सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने हाल ही में जोर देकर कहा है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए कानूनों का दुरुपयोग देश में नागरिकों की असहमति व्यक्त करने के अधिकारों को कुचलने में नहीं किया जाना चाहिए।
भारत-अमेरिका संयुक्त सम्मेलन में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “आपराधिक कानून, जिनमें आतंक-निरोधक कानून भी शामिल है, उनका दुरुपयोग असहमति को दबाने या नागरिकों को प्रताड़ित करने के लिए हर्गिज नहीं किया जाना चाहिए। जैसा कि मैंने अर्णब गोस्वामी बनाम राज्य (महाराष्ट्र) मामले में लिखा था कि हमारी अदालतों को यह अवश्य ही सुनिश्चित करना चाहिए कि वे देश के नागरिकों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित किए जाने के विरोध में लगातार रक्षा की पहली कतार बनी रहें।”
उन्होंने आगे कहा, “आज, दुनिया के सबसे प्राचीन एवं बड़े लोकतंत्र विविधवर्णी/बहुरंगी एवं बहुलतावादी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां उनके संविधान मानवाधिकारों के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध हैं एवं उनका आदर करते हैं।”
विचाराधीन कैदियों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिए गए निर्णयों के बारे में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “न्यायालय ने सजायाफ्ता या विचाराधीन के रूप में सात साल से जेलों में कैद लोगों को जमानत या पैरोल पर छोड़े जाने के लिए मार्च 2020 में महामारी की पहली लहर के दौरान ही सभी राज्यों से एक उच्चस्तरीय कमेटी बना कर इस पर विचार करने का निर्देश दिया था। न्यायालय ने इसी तरह का विचार उन मामलों में कैद विचाराधीन कैदियों की रिहाई के लिए दिया था, जिनके किए गए अपराधों में अधिकतम सात साल कैद की सजा का प्रावधान है। लेकिन जैसे ही पहली लहर नरम पड़ी तो, उन रिहा हुए कैदियों को फिर से जेल में डाल दिया गया।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी ऐसे समय की है, जबकि एनआइए की अदालत एवं बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा फादर स्टेन स्वामी की स्वास्थ्यगत आधार पर जमानत की मांग को बार-बार ठुकरा दिए जाने से देश में काफी रोष है। गौरतलब है कि हाल ही में बुजुर्ग फादर की कैद में ही मौत हो गई थी। स्टेन स्वामी को भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गैरकानूनी गतिविधियां निवारक अधिनियम (यूएपीए) के अधीन गिरफ्तार किया गया था। देश के अनेक बुद्धिजीवियों एवं जनजातीय समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्षरत कार्यकर्ताओं ने इसे “न्यायिक हत्या” करार दिया है।
हाल ही में, यूएपीए के तहत गिरफ्तार कई लोगों को रिहा किया गया है, जो सालों से देश की विभिन्न जेलों में बंद थे। उदारहरण के लिए, श्रीनगर के बशीर अहमद बाबा को बडोदरा की केंद्रीय कारा से 11 साल बाद रिहा किया गया है। असम के किसान नेता अखिल गोगोई को, जिन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध करने के मामले में गिरफ्तार किया गया था और इसी तरह, आइआइएससी शूटिंग केस में गिरफ्तार त्रिपुरा के मोहम्मद हबीब को भी रिहा कर दिया गया है।
अभी पिछले महीने, दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली दंगे में गिरफ्तार छात्र कार्यकर्ताओं नताश नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत पर रिहा करते हुए आतंक-निरोधी कानून के गैरजवाबदेही से इस्तेमाल के लिए सरकारी एजेंसियों की आलोचना की थी। तब न्यायालय ने कहा था, ‘आतंकी कार्य’ पदावली को अवश्य ही आतंकवाद के आवश्यक चरित्र के रूप में ही लिया जाना चाहिए और उसे आपराधिक कृत्यों या गलतियों के लिए जो परम्परागत अपराधों की परिभाषा के दायरे में आती हैं, जैसा भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अन्य तथ्यों के साथ परिभाषित किया गया है। इस कानून का लापरवाही से इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।”
यह आलेख मूल रूप से लीफ्लेट में प्रकाशित किया गया था।
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Anti-terror Law Must not be Misused to Quell Dissent: Justice DY Chandrachud