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भारत
राजनीति
बिहार चुनाव: सभी दलों ने आपराधिक मामलों से जुड़े उम्मीदवारों को क्यों बनाया अपना खेवनहार?
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण में तकरीबन 328 यानी 30 फ़ीसदी से अधिक उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 244 यानी 23 फ़ीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
अजय कुमार
21 Oct 2020
बिहार चुनाव
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : lokmatnews

भारतीय समाज बड़ा अजीब है। एक व्यक्ति चाहता है कि उसके परिवार का कोई सदस्य गलत न करें। लेकिन जैसे ही पड़ोसी से संबंध बनाने की बात आती है तो व्यक्ति चाहता है कि थोड़ा बहुत गलत किया जा सकता है। पड़ोसी से थोड़ा दूर बढ़कर गांव शहर, देश, दुनिया से नाता जोड़ने की बात आती है तो व्यक्ति खुलकर कहने लगता है कि दुनिया में जीने के लिए दुनियादार होना पड़ता है। यहां नैतिकता और आदर्शों का कोई महत्व नहीं। शायद यही वजह है कि जैसे ही राजनीति की बात आती है, राजनीतिक व्यक्ति और उम्मीदवार की बात आती है तो एक आम आदमी इस बात पर ज्यादा गौर नहीं देता कि चुनावी उम्मीदवार का चरित्र कैसा है? उम्मीदवार ने पैसे कहां से कमाए हैं? उम्मीदवार की जीवन की पृष्ठभूमि क्या है? क्या उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि तो नहीं है? यह सारे सवाल एक आम आदमी को ज्यादा परेशान नहीं करते हैं।

लेकिन एक आम आदमी के जीवन के नजरिये को निखारने का नाम भी तो लोकतंत्र है। इसलिए इन सवालों पर गौर किया जाना जरूरी है। चुनाव सुधार पर काम करने वाली दिल्ली में एक शानदार संस्था है। संस्था का नाम है एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर)। इस संस्था ने बिहार इलेक्शन वॉच के साथ मिलकर बिहार चुनाव के पहले चरण से जुड़े उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि पर रिपोर्ट निकाली है। रिपोर्ट का नाम है उम्मीदवारों द्वारा घोषित वित्तीय, आपराधिक, शिक्षा, लिंग और अन्य आधारों पर विश्लेषण। जैसा कि नाम से ही साफ जाहिर हो रहा है कि इस रिपोर्ट के लिए कच्चे माल का काम उम्मीदवारों द्वारा चुनाव आयोग को सौंपा गया खुद का शपथ पत्र ही था। 

पहले चरण में 71 विधानसभा सीटों के लिए जोर आजमाइश हो रही है। इसमें तकरीबन 1064 उम्मीदवार शामिल हैं। रिपोर्ट का कहना है कि तकरीबन 328 यानी 30 फ़ीसदी से अधिक उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 244 यानी 23 फ़ीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। गंभीर अपराध का मतलब यह कि जिस में 5 साल से अधिक की सजा होती है और जमानत पर रिहाई भी नहीं मिलती है। इसमें हत्या, हत्या का प्रयास और बलात्कार जैसे मामले शामिल होते हैं। 375 उम्मीदवार करोड़पति की कैटेगरी में आते हैं। एक उम्मीदवार की औसत संपत्ति एक करोड़ 90 लाख है।

राष्ट्रीय जनता दल में 54% उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वही जनता दल यूनाइटेड की तरफ से 29 फ़ीसदी उम्मीदवार की पृष्ठभूमि गंभीर आपराधिक मामले की है। भाजपा में इस आधार पर 45 फ़ीसदी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि है। अब सोचिए कौन सा दल अपराध और फासीवाद से लड़ेगा?

एडीआर के सदस्य जगदीप छोकर का कहना है कि पहले चरण की उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि देखकर यह बात बिल्कुल साफ दिख रही है कि राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बिल्कुल नहीं माना है। इसी साल फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि सभी पार्टियां अपने वेबसाइट पर उन उम्मीदवारों का नाम अनिवार्य तौर पर जगजाहिर करेंगी जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। साथ में पार्टियों को वाजिब कारण भी बताना होगा कि क्यों उन्होंने ऐसे उम्मीदवारों को अपना टिकट दिया। वाजिब कारण का मतलब यह नहीं कि किसी भी तरह का कारण दे दिया जाए।  यह भी न कहा जाए कि यह उम्मीदवार जिताऊ है इसलिए इसे टिकट दिया गया। सुप्रीम कोर्ट का साफ इशारा था कि राजनीतिक दल आपराधिक मामलों में लिप्त उम्मीदवारों को टिकट न दें। अगर दे भी तो वाजिब कारण बतावें। यह बताएं की उन्होंने दूसरों को टिकट क्यों नहीं दिया? अभी तक केवल दो दलों ने कारण बताया है। वह भी कोई ठोस कारण नहीं है। इसका साफ मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक दलों ने सिरे से खारिज कर दिया है।

अगर पैसे के लिहाज से देखा जाए तो पहले चरण की उम्मीदवारी के लिए घोषित उम्मीदवारों में राष्ट्रीय जनता दल में तकरीबन 95% करोड़पति हैं। जनता दल यूनाइटेड में 89% और भाजपा में 83% करोड़पति हैं। यानी आपराधिक तंत्र के बाद पूंजी तंत्र के मामले में भी कोई दल ख़ास पीछे नहीं है।

इधर बीच बिहार के एक प्रमुख दल से जुड़े एक कद्दावर कार्यकर्ता की फेसबुक पोस्ट पढ़ी। पोस्ट में लिखा हुआ था कि जो भी लोग टिकट के लिए लाइन में खड़े हैं। उन सब ने बड़ी शान से बताया है कि उनके पास कितने ठेके हैं। कितने ट्रक हैं। उनकी कितनी बसें चलती हैं। उनकी जमीन कितनी है। उनकी ईट भट्ठे कितने हैं। इस बात का यहां जिक्र करने का मतलब यह था कि बड़े ध्यान से यह परखने की कोशिश करनी चाहिए कि आखिर राजनीतिक दल को यह बताने की क्यों जरूरत पड़ती है कि अमुक व्यक्ति जो कि उम्मीदवार बनना चाहता है, उसका रसूख कैसा है? आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी उम्मीदवारों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या कम क्यों नहीं हुई?

समाज विश्लेषक प्रोफेसर चंदन श्रीवास्तव कहते हैं कि जिस हद तक लोकतांत्रिक राजनीति लोगों के मन में धारणाओं को बैठाने, उन धारणाओं पर अपनी मुट्ठी कसने और फिर ऐसा करके लोगों पर मनचाही सवारी करने का नाम है, उस हद तक भारत सरीखे विकासशील देश की राजनीति में ‘नाम कमाने ’ की ललक और उसकी महिमा कायम रहेगी। एक वजह ये कि किसी व्यक्ति का नाम अगर लोगों के जेहन में किसी खास बात के प्रतीक के रूप में बैठ जाये तो फिर काम आसान हो जाता है। नाम के जेहन में जड़ जमाने के बाद उस नाम को एक से ज्यादा बातों का प्रतीक बनाया जा सकता है. ‘नाम’ कमाने से ही अगर अपने सारे काम सधने हैं तो फिर क्यों न नाम कमाने के उद्यम किये जायें और नाम कमाने की जो ऐसी कुंभकर्णी भूख समायी हो तो फिर इस फैसले पर पहुंचने में देर ही कितनी लगती है कि ‘ बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम ना होगा’, और, दूसरी वजह ये कि विकासशील देशों में ‘बदनामी’ को ‘शोहरत’ में बदलने का पुरअसर सामाजिक ढांचा मौजूद होता है, जैसे कि लोगों का अपने और दूसरे को हर वक़्त किसी जाति, कुनबे या फिर धर्म-विशेष के सदस्य के रुप में देखना-मानना।

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। विकासशील देशों की लोकतांत्रिक राजनीति में किसी व्यक्ति का अपराधी होना दरअसल उसके लिए प्राथमिक रूप से नाम कमाने का जरिया होता है। किसी व्यक्ति के बारे में हवा उड़े कि उसने हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे जघन्य कर्म किये हैं या ऐसे अपराध के आरोपों में अदालत और जेल के चक्कर लगा रहा है तो लोगों के बीच उसका नाम पहले तो भय के एक प्रतीक-चिह्न में बदलता है लेकिन फिर तुरंत ही लोगों को ये भी समझ में आ जाता है कि ऐसे कर्म करने के पीछे उस व्यक्ति का कुछ न कुछ तो ‘विवेक’ रहा ही होगा। फिर लोग अपने से ही उसके पक्ष में तर्क गढ़ने लगते हैं: ‘किसी की हत्या की या अपहरण किया तो क्या बुरा किया, अपनी जाति वाले की तो हत्या नहीं की ना! और, जो अपनी जाति वाले की ही हत्या की है तो वैसा कौन सा बुरा काम कर दिया, जाति के ‘मान-सम्मान’ से दगा करने वाले ‘जयचंदों’ को ऐसी सजा तो एक न एक दिन मिलनी ही थी, अगवा-अपहरण के धंधे में लगा है तो क्या हुआ ये तो उसी का प्रताप और बाहुबल है जो सरकारी राशन दुकान से गेहूं-चावल, गैस की एजेंसी से सिलेंडर और बेटी की सगाई या ब्याह के वक्त कम सूद पर कर्ज, विधवा-पेंशन, वृद्धा-पेंशन और महामारी के समय चल रही खूब मारामारी के बीच अस्पताल में दाखिला मिल जाता है!

किसी के अपराध कर्म की हवा उड़ी नहीं कि लोग उससे भय खाने के पहले मुकाम को पार करते हुए अपनी विशिष्ट और वंचित सामाजिक स्थितियों के कारण उसे ताकत का प्रतीक, स्वजाति का शहंशाह, मजबूरों का मददगार, आड़े वक्त में काम आनेवाला व्यक्ति या फिर खूब ऊंचे तक पहुंच वाला ऐसा आदमी समझने लगते हैं जिसके आगे वक्त-जरूरत हाथ पसारा जा सकता है। अंग्रेजी में कहें तो रॉबिनहुड समझने लगते हैं। ऐसे में जातिगत-धर्मगत पहचानों को पोसते हुए कोई अपराधी बेखटके अपराध-कर्म कर सकता है और समान रुप से अपने समुदाय का दुलरुआ बनकर राजनीति में ‘दूल्हा’ भी बन सकता है क्योंकि पार्टियां महंगे होते जा रहे चुनावों में सिर्फ ये ही नहीं देखतीं कि कौन सा टिकटार्थी कितने पैसे खर्च कर सकता है, वे ये भी देखती हैं कि किसी टिकटार्थी की लोगों में नाम-पहचान किस हद तक है।

हालांकि सभी दल और प्रत्याशी कहते हैं कि उनके ऊपर राजनीतिक रंजिश की वजह से झूठे मुकदमे किए गए। इसमें एक हद तक सच्चाई भी रहती है। कवि-पत्रकार मुकुल सरल कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि पहले राजनीति का अपराधीकरण हुआ और फिर अपराधियों का राजनीतिकरण। यही वजह है कि आज हमें सभी दलों में ऐसी पृष्ठभूमि के लोगों का बोलबाला दिखाई देता है। लेकिन अपराध और आपराधिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते समय इस पक्ष का भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी व्यक्ति या प्रत्याशी पर कितने मुकदमे जनता के हित में धरना, प्रदर्शन या बंद करते समय लाद दिए गए। कितने सत्ता को चुनौती देते हुए या फिर जाति या वर्ग के वचर्स्व से टकराते समय सबक सिखाने की मंशा से थोप दिए गए। हमें यह भी देखना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने इस तरह की राजनीति या कार्रवाई से कितना पैसा बनाया, कितना जोखिम कमाया। यानी उसकी लड़ाई कितनी स्वार्थ की लड़ाई है और कितना जनता की।

मुकुल सरल पूछते हैं कि अभी भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद या डॉ. कफ़ील ख़ान चुनाव लड़ने लगें तो उनके लिए क्या कहा जाएगा, क्योंकि उनके ऊपर तो राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) और देशद्रोह तक के मुकदमे लग चुके हैं। ऐसे ही बहुत से जाने-पहचाने समाजसेवी यूएपीए के तहत मुकदमे झेल रहे हैं। प्रदर्शन में शामिल होने पर दंगा का आरोप लगाते हुए पोस्टर तक चिपका दिए जाते हैं। किसी पीड़िता के घर उसका हाल पूछने जाने पर भी किसी को नक्सली कह दिया जाता है। और बहुत लोग आंखों के सामने मस्जिद गिराकर, अपने अभियान से देश को दंगों की आग में झोंककर भी बरी हो जाते हैं। ये सब हमारे सामने की घटनाएं हैं।

हमारी राजनीति का ये कटु सच है कि समय विशेष पर विपक्ष के नेताओं पर सैकड़ों केस लाद दिए गए और सत्ता में आते ही अपने लोगों के कितने जघन्य कांड भी माफ़ कर मुकदमे वापस ले लिए गए। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसके ताज़ा उदाहरण हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने ऊपर से मुकदमे हटाने का आदेश दे दिया। जबकि उनके ख़िलाफ़ एक ट्वीट करने तक पर गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। और बिहार का संघर्ष तो सब जानते हैं। अभी चुनाव से ऐन पहले राजद नेता तेजस्वी यादव और उनके भाई तेज प्रताप के ऊपर उन्हीं के पार्टी के एक कार्यकर्ता की हत्या की साज़िश रचने का केस दर्ज हुआ है।

शायद यही सब वजह भी कि आम व्यक्ति या मतदाता इन सब ब्योरों पर बहुत ध्यान नहीं देता और इस वजह से वास्तव में ख़राब और अपराधी किस्म के लोग भी नेता बन जाते हैं, चुनाव जीत जाते हैं।  

महात्मा गांधी कहते थे, सच्चा लोकतंत्र किसी व्यक्ति को स्वयं के बूते सोचने के शक्ति प्रदान करता है। हमारा लोकतंत्र अपने सभी नागरिकों को स्वयं के बूते सोचने की ताकत मुहैया नहीं करा पाया। नागरिक होने के नाते गरिमापूर्वक जीवन जीने की जो चीजें (रोटी, कपड़ा,मकान, सेहत, शिक्षा, आवास आदि) हमें सहज हासिल हो जानी चाहिए थीं, वो आज दिन तक अधिसंख्य लोगों के लिए एक न एक अर्थ में मुहाल है। हम इन्हीं चीजों के लिए बाहुबलियों की तरफ देखते हैं। ‘समरथ को नहीं दोष गोसाईं’ के भाव से सोचने वाले हमारे समाज में इसीलिए ए भैया और वो भैया कहकर पुकारे जाने वाले लोगों की खूब चलती है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला धरा का धरा रह जाता है।

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