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कला विशेष: शक्ति और दृष्टि से युक्त अमृता शेरगिल के चित्र
अमृता शेरगिल के चित्र आधुनिक भारतीय कला के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यह उनकी प्रतिभा ही थी कि उन्होंने विश्व की श्रेष्ठ कला शैलिओं और पारंपरिक भारतीय शैली के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए एक मौलिक चित्रण शैली का विकास किया।
डॉ. मंजु प्रसाद
04 Oct 2020
अमृता शेरगिल
वधु श्रृंगार, तैल रंग ,चित्रकार--अमृता शेरगिल साभार : प्रकाशन ललित कला अकादमी

अमृता शेरगिल (1913-1941) आधुनिक भारत के उन कलाकारों में से थी जिन्होंने पश्चिमी कला और भारतीय पारंपरिक कला के सम्मिश्रण से एक नई शैली का सृजन किया। कम उम्र में ही उन्होंने कला के नये प्रतिमान स्थापित किये हैं ।

अपने दिल्ली प्रवास के दौरान आधुनिक कला संग्रहालय में मुझे अमृता शेरगिल के अनेक चित्रों को देखने का सुअवसर मिला। उनके चित्रों में मानवाकृतियों का सरल व सहज संयोजन। भावप्रवण चेहरे। सुन्दर, चित्ताकर्षक रंग संगति ने मुझे बहुत प्रभावित किया।

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अमृता शेरगिल, आत्म चित्र। साभार : भारत की समकालीन कला एक परिपेक्ष्य, लेखक - प्राणनाथ मागो

अमृता ने अजंता कला शैली और लघुचित्रण शैली का गहन अध्ययन किया और पारंपरिक भारतीय चित्रकला और मूर्ति कला की विशेषता को समझ पाईं ।

उन्होंने अकादमिक यथार्थवाद का विरोध किया। उन्होंने कला में हूबहू, जस का तस अंकन वृत्ति को निरर्थक बताया ।

भारतीय मूल के सिख पिता उमराव सिंह और हंगेरियन मूल की माँ की संतान थीं अमृता शेरगिल। यह उनका भारतीय कला , संस्कृति, प्राकृतिक और ग्रामीण परिवेश के प्रति रोमांस ही था कि उन्होंने भारत को अपने कला सृजन के लिए अनुकूल समझा। नौ वर्ष की उम्र में वह अपने चाचा के घर रहने आई थीं। उन्होंने वहां जो देखा, उसका असर उन पर और किसी भी और चीज से ज्यादा पड़ा था - उदास चेहरों वाले किसान, खोई–खोई सपनीली निगाहें, मंथर लचकीली चाल... अपने समग्र कला सृजन में, अमृता शेरगिल ने एक भी ऐसा भारतीय चित्रांकन नहीं किया था, जो क्रियाशील हो, दौड़ रहा हो या अंग-संचालन कर रहा हो या नाच रहा हो या खुशियां मना रहा हो। उनकी सभी आकृतियाँ आलस्य से पसरी हुई या हल्के कदमों से चलती हुई। बड़ी -बड़ी निर्जीव दीवारें, विशाल निश्छल पेड़ उनके काम के निस्तब्ध मौन और निश्छल शांति को और बढ़ाते हैं। - चार्ल्स फाबरी।

जैसा कि कलाकारों के साथ होता है अमृता शेरगिल ने भी पांच साल की उम्र में पेंटिंग और ड्राइंग बनाना शुरू कर दिया था। 1924 में वे अपनी मां के साथ इटली चली गईं और फ्लोरेंस में कुछ समय कला शिक्षा पाई। 1927 के बाद वे छह साल भारत में रहीं।

इस दौरान उनके चित्रों के विषय यूरोप के लोग और भू दृश्य ही थे जो रेखांकन और जल माध्यम में थे। अमृता के मामा इर्विन बेकटे, जो एक चित्रकार थे, ने उन्हें व्यक्ति चित्रण (लाइफ माडल्स) के लिए प्रेरित किया। 1929 में अमृता अपने माँ और पिता उमराव सिंह के साथ पेरिस आ गईं और कला पर विधिवत शिक्षा प्राप्त की ।

अध्ययन के दौरान ग्रां शोमिएर में,  पिअर वालिएं की कक्षाओं में तथा एकोल दे बोज़ार में,  लूसियन सिमोन की कक्षाओं में, बहुत सारी महिलाओं और पुरूषों के शरीर अध्ययन चित्र चारकोल में बनाए जो अति संवेदनशील प्रतीत होते हैं।

1930 से अमृता ने तैल रंगों में चित्र बनाए जिनकी शैली सेजां, गोगां और मातिस से बहुत प्रभावित हैं। इनमें उनके गहरे रंगों में बने आत्मचित्र महत्वपूर्ण हैं।

1935 में अमृता भारत वापस आ गईं। अमृता ने अपनी एक मौलिक शैली का विकास किया जिसकी आत्मा में भारत का ही वास था। वे बहुत प्रतिभाशाली थीं और अपनी अल्प आयु में ही आधुनिक भारतीय कला को एक नई दिशा दी थी।

उन्होंने एक तरफ तो अकादमिक यथार्थवाद का तो विरोध किया ही साथ ही पुनरुत्थानवादी कला शैली की भी, उसकी मंथर और निस्तेज गति के कारण विरोध किया। उन्होंने अपनी प्रतिभा को उनसे श्रेष्ठ माना जिसके कारण उनके समकालीन कलाकारों द्वारा उनकी उपेक्षा की गयी। उदाहरण स्वरूप भारत में एक प्रदर्शनी के दौरान एक प्रसिद्ध कलाकार 'रूप कृष्ण ने अमृता की पेंटिंग सचमुच में ही उठाकर फेंक दिये थे क्योंकि वह अमृता द्वारा अपनी कला की श्रेष्ठता के दावे से क्रोधित हो उठे थे। '- सतीश गुजराल , पुस्तक : भारत की समकालीन कला एक परिपेक्ष्य। सच है कि वह स्वतंत्रता उन्मुख भारत में जरूर रह रही थी लेकिन भारतीय कला जगत में उनकी नवीन प्रगतिशील कला दृष्टिकोण के कारण उन्हें विरोध का सामना करना पड़ रहा था। सचमुच संवेदनशील,कोमल भाव वाली अमृता के लिए ये अत्यंत विषम परिस्थितियां थीं। भारत में जिस कला उद्देश्य और नये जीवन की आशा ले कर अमृता निवास कर रहीं थीं कितने क्षीण, प्रतिकूल और नैराश्य भरे हो गये होंगे कि 28 वर्ष की अल्पायु में अचानक और  अत्यंत दुखद मृत्यु हो गई।

दरअसल अमृता शेरगिल ने आधुनिक कला का अध्ययन किया था और वे भारतीय चित्रकला कि बारीकियों को समझ पाईं। वह अजंता चित्र शैली की गतिशील रेखाओं से प्रभावित तो थीं ही लेकिन इसके मद्धिम रंग संगति की उन्होंने समीक्षा की। अजंता के बारे में उन्होंने कार्ल खंडालावाला को लिखा  ' ऐलोरा भव्य है। अजंता विस्मयकारी रूप से सूक्ष्म और ऐन्द्रजालिक चित्ताकर्षण से भरपूर ........मैं नहीं सोचती कि मैंने कभी कोई ऐसी कृति देखी है जो इसकी बराबरी कर सकती है ...। '

अमृता ने मुगल, राजपूत और कांगड़ा शैली को बहुत पसंद किया। परंतु इन शैली का अंधानुकरण का पूरा विरोध किया था। 'वह एक तरफ तो अकादमिक यथार्थवाद और दूसरी तरफ पुनरुद्धार से लड़ने वाली अकेली विचारधारात्मक योद्धा थीं। अकादमिक यथार्थवादियों के खिलाफ उनकी शिकायत के और भी कई कारण थे, क्योंकि वे, 'पांचवें  दर्जे की पश्चिमी कला के 'मॉडल' अनुसार अपनी कला को ढाल रहे थे’ - एन.भुवनेन्द्र। 

अमृता शेरगिल के चित्र आधुनिक भारतीय कला के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यह उनकी प्रतिभा ही थी कि उन्होंने विश्व की श्रेष्ठ कला शैलिओं और पारंपरिक भारतीय शैली के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए एक मौलिक चित्रण शैली का विकास किया।

जैसा कि कलाकारों का सही मूल्यांकन उनके अवसान के बाद ही होता है, हालांकि यह त्रासदी पूर्ण

है। प्रसिद्ध कला समीक्षक प्राण नाथ मागो ने संवेदशील ढंग से अमृता शेरगिल पर विस्तार से लिखा है, "भारत में अमृता शेरगिल की छह वर्ष की अल्प अवधि का कला - सृजन नए व अत्यंत कलात्मक महत्व का है। भारतीय कला के निर्णायक युग में उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया था और पूर्वी तथा पश्चिमी कला के मिलन-बिंदुओं को रेखांकित किया था, जो उनकी उम्र के व्यक्ति में कम ही देखने को मिलता है।"

नयी सोच और आधुनिक भारतीय कला को महत्व देने वाले देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी अमृता शेरगिल के चित्रों का अवलोकन किया और पसन्द किया था। यह अमृता के द्वारा कार्ल खंडालावाला को लिखे गये पत्रों से जाहिर होता है।

अमृता ने कार्ल खंडालावाला को लिखा: शिमला , 17 अप्रैल 1937 ..... मैं दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू से मिली .....वे मेरे चित्र प्रदर्शनी में आये और हमारी लंबी बातचीत हुई। कुछ समय पूर्व उन्होंने मुझे लिखा था कि "मुझे तुम्हारे चित्र अच्छे लगे क्योंकि उनमें इतनी शक्ति और दृष्टि दिखाई देती है। तुममें ये दोनों गुण हैं। ये चित्र इन जीवनहीन प्रयत्नों से कितने अलग हैं जो हम अक्सर हिन्दुस्तान में देखते हैं...।”

(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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