NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अयोध्या विवाद : फैसला आया लेकिन कई विरोधाभासों के साथ
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर एकमत होकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। लेकिन उस फैसले पर एकमत बनता नहीं दिखता बल्कि कई सारे सवाल उठते हैं।  
शशांक मणि चतुर्वेदी
11 Nov 2019
ayodhya case
Image courtesy: deccanherald

बीते शनिवार को सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद में अपना निर्णय सुना दिया। विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन पर हिन्दू पक्ष रामलला विराजमान का दावा स्वीकार करते हुए उसे पूरी दे ज़मीन दे दी गयी। एक दूसरे हिंदू पक्ष निर्मोही अखाड़े का दावा अदालत ने ख़ारिज कर दिया, हालाँकि उसे मंदिर के प्रबंधन के लिए बनने वाले ट्रस्ट में जगह देने का आदेश केन्द्र सरकार को दिया गया है। विवादित भूमि पर सुन्नी सेन्ट्रल वक़्फ़ बोर्ड का भी दावा अदालत ने ख़ारिज कर दिया, लेकिन उसे अयोध्या में कहीं दूसरी जगह मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ ज़मीन देने का आदेश केंद्र सरकार को दिया गया है। इसके साथ ही न्यायालय ने हिंदू पक्षों के इस दावे को भी नक़ार दिया कि वहाँ 1528 में बाबर के सेनापित मीर बांकी ने हिंदू मंदिर को गिराकर मस्ज़िद तामिल करायी थी।

हालाँकि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वक्षण की रिपोर्ट को मानते हुए यह ज़रूर कहा है कि 1528-29 में बनायी गयी मस्ज़िद वैध भूमि पर नहीं बनी थी और वहाँ हिंदू अवशेष थे। अदालत ने यह भी मान लिया कि 22-23 दिसम्बर, 1949 की रात को मस्जिद के भीतरी आहते में चोरी से मूर्ति रखी गयी और ऐसा करना असंवैधानिक था। उच्चतम न्यायालय ने 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराये जाने को भी आपराधिक कृत्य माना है। सुप्रीम के 1045 पन्नों के विस्तृत फ़ैसले के तमाम निष्कर्षों को एक साथ पढ़ने और उन्हें इस पूरे विवाद से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में देखने पर कुछ मूलभूत सवाल पैदा होते हैं। उन सवालों पर बात करना ज़रूरी है।

(1) इनर कोर्ट यार्ड का जो सेंन्ट्रल रूम था, जिसे हम केन्द्रीय गुंबद कहते हैं, और जिसे 6 दिसम्बर, 1992 को गिरा दिया गया, बिल्कुल वहीं कोर्ट ने एएसआई की रिपोर्ट को आधार बनाते हुए मंदिर का दावा स्वीकार कर लिया है। दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट अपने इसी निर्णय में यह कह रहा है कि गिराना एक आपराधिक कृत्य था। गौरतबलब है कि मस्जिद का ढांचा गिराये जाने को लेकर भाजपा, विहिप और बजरंग दल के कई नेताओं के ख़िलाफ़ फ़ौजदारी वाद लंबित है।

अब सवाल यह है कि यदि ढांचे को गिराना क़ानूनसम्मत नहीं था, तो उसी जगह पर मंदिर का दावा कैसे स्वीकार किया जा सकता है? मान लीजिये कि वह मस्ज़िद नहीं गिरायी गयी होती और आज भी वहीं खड़ी रहती, तो एएसआई के रिपोर्ट के हवाले से अदालत का आज का फ़ैसला क्या होता? कोर्ट का कहना है 6 दिसम्बर, 1992 के बाद यथास्थिति बदल गयी। सवाल यह पैदा होता है कि एक आपराधिक कृत्य के ज़रिये यथास्थिति बदले जाने को आप अपने वैधानिक फैसले के आधारों में कैसे शामिल कर सकते हैं? सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस विरोधाभास का उत्तर नहीं दे सका है।

(2) अदालत ने सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड का दावा ख़ारिज करने का मुख्य आधार यह बनाया है कि वह उस जगह पर 1528 से 1857 के बीच नमाज़ अदा किये जाने का कोई सबूत पेश नहीं कर सका। केवल अंग्रेज़ों द्वारा आर्थिक सहायता दिये जाने के कुछ प्रमाण हैं। लेकिन अपने निर्णय में कोर्ट यह भी कहता है कि 1934 से 1949 के बीच वहाँ मुस्लिमों को नमाज़ पढने से रोका गया। साथ न्यायालय का निर्णय यह भी कहता है कि 1949 में मस्जिद के भीतरी आहते में चोरी से मूर्ति रखी गयी। यदि न्यायालय आज़ादी के बाद वहाँ मस्जिद होने और उसमें नमाज़ पढ़े जाने का दावा स्वीकार कर रहा है, तो 1857 के पहले की स्थिति से संबंधित दस्तावेज़ मांगे जाने का औचित्य क्या है? ऐसा प्रतीत होता है कि 'बर्डेन ऑफ़ प्रूफ़' पूरे तौर पर एक पक्ष पर डाल दिया गया।

अदालत ने वक़्फ़ का दावा अस्वीकार करने का यह आधार बनाते हुए इस मामले से जुड़े एक और अदालती और ऐतिहासिक तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया। 1885 में फ़ैज़ाबाद ज़िला अदालत में रघुवर दास द्वारा दायर सिविल सूट पर 1886 में फ़ैसला सुनाते जज ने यह कहते हुए दावा ख़ारिज कर दिया कि चूँकि मस्ज़िद का निर्माण लगभग साढ़े तीन सौ साल पहले हो चुका है, इसलिए इस पर अब फ़ैसला करने का कोई औचित्य नहीं है। इसके मायने यही है कि 1886 में फ़ैज़ाबाद की निचली अदालत ने यथास्थिति की व्याख्या करते हुए मस्ज़िद के अस्तित्व को स्वीकार किया था।

(3) पूरी विवादित ज़मीन पर रामलला विराजमान का दावा स्वीकार करने का आधार यदि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट और कुछ यात्रा वृतांतों के हवाले से यह बनाया है कि 1528 में वहाँ मस्ज़िद वैध ज़मीन पर नहीं बनायी गयी थी और वह हिंदूओं की भूमि थी, तो सवाल यह उठता है कि यथास्थिति को अदालतें कितने पीछे जाकर देखना चाहती हैं? 1991 के प्लेसेस ऑफ़ वर्सिप एक्ट के लागू होने की तारीख़ से स्टेटस-को देखा जाएगा या 1950 में  भारतीय संविधान के लागू होने की तारीख़ से? यदि आप इतिहास में सदियों पीछे जाकर यथास्थिति को देखना शुरू करेंगे, तो भारत के इतिहास में बहुत सारी चीज़े. बनायी-बिगाड़ी गयी हैं। किस-किस संरचना को आप अपने मुताबिक़ दुरुस्त करेंगे और इसका अंत कहाँ होगा? एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि क्या प्रचीन और मध्यकालीन इतिहासों के प्रकल्पों के आधार पर आधुनिक भारत में सिविल सूट के मुक़दमों का निर्णय होगा? ऐसी परम्परा चल निकलने पर भारत के संविधान का क्या होगा?

(4) सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई शुरु करने से पहले ही यह कहा था कि हम टाइटल सूट डिसाइड करेंगे, आस्था के आधार पर फ़ैसला नहीं करेंगे। कोर्ट ने अपने आख़िरी निर्णय में भी इसे ज़मीन के मालिकाना हक़ का ही विवाद माना है।  लेकिन इस फ़ैसले को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि अदालत ने आस्था के आधार पर टाइटल सूट डिसाइड कर दिया है। केवल एएसआई के रिपोर्ट के आधार पर पूरी विवादित ज़मीन पर रामलला विराजमान का दावा स्वीकार कर लिया गया है। 1950 से चल रहे सिविल सूट के मुक़दमें में रामलला विराजमान 1989 में पक्षकार बना। कोर्ट ने मामले के दो पक्षकारों-निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड-का टाइटल सूट का दावा इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि वे स्थल पर अपने कब्ज़े को लेकर कोई प्रमाणिक  दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं कर सके।

अब सवाल यह उत्पन्न होता है  कि रामलला विराजमान ने टाइटल सूट के वाद में अपना दावा साबित करने के लिए कौन से दस्तावेज़ न्यायालय के समक्ष पस्तुत किये? केवल एएसआई की रिपोर्ट और कुछ यात्रा वृतांत मालिकाना हक़ के दावे को कैसे पुख़्ता कर सकते हैं? क्या केवल माइथालॉजी के आधार पर सिविल सूट का समाधान हो सकता है? रामलला विराजमान का अर्थ है- श्रीराम मुक़दमें में स्वयं वादी थे। राम जन्मभूमि न्यास ने राम को शिशु मनाकर उनके संरक्षक के तौर पर अदालत के समाने स्वयं को पक्षकार बनाने की अर्ज़ी दायर की थी। ऐसा भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल लाल शरण सिन्हा की सलाह पर 1963 के लॉ ऑफ़ लिमिटेशन (परिसीमा क़ानून) की अड़चनों से बचने के लिए किया गया। सवाल यह है कि क्या केवल पौराणिक मान्यताओं और भगवान के अस्तित्व को टाइटल सूट के वाद में कमज़ोर क़ानूनी पहलुओं की ढ़ाल के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है? ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायालय का निर्णय ऐसी चतुर रणनीतियों को वैधता प्रदान करता है।

(5) सुप्रीम कोर्ट के समक्ष 2.77 एकड़ भूमि के मालिकाना हक़ को लेकर विवाद था। कोर्ट ने यह सारी ज़मीन रामलला विराजमान को दे दी है। लेकिन अदालत ने अपने निर्णय में सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड को आयोध्या में ही पांच एकड़ भूमि अलग से देने का आदेश दिया है। न्यायालय के इस निर्णय से थोड़ी हैरानी होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने सेटलमेंट करने या सबको संतुष्ट करने का प्रयास किया है। लेकिन प्रश्न यह उठेगा कि ऐसा करने का क़ानूनी आधार क्या है, क्योंकि अदालत के समाने केवल 2.77 एकड़ ज़मीन के स्वामित्व को लेकर विवाद था। सर्वोच्च अदालत  ने यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 142 में उसे मिली शक्ति का इस्तेमाल करते हुए पारित किया है। इस बात पर बहुत पहले से एकेडमिक डिबेट चल रही है कि अनुच्छेद 142 को किस सीमा तक खींचा जा सकता है।

क्या इस प्रावधान का इस्तेमालकर न्याय की ऐसी इमारत भी खड़ी की जा सकती है, जिसका कोई क़ानूनी आधार न हो? सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच यह कह चुकी है, 'अनुच्छेद 142 को इसके विस्तृत आयामों के बावजूद एक ऐसी इमारत खड़ी करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, जो पहले से मौजूद ही न हो। किसी विषय से संबंधित क़ानूनी प्रावधानों की अनदेखी करके परोक्ष रूप से वो हासिल करने का प्रयास नहीं किया जा सकता जिसे प्रत्यक्ष रूप से हासिल नहीं किया जा सके। यह याद रखा जाना चाहिए कि अनुच्छेद 142 के तहत अधिकारों के आयाम जितने व्यापक हैं, उतना ही इस अदालत को यह देखने की ज़रूरत भी बड़ी है कि इस अधिकार का इस्तेमाल संयम के साथ हो, बिना संविधान की सीमाओं को पीछे धकेले, ताकि यह अदालत अपने न्यायाधिकार में काम करे।'

अंत में, इस पूरे फ़ैसले को समग्रता से देखने पर रोमन लॉ की एक उक्ति याद आती है- 'लेट जस्टिस बी डन द़ो द हैवेन्स फ़ाल।'

Ayodhya Case
Ayodhya Dispute
contradiction in ayodhya verdict
question on ayodhya verdict
Ayodhya verdict
Supreme Court
Ram Mandir
babri masjid

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

जब "आतंक" पर क्लीनचिट, तो उमर खालिद जेल में क्यों ?

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

राम मंदिर के बाद, मथुरा-काशी पहुँचा राष्ट्रवादी सिलेबस 

तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?

मलियाना कांडः 72 मौतें, क्रूर व्यवस्था से न्याय की आस हारते 35 साल


बाकी खबरें

  • MGNREGA
    सरोजिनी बिष्ट
    ग्राउंड रिपोर्ट: जल के अभाव में खुद प्यासे दिखे- ‘आदर्श तालाब’
    27 Apr 2022
    मनरेगा में बनाये गए तलाबों की स्थिति का जायजा लेने के लिए जब हम लखनऊ से सटे कुछ गाँवों में पहुँचे तो ‘आदर्श’ के नाम पर तालाबों की स्थिति कुछ और ही बयाँ कर रही थी।
  • kashmir
    सुहैल भट्ट
    कश्मीर में ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ता सुरक्षा और मानदेय के लिए संघर्ष कर रहे हैं
    27 Apr 2022
    सरपंचों का आरोप है कि उग्रवादी हमलों ने पंचायती सिस्टम को अपंग कर दिया है क्योंकि वे ग्राम सभाएं करने में लाचार हो गए हैं, जो कि जमीनी स्तर पर लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए…
  • THUMBNAIL
    विजय विनीत
    बीएचयू: अंबेडकर जयंती मनाने वाले छात्रों पर लगातार हमले, लेकिन पुलिस और कुलपति ख़ामोश!
    27 Apr 2022
    "जाति-पात तोड़ने का नारा दे रहे जनवादी प्रगतिशील छात्रों पर मनुवादियों का हमला इस बात की पुष्टि कर रहा है कि समाज को विशेष ध्यान देने और मज़बूती के साथ लामबंद होने की ज़रूरत है।"
  • सातवें साल भी लगातार बढ़ा वैश्विक सैन्य ख़र्च: SIPRI रिपोर्ट
    पीपल्स डिस्पैच
    सातवें साल भी लगातार बढ़ा वैश्विक सैन्य ख़र्च: SIPRI रिपोर्ट
    27 Apr 2022
    रक्षा पर सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले 10 देशों में से 4 नाटो के सदस्य हैं। 2021 में उन्होंने कुल वैश्विक खर्च का लगभग आधा हिस्सा खर्च किया।
  • picture
    ट्राईकोंटिनेंटल : सामाजिक शोध संस्थान
    डूबती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अर्जेंटीना ने लिया 45 अरब डॉलर का कर्ज
    27 Apr 2022
    अर्जेंटीना की सरकार ने अपने देश की डूबती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के साथ 45 अरब डॉलर की डील पर समझौता किया। 
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License