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बिहार : प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में फ़ीस कम करने और राइट टू हेल्थ की मांग होने लगी तेज़
बिहार विधानसभा में प्राइवेट कॉलेजों द्वारा ली जाने वाली मोटी फ़ीस का मुद्दा उठाया गया है। राज्य सरकार भी राज्य के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की पढ़ाई का शुल्क कम कराने पर विचार करे।
एम.ओबैद
04 Mar 2022
medical
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई करने के गए कर्नाटक के एक मेडिकल छात्र नवीन शेखरप्पा के रूस-यूक्रेन युद्ध में मारे जाने के बाद अब देश भर में सरकारी और प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में सीटों की कमी और प्राइवेट कॉलेजों द्वारा लिए जाने वाले मोटी फीस को लेकर आवाज बुलंद होने लगी है। बता दें कि विदेश मंत्रलाय के पिछले वर्ष के आंकड़ों के अनुसार करीब 18,000 भारतीय छात्र यूक्रेन के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे। करीब 11.3 लाख भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं। मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा छात्र यूएई के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं। यूएई में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या दो लाख से ऊपर है।

नीट पास 90% छात्र नहीं ले पाए दाख़िला

विशेषज्ञों का मानना है कि मुख्यतः दो कारणों से मेडिकल के अभ्यर्थी दूसरे देश के मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई के लिए यहां से जाते हैं। पहला प्रमुख कारण है मेडिकल के अभ्यर्थी के अनुपात में भारत के सरकारी और प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में सीटों की कमी जबकि दूसरा प्रमुख कारण है यहां के प्राइवेट कॉलेजों द्वारा छात्रों से ली जाने वाली मोटी फीस। अपने देश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस कोर्स पूरा करने के लिए छात्रों को जहां एक करोड़ से अधिक रूपये खर्च करने वहीं यूक्रेन जैसे देशों में यही कोर्स 35-40 लाख रुपये में पूरा हो जाता है। पिछले साल करीब 15 लाख छात्र नीट परीक्षा में शामिल हुए थें जिनमें से करीब 8.70 लाख छात्रों ने इस परीक्षा को क्वालीफाई किया था। देश के सरकारी और प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में सीटों की संख्या 88,120 है ऐसे में नीट क्वालीफाई करने वाले करीब 90 प्रतिशत छात्र यहां दाखिला नहीं ले पाते हैं जिसके चलते उन्हें दूसरे देशों में मेडिकल की पढ़ाई करने जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

प्राइवेट कॉलेजों में फीस कम करने की उठी मांग

इसी क्रम में देश भर में मे़डिकल कॉलेजों में सीटों के बढ़ाने और प्राइवेट कॉलेजों में फीस कम करने को लेकर मांग तेज होने लगी है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक गुरुवार को बिहार विधानसभा में प्राइवेट कॉलेजों द्वारा ली जाने वाली मोटी फीस का मुद्दा उठा। सत्तासीन जदयू पार्टी के विधायक डॉ संजीव कुमार समेत अन्य सदस्यों की ओर से सदन में ध्यानाकर्षण के तहत इस मुद्दे को उठाया गया। सदस्यों का कहना था कि राज्य के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में प्रत्येक वर्ष दाखिले के लिए12 लाख और छात्रावास के लिए तीन लाख लिए जाते हैं जबकि बिहार के मेधावी व गरीब छात्र यूक्रेन, नेपाल व फिलीपींस सहित अन्य देशों में सालाना चार-पांच लाख रुपये खर्च पर एमबीबीएस की पढ़ाई करते हैं। बिहार सरकार भी राज्य के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की पढ़ाई का शुल्क कम कराने पर पर विचार करे। इसके जवाब में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि बिहार में निजी मेडिकल कॉलेजों की 50% सीटों परसरकारी कॉलेजों के बराबर ही फीस ली जाएगी जो अगले सत्र से लागू होगी।

राज्य में 12 सरकारी मेडिकल कॉलेज

स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने सदन को बताया कि राज्य में फिलहाल एम्स व इएसआइसी मेडिकल कॉलेज, बिहटा सहित राज्य में 12 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में एमबीबीएस की 1850 सीटें हैं। उन्होंने कहा कि अगले तीन-चार वर्षों में 24 सरकारी मेडिकल कॉलेज हो जायेंगे। इन सरकारी कॉलेजों के नाम हैं- एम्स पटना, इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान पटना, पटना मेडिकल कॉलेज, नालंदा मेडिकल कॉलेज, दरभंगा मेडिकल कॉलेज, जवाहर लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज, अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज, गवर्नमेंट कॉलेज बेतिया, श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज, डेंटल कॉलेज पटना, वर्धमान इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस, जननायक कर्पूरी ठाकुर मेडिकल कॉलेज मधेपुरा।

8 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में 1050 सीटें

बिहार में फिलहाल 8 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एमबीबीएस और एमडी की पढाई होती है। इन प्राइवेट कॉलेजों में 1050 मेडिकल की सीटें हैं। ये प्राइवेट कॉलेज हैं- लॉर्ड बुद्धा मेडिकल कॉलेज सहरसा, नेताजी सुभाष मेडिकल कॉलेज पटना, कटिहार मेडिकल कॉलेज, राधा देवी जागेश्वरी मेडिकल कॉलेज, मधुबनी मेडिकल कॉलेज मधुबनी, माता गुजरी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज किशनगंज, नारायण मेडिकल कॉलेज सासाराम और श्री नारायण मेडिकल इंस्टीट्यूट एंड हॉस्पिटल शामिल हैं। 

10 नए सरकारी मेडिकल कॉलेज खुलेंगे 

बिहार सरकार प्रदेश में 10 और सरकारी मेडिकल कॉलेज व अस्पताल खोलने जा रही है। समस्तीपुर, जमुई, सीवान, बक्सर, छपरा, आरा, बेगूसराय, वैशाली जिला के महुआ, सीतामढ़ी और मधुबनी में नए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना प्रस्तावित हैं।

हेल्थ इंडेक्स में बिहार निचले पायदान पर

ऐसे तो बिहार कई मानकों के लिहाज से पिछड़ा प्रदेश है। स्वास्थ्य के मामले में भी यह निचले पायदान पर है। पिछले साल आए नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हेल्थ इंडेक्स में 19 बड़े राज्यों की सूची में बिहार18 स्थान पर था। आबादी के लिहाज से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य में हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर वर्षों से मानकों से काफी नीचे है। समय-समय पर प्रदेश की चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर खबरें आती रही हैं। अभी तक यहां चिकित्सा व्यवस्था के मामले में कोई ख़ास सुधार नहीं आया है। पीएचसी, सीएचसी तथा अन्य सरकारी अस्पतालों के भवनों का निर्माण तो हुआ है लेकिन डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की कमी एक बड़ा मुद्दा बना रहा है। कोरोना काल में यहां के परिस्थियों की पोल खुल कर सामने आ गई थी।

डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी

विपक्षी नेताओं का कहना है कि बिहार में मौजूदा समय में भी डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की अनुशंसा के बावजूद यहां पर्याप्त काम नहीं हो पाया है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक प्रति एक हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर होने चाहिए लेकिन बिहार में 20,000 की आबादी पर एक डॉक्टर है।

राइट टू हेल्थ की मांग होने लगी तेज़

प्रत्येक व्यक्ति को बेहतर चिकित्सा सुविधा मिलना उसका बुनियादी हक है। ऐसे में बिहार में राइट टू हेल्थ की मांग तेज होने लगी। विपक्षी पार्टी के विधायकों ने इसकी मांग को तेज कर दिया है। ईटीवी से बात करते हुए भाकपा माले विधायक अजीत कुशवाहा ने कहा कि मैं जिस क्षेत्र से आता हूं वहां की आबादी 12 लाख है और वह मात्र 15 डॉक्टर हैं। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि संकट की स्थिति में वहां के लोगों ने कैसे जान बचायी होगी। सरकार को बिहार में राइट टू हेल्थ लागू करना चाहिए जिससे आम लोगों का जनजीवन सामान्य हो सके। वहीं आरजेडी विधायक रामानुज प्रसाद ने कहा कि बिहार में चिकित्सा व्यवस्था लचर है। कोरोना संकट के दौरान राज्य में एक परिवार ऐसा नहीं रहा जिसने अपने सगे-संबंधियों को नहीं खोया हो। राज्य में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर और चिकित्सकों की भारी कमी है। लिहाजा सरकार को तत्काल राइट टू हेल्थ लागू करने पर विचार करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी के विधायक डॉ. शकील अहमद ने कहा कि बिहार में स्वास्थ्य माफिया आम लोगों का शोषण करते हैं। लोगों को बेहतर इलाज नहीं मिल पाता है। अगर राज्य के अंदर बिहार में राइट टू हेल्थ लागू हो जाए और केंद्र की सरकार स्पेशल स्टेटस दे दे तो आम लोगों का जनजीवन सामान्य हो पाएगा।

स्वास्थ्य पर कुल बजट का केवल 2.5% से 3.5% ख़र्च

बिहार के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों के साथ पैरामेडिकल स्टॉफ की कमी की वजह संसाधन है। वर्षों से बिहार सरकार कुल बजट से स्वास्थ्य के लिए केवल 2.5% से 3.5% ही दे रही है जो कि बहुत कम है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ब्लॉक लेवल पर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिहाज से बनाए गए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बदहाल हैं। यहां विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है।

51 फीसदी हेल्थकेयर वर्कर्स के पद भी ख़ाली

केंद्र सरकार की रिपोर्ट नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के मुताबिक़ बिहार के सरकारी अस्पतालों में 2,792 एलोपेथिक डॉक्टर हैं यानी बिहार में 43,788 लोगों पर एक एलोपेथिक डॉक्टर है। सिर्फ डॉक्टर की ही कमी नहीं बल्कि नीति आयोग की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार 51फीसदी हेल्थकेयर वर्कर्स के पद भी खाली पड़े हैं।

इलाज के लिए राज्य के बाहर जाने को मजबूर

बिहार के लोगों को बेहतर इलाज के लिए आज भी दूसरे राज्यों का रूख करना पड़ता है। यहां के ज्यादातर लोग देश की राजधानी दिल्ली में स्थित एम्स में इलाज के लिए यहां आते हैं। यहां उनको सस्ते में बेहतर से बेहतर इलाज मिल जाता है। ऐसे में बड़ी संख्या में लोग दिल्ली का रूख करते हैं। इतना ही नहीं उत्तर बिहार के लोग इलाज के अभाव और महंगी इलाज के चलते नेपाल जाना पसंद करते हैं। स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने वर्ष 2017 में एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि बिहार के लोग छोटी-छोटी बीमारियों के लिए दिल्ली पहुंच जाते हैं।

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