NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अयोध्या मामला : जब दर्द लगातार जारी है तो विवाद का अंत कैसे हुआ ?
यह विवाद तब तक घिसटता रहेगा जब तक कि भारत अपने इतिहास से सह-अस्तित्व की परम्परा को नहीं सीख लेता।
सुभाष गाताडे
18 Nov 2019
ayodhya

भारतीय जीवन के प्राथमिक सिद्धांत और सामाजिक हकीकत के रूप में विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का अस्तित्व, 1976 में धर्मनिरपेक्ष शब्द को इसके संविधान में शामिल किये जाने से काफी पहले से मौजूद था। अब जब सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने बाबरी मस्जिद विवाद पर अपना "ऐतिहासिक" फैसला दे दिया है, तबसे एक प्रकार की बेचैनी बढ़ी है। ऐसा सिर्फ फैसले की विषमताओं और कई जगहों पर उसके  चुप्पी साध लेने की वजह से ही नहीं है, जैसा कि कई लेखकों ने इस ओर इशारा किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अदालत ने फैसला सुनाया है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस करने वाली ताकतें ही उस जमीन के टुकड़े की हक़दार हैं, जिस पर वह खड़ी थी। यह प्रश्न अपनी जगह पर कायम है कि क्या इस विवाद का वास्तविक समाधान हो गया है, जबकि इस विवाद से पैदा होने वाला दर्द हर वक़्त जारी रहता है।

6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया था। किसी समय जब इस शहर को निर्मित किया गया था तो यह भारत के समग्र विरासत का प्रतीक था। हालाँकि, मस्जिद को वास्तविक रूप में तोड़े जाने से काफी पहले ही यह स्थान भारत की धर्मनिरपेक्ष नींव को ही ध्वस्त करने के एक ठोस अभियान के रूप में तब्दील हो चुका था। 1980 के दशक से सक्रिय यह अभियान अंततः उस "अवैध कार्यवाही" की और ले गई- जिसका हवाला निर्णय में दिया गया- और मस्जिद के ध्वंस का वायस बना।

इस बात में कोई शक नहीं कि अधिकांश मुख्यधारा के राजनैतिक समूहों ने अयोध्या फैसले का स्वागत किया है और इसे एक कटु विवाद का अंततः खात्मा हुआ, कहा है लेकिन इसके बावजूद एक तरह के असंतोष की भावना बनी हुई है, जो केवल अल्पसंख्यक समूहों के बीच ही नहीं व्याप्त है। इसका एक कारण "फैसले में आधार और निष्कर्ष" के बीच "असंबद्धता" का होना है, जो कानून के उपर, धार्मिक विश्वास की जीत की मिसाल कायम करने के रूप में दिखाई देती है।

गुस्सा इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि निर्णय में जहाँ यह कहा गया है कि धार्मिक विश्वास के आधार पर किसी संपत्ति का टाइटल नहीं दिया जा सकता है, लेकिन फिर भी निष्कर्ष निकालने में यह धार्मिक विश्वास-आधारित दावों की ही शरण में जाता दिखाई देता है। सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि क्यों सिर्फ "मुस्लिम पक्ष" को ही लगातार यह साबित करना पड़ा कि वह इस बात को साबित करे कि उस विवादित स्थान पर उनका ही एकमात्र कब्जा था, जबकि "हिंदू पक्ष" के लिए इस प्रकार का कोई दबाव नहीं था। इन सभी कारणों के चलते फैसला आने के बाद से बेचैनी का आलम है।

कई लोगों की राय में बाबरी मस्जिद के मुद्दे को अब समाप्त करने की जरुरत थी, क्योंकि यह औपनिवेशिक काल से चलता चला आ रहा था, जो विवाद 1949 के बाद तब बढ़ गया, जब मूर्तियों को मस्जिद के भीतरी कक्ष में प्रवेश करा दिया गया। यह दृष्टिकोण, जो देखने में स्पष्ट तौर पर काफी लोकप्रिय है, लेकिन यह समझ उसी तरह की है, जिस तरह लोगों ने जम्मू और कश्मीर में धारा 370 के निरस्तीकरण को मंजूरी दे दी थी।

दोनों मामलों में, एक फैसला तो ले लिया गया, लेकिन ऐसा महसूस होता है कि न्याय की भावना अभी भी पीड़ित पक्ष को नहीं मिल पा रही है। उदाहरण के लिए, बाबरी विवाद पर पक्षकारों में से एक को फैसले के बारे में बोलते हुए देखें: कि वह इस फैसले को "अन्यायपूर्ण" पाता है, फिर भी इसका सम्मान करता है। अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए एक लेखक ने कहा है कि बाबरी मस्जिद टाइटल सूट का अंतिम निष्कर्ष जैसे एक "शिकारी का सपना" के सच साबित होने जैसा हुआ है: इसके इतिहास में 150 साल से चली आ रही हिंसा और डराने-धमकाने के दस्तावेज हैं, लेकिन इसके बावजूद अदालत ने उत्पीड़न करने वाले दल को ही टाइटल प्रदान कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश अशोक गांगुली, जिनको कभी सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2 जी टेलीकॉम घोटाले वाले मामले में उसकी प्रतिद्वंदी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ निर्णय दिया था, के चलते सम्मानित किया था, ने कहा है कि “संविधान का एक विद्यार्थी” होने के नाते अयोध्या पर आये फैसले को स्वीकार करने में उन्हें कुछ मुश्किल हो रही है। टेलीग्राफ अख़बार में दिए गए अपने बयान के अनुसार उन्होंने बताया कि “कई पीढ़ियों से अल्पसंख्यक देखते आये हैं कि वहाँ पर एक मस्जिद थी। इसे ध्वस्त कर दिया गया। और अब उससे भी आगे जाकर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक वहाँ पर एक मंदिर बनाया जा रहा है। इससे मेरे मन में एक शंका पैदा होती है.…संविधान के एक विद्यार्थी के रूप में, मेरे लिए इसे स्वीकार करना थोड़ा कठिन है। कठिन प्रश्न, जैसा कि वे कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट के कारण उत्पन्न हुई हैं जिसने पूरी तरह से सभी के संज्ञान में उस जगह पर जहाँ पर कभी एक मस्जिद का वजूद था, आज एक मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ़ कर दिया है।

प्रख्यात सार्वजनिक बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने बाबरी निर्णय के संदर्भ में कहा है कि "मनोवैज्ञानिक, संस्थागत और राजनीतिक” जैसे तीन मोर्चों पर "घबराहट की वजहें" हैं। वे  पाते हैं कि "हिंदू धर्म का पुनर्गठन" हुआ है, जिसमें अब इसका प्रतिनिधित्व आध्यात्मिक शक्तियों की बजाय पूरी तरह से राजनीतिक ताकतें कर रही हैं।

जो लोग यह दावा करते हैं और यहाँ तक विश्वास करते हैं कि न्यायपालिका ने आख़िरकार मामले को निपटा दिया है, उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि यदि 6 दिसंबर 1992 को भारतीय गणतंत्र के सिद्धांत और मूल्य तोड़े गए थे तो क्या वे अब अपने को दुरुस्त करने के रास्ते पर चल पड़े हैं। वे लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि भारतीय समाज का विचार पवित्रता और अपवित्रता और एक श्रेणीबद्ध पदानुक्रम पर आधारित है जो कि सदियों से चली आ रही है। एक ऐसे देश के लिए, गणतंत्र का होना एक वास्तविक क्रांति के समान था; जो जाति, लिंग, समुदाय, नस्ल या राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव को खत्म करने के लिए उन सताए गए और हाशिए पर पड़े और उत्पीड़ितों द्वारा जारी लंबे संघर्ष का परिणाम था। यह इस बात का आश्वासन था कि भारत कभी भी एक धर्म शासित राज्य के स्तर पर नहीं पतित होगा।

आजादी के बाद से हमने एक लंबी दूरी की यात्रा तय कर ली है, जब भारतीय के लोगों ने मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक रूप से एक नया स्वरुप अख्तियार किया है।9 नवम्बर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की उत्पत्ति 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय लखनऊ बेंच के द्वारा दिए गए फैसले में निहित है, जिसने तीन पक्षों के बीच चल रहे सम्पति विवाद को बेहद प्रभावी ढंग से विश्वास और भावनाओं के मामले तब्दील कर दिया गया; जिससे सच्चाई को निकाल बाहर करने का मार्ग प्रशस्त हो सका। इस खिसकाव का नतीजा आज हम हिंदुत्व खेमे में जश्न के गवाह के रूप देख सकते हैं। आखिरकार, हिंदुत्ववादियों की लंबे समय से चली आ रही मांग भी यही थी कि विश्वास के मामलों को कानून के ऊपर तरजीह दी जाए।

अब भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के अन्य मसलों के भी उठाये जाने की संभावना है। जैसा कि दक्षिण एशियाई इतिहास के किसी भी पर्यवेक्षक को मालूम है, यही एकमात्र ऐसा मार्ग नहीं है, जिस पर भारत को चलाए रखा जा सकता था। भारत में एक मस्जिद और पाकिस्तान में एक गुरूद्वारे ने, जो संघर्ष और झगड़े के एक जैसे अतीत को साझा करते हैं, हमारे सामने एक विकल्प पेश करता है। जहाँ एक तरफ भारत में बाबरी मस्जिद को 1992 में हिंदुत्व कट्टरपंथियों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था दूसरी तरफ लाहौर में स्थित सिखों का सम्मानीय शहीदगंज गुरुद्वारा  स्थल इसके ठीक विपरीत नतीजा घोषित करने वाला साबित हुआ था।

1840 के दशक के अंत में पंजाब पर ब्रिटिश कब्जे के बाद शहीदगंज गुरुद्वारा, सिखों और मुसलमानों के बीच एक बेहद द्वेषपूर्ण झगड़े की मूल वजह के रूप में सामने आया था। 1762 में लाहौर पर सिखों की फतह हासिल करने के बाद, शहर की एक मस्जिद, जिसे 15 वीं शताब्दी के मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान बनाया गया था, के प्रांगण में एक गुरूद्वारे का निर्माण किया गया। 1935 की सर्दियों में, सिख इस संपत्ति पर अपना दावा जताते हैं और उसके विपक्ष में मुस्लिमों के दावेदारों ने भी विभाजन पूर्व लाहौर में दंगे भड़काए। तब प्रिवी काउंसिल ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और 1940 में फैसला उस समय जमीन पर हक हासिल किये लोगों, अर्थात सिखों के पक्ष में लिया गया।

विभाजन के बाद भी, जब पाकिस्तान के रूप में एक नए देश को जन्म दिया गया तब भी वहाँ पर गुरूद्वारे को मस्जिद में बदलने के मुस्लिम पक्षों द्वारा कई प्रयास किए गए। “आश्चर्यजनक रूप से, अदालत ने औपनिवेशिक शासन के तहत किए गए अपने फैसले को बरकरार रखा। हालांकि, इस संपत्ति पर हक छोड़ दिया गया था, लेकिन मुसलमानों के इसे मस्जिद में तब्दील करने पर रोक लगा दी गई थी। ”आज इस्लाम पाकिस्तान का घोषित राजकीय धर्म है, फिर भी इसने अपने धार्मिक अल्पसंख्यक (इसकी कुल आबादी के 0.6% से कम) के क़ानूनी अधिकारों की रक्षा करने का काम जारी रखा है।

शहीदगंज विवाद के आलोक में अयोध्या निर्णय पर गौर करें। जैसा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है। उम्मीदें तो यह थीं कि इसकी न्यायपालिका एक शहीदगंज मामले जैसी मिसाल देंगी यदि इससे ऊँचा न दे सकें। लेकिन ये मान्यताएं झूठी साबित हुई हैं।शुक्र मनाइये, कि हिंदुत्व शिविर में जश्न का माहौल फ़िलहाल शांत है, लेकिन यह सोचना बेवकूफी होगी कि जो लोग "राजनीति को हिंदुओं और अन्य के बीच सर्वनाश के रूप में" देखते हैं, वे इस फैसले से तृप्त हो चुके होंगे। इसकी पूरी संभावना है कि वे इस फैसले से बेहद उत्साह में होंगे। अस्सी और नब्बे के दशक के दौरान, जब हिंदू दक्षिणपंथी समूह बाबरी मस्जिद को ढहाने के आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था, तब उनका नारा था कि कोई भी मस्जिद या मजार बचनी नहीं चाहिए: "तीन नहीं अब तीस हज़ार, बचे न एको मस्जिद-मजार।" दिल को बहलाने के लिए यह ख्याल अच्छा है कि वे लोग अचानक से सोच-समझकर भूलने वाली बीमारी में चले गए हैं।

सुभाष गाताडे एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। दिए गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Ayodhya: Can a Dispute Reach Closure if it Still Causes Pain?

Supreme Court Ayodhya
babri dispute
Shahidganj dispute
Hindutva forces

Related Stories

बाबरी विध्वंस मामला : आडवाणी ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए दर्ज कराए बयान

बाबरी विध्वंस : कब, कैसे और क्या हुआ

अब रोटी बनाम बाबरी का मामला

अयोध्या केस को गलत तरीके से हिंदू-मुस्लिम विवाद के तौर पर पेश किया गया: हिलाल अहमद


बाकी खबरें

  • Ramjas
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल
    01 Jun 2022
    वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया(SFI) ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन पर हमले का आरोप लगाया है। इस मामले में पुलिस ने भी क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। परन्तु छात्र संगठनों का आरोप है कि…
  • monsoon
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग
    01 Jun 2022
    पटना: मानसून अभी आया नहीं है लेकिन इस दौरान होने वाले नदी के कटाव की दहशत गांवों के लोगों में इस कदर है कि वे कड़ी मशक्कत से बनाए अपने घरों को तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। गरीबी स
  • Gyanvapi Masjid
    भाषा
    ज्ञानवापी मामले में अधिवक्ताओं हरिशंकर जैन एवं विष्णु जैन को पैरवी करने से हटाया गया
    01 Jun 2022
    उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु जैन ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले की पैरवी कर रहे थे। इसके साथ ही पिता और पुत्र की जोड़ी हिंदुओं से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रही है।
  • sonia gandhi
    भाषा
    ईडी ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी को धन शोधन के मामले में तलब किया
    01 Jun 2022
    ईडी ने कांग्रेस अध्यक्ष को आठ जून को पेश होने को कहा है। यह मामला पार्टी समर्थित ‘यंग इंडियन’ में कथित वित्तीय अनियमितता की जांच के सिलसिले में हाल में दर्ज किया गया था।
  • neoliberalism
    प्रभात पटनायक
    नवउदारवाद और मुद्रास्फीति-विरोधी नीति
    01 Jun 2022
    आम तौर पर नवउदारवादी व्यवस्था को प्रदत्त मानकर चला जाता है और इसी आधार पर खड़े होकर तर्क-वितर्क किए जाते हैं कि बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में से किस पर अंकुश लगाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License