़ों से वे बिल्कुल impress नहीं हैं। उल्टे सरकार की चालाकी और धोखाधड़ी पर उनके अंदर गहरा आक्रोश है।

बेरोजगारी के सवाल पर योगी सरकार का प्रचार-युद्ध बेरोजगारी के खिलाफ नहीं, बेरोजगारों के खिलाफ युद्ध है जो सरकार से नौकरियां और रोजगार मांग रहे हैं। सरकार उन्हें भरमाना और बरगलाना चाह रही है। यह कुछ कुछ वैसा ही है कि सरकार जबरदस्ती 3 कृषि कानून किसानों के ऊपर थोप रही है और कह रही है कि इससे उनका बहुत भला होगा, बावजूद इसके कि वे किसान कह रहे हैं कि हमें यह तोहफा नहीं चाहिए और वे 9 महीने से इसे खत्म करने के लिए लड़ रहे हैं।

आज उत्तर प्रदेश में हालत यह है कि पंचायत सहायक की 6 हजार वेतन की साल भर की संविदा की नौकरी के लिए पीएचडी, बीटेक, एमटेक, एमबीए, एलएलबी अभ्यर्थी आवेदन कर रहे हैं। योगी-राज में बेरोजगारों की त्रासदी का असली सच यही है, विज्ञापन और आंकड़ेबाजी नहीं! कभी मनरेगा को मोदी ने पिछली सरकार की असफलता का भव्य स्मारक कहा था, वही आज इन नौकरियों के सन्दर्भ में मोदी-योगी सरकार के बारे में कहा जा सकता है।

लाखों सरकारी नौकरी और करोड़ों रोजगार देने की योगी सरकार की आंकड़ों की बाजीगरी का पूरा फर्जीवाड़ा बहुप्रचारित शिक्षक भर्ती से समझा जा सकता है।

योगी सरकार 1.25 लाख प्राथमिक अध्यापकों की नियुक्ति को अपनी बड़ी उपलब्धि के बतौर प्रचारित करती है। पर तथ्य यह है कि प्रदेश में 2017 में जब योगी सत्ता में आये, तब कुल 4 लाख प्राथमिक शिक्षक थे जबकि आज उनकी विदायी के समय महज साढ़े तीन लाख हैं। दरअसल, हुआ यह कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से 1.37 लाख अध्यापक बर्खास्त कर दिए गए थे, उसके एवज में योगी सरकार ने 1.25 लाख नए अध्यापक नियुक्त किये।

कुल मिलाकर शिक्षकों की बर्खास्तगी से रिक्त हुये पदों पर भर्ती को छोड़ दिया जाये तो योगी राज में 2 लाख से अधिक नयी भर्ती नहीं हुई है, जो रिटायरमेंट, निधन आदि से खाली जगहों पर रूटीन भर्ती है। लेकिन बैकलॉग को भरने का वादा वादा ही रह गया।

सच्चाई तो यह है कि 2016 में केंद्र को भेजी गई रिपोर्ट में तत्कालीन अखिलेश सरकार ने कुल स्वीकृत पदों की संख्या 5.98 लाख ( 5.32 लाख सहायक अध्यापक तथा 66 हजार प्रधानाचार्य ) बताई थी जिनमें लगभग डेढ़ लाख पद रिक्त थे।

कहाँ जरूरत इस बात की थी कि अध्यापकों की संख्या 2016 की तुलना में और बढ़ती, हुआ उल्टा, योगी सरकार ने यह आदेश जारी कर कि प्राथमिक तथा उच्च विद्यालय में क्रमशः 100 तथा 150 छात्र होने पर ही प्रधानाचार्य की नियुक्ति होगी, 1.25 लाख पद खत्म कर दिए। ऐसे ही राजीव कुमार कमेटी की संस्तुति के आधार पर 10 हजार से अधिक प्राथमिक स्कूल बंद/ मर्ज करने का फैसला हुआ है, इस नाम पर कि वहां 30 से कम बच्चे पढ़ते थे। कहाँ जरूरत इस बात की थी कि सरकार यह सुनिश्चित करती कि गांव के जो बच्चे स्कूल नहीं आ रहे हैं, वे भी कैसे स्कूल आएं, उसने उल्टे उन गांवों के 30 सबसे गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई भी बंद करवा दी जो स्कूल आ रहे थे, इस तरह कुल 3 लाख बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया। प्रति स्कूल 5 अध्यापक व एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के हिसाब से 50 हजार अध्यापकों व 10 हजार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के रोजगार का अवसर खत्म हो गया।

इसी तरह प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि मौजूदा वक्त में 16 लाख कर्मचारी हैं जबकि 2015-16 में यह संख्या 16.5 लाख थी ।

इसका अर्थ यह हुआ कि वीआरएस, असमायिक निधन और रिटायरमेंट आदि से जो रिक्तियां हुईं, उतने भी पदों को नहीं भरा जा रहा है, बैकलॉग भर्ती या नए पदों के सृजन की बात ही दूर है।

दरअसल, योगी सरकार की सरकारी नौकरियों को खत्म करने की नीति और रोजगार-विरोधी रुख के पीछे मोदी सरकार ही मॉडल है। मोदी सरकार ने पिछले दिनों लोकसभा में स्वीकार किया कि 1 मार्च 2020 तक केंद्रीय विभागों में रिक्त पदों की संख्या 8.72 लाख थी, यह 3 साल पूर्व से भी 2 लाख अधिक है। अर्थात 3 साल पहले जो 6.7 लाख पद खाली थे वे तो नहीं ही भरे गए, 2 लाख पद और खाली हो गए।

आखिर ये पद क्यों नहीं भरे जा रहे हैं। एक ओर नौजवान भारी बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं, दूसरी ओर नौकरियों के पद खाली पड़े हैं और बैकलॉग बढ़ता जा रहा है।

जाहिर है, नव-उदारवाद के दौर में यह सब मोदी सरकार की " Minimum Government" की सोची-समझी नीति का परिणाम है।

कोविड के असर के अलावा भी मोदी राज में कॉरपोरेटपरस्त नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था का जो ध्वंस हुआ है, रोजगार-विरोधी नीतियां अख्तियार की गई हैं, उसी का परिणाम है कि CMIE के अनुसार 2019 में जहाँ 8.7 करोड़ salaried jobs थे, वहीं अब महज 7.6 करोड़ बचे हैं, अकेले इस जुलाई में 32 लाख नौकरियां चली गईं, जिसमें 26 लाख तुलनात्मक रूप से बेहतर शहरी क्षेत्र के रोज़गार थे।

दरअसल देश में बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति सरकारी आंकड़ों की तुलना में कई गुना अधिक भयावह है। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार अनिंद्यो चक्रवर्ती के अनुसार अगर हमारा लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट ( Active work-force as % of working age population ) वैश्विक औसत से मैच करता तो 64 करोड़ लोग रोजगार मांग रहे होते, जबकि आज महज 45 करोड़ मांग रहे हैं और 39 करोड़ के पास काम है। अर्थात आज जो 6 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, उसकी जगह 25 करोड़ लोग बेरोजगार दिखते और बेरोजगारी दर आज के सरकारी आंकड़े की 5 गुना अर्थात 39% होती! आज बहुत सारे लोग रोजगार इसलिए नहीं मांग रहे हैं क्योंकि उन्हें रोजगार मिलने की उम्मीद ही नहीं बची है!

अब यह कोई रहस्य नहीं रहा कि बेरोजगारी की मौजूदा महात्रासदी को इस मुकाम तक पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान पिछले 30 साल से लागू नव-उदारवादी नीतियों का है, जिसे मोदिनॉमिक्स ने चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया है। पिछले 7 साल से Demonetisation से लेकर ताजा Monetisation तक, मोदी सरकार का हर कदम बेरोजगारी को बढ़ा रहा है-नोटबंदी, GST का faulty implementation, अनियोजित लॉकडाउन, कृषि की बर्बादी, MSME सेक्टर का ध्वंस, मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण, राष्ट्रीय सम्पदा की लूट, 3 कृषि कानून और 4 लेबर कोड।

इन नीतियों को पलटकर ही रोजगार-संकट का समाधान हो सकता है। दरअसल, रोजगार सृजन के लिए एक समग्र रणनीति की जरूरत है-सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का पुनर्जीवन, सर्वोपरि चौतरफा कृषि विकास, कृषि आधारित उद्यमों का जाल, MSME सेक्टर, उद्योग, व्यापार, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार। जाहिर है इसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि व अन्य क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश की जरूरत है। अकेले स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश जो आज जीडीपी का महज 1% है, उसे 3% तक पहुंचाकर 60 लाख रोजगार का सृजन किया जा सकता है और इस देश की आम जनता व श्रमशक्ति को स्वस्थ भी बनाया जा सकता है।

बुनियादी नीतिगत बदलाव का प्रश्न आज देश का एजेंडा बन रहा है। 3 कृषि कानूनों की वापसी और कानूनी MSP की मांग के साथ किसानों ने कृषि क्षेत्र में नव उदारवादी नीतियों के प्रवेश को रोक देने के लिए बिगुल फूँक दिया है और वे लम्बी लड़ाई के लिए डट गए हैं।

समय आ गया है कि सरकारी नौकरियों व प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ साथ रोजगार को मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाने के लिए छात्र-युवाओं का संघर्ष तथा सार्वजनिक उपक्रमों व राष्ट्रीय सम्पदा की कारपोरेट लूट व लेबर कोड के खिलाफ व्यापक श्रमिक समुदाय की लड़ाई किसान-आंदोलन के साथ एकताबद्ध हो।

वैकल्पिक आर्थिक नीतियों के लिए किसानों-युवाओं-श्रमिकों का एकताबद्ध जनान्दोलन न सिर्फ देश के आर्थिक पुनर्जीवन का मार्ग प्रशस्त करेगा, बल्कि नव-उदारवादी नीतियों की सहगामी अधिनायकवादी/फासीवादी राजनीति की भी मौत की घण्टी बजा देगा और जनता के लोकतन्त्र के एक नए युग का आगाज़ करेगा ।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)


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