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भारत
राजनीति
बिहार चुनाव: मोदी ने किया बीजेपी की दुरंगी चाल और महत्वाकांक्षा का खुलासा  
रैलियों को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने जहाँ बिहार में पिछले 3-4 सालों में हुए ‘अच्छे-कामों’ के लिए खुद को इसका क्रेडिट दिया है, वहीं नीतीश कुमार के बाकी के कार्यकाल को ‘कचरा’ करार दिया है।
सुबोध वर्मा
25 Oct 2020
bjp

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोहतास, गया और भागलपुर में तीन चुनावी सभाओं को संबोधित करने के साथ बिहार में अपने बहुचर्चित चुनावी अभियान की शुरुआत कर दी है। राज्य में चुनाव प्रचार को लेकर मोदी की एंट्री का सत्तारूढ़ दल जनता दल (यूनाइटेड)-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन द्वारा बड़ी बेसब्री के साथ इन्तजार किया जा रहा था, क्योंकि बदहाल आर्थिक हालात के चलते बिहार में उसे हर तरफ बेहद असंतोष का सामना करना पड़ रहा था। इसके बावजूद पीएम की रैलियों ने दो नेताओं के बीच की असामान्य दृष्टि का खुलासा किया है, जिसमें वे जन-आकांक्षाओं के प्रति अधिकाधिक अनभिज्ञ नजर आये और इसी वजह से चुनावी अभियान में जोरदार शुरुआत दे पाने में विफल रहे।

लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाली चीज रोहतास जिले के डेहरी-आन सोन वाली ठीक पहली रैली में ही देखने को मिली है, जोकि बिहार के विऔद्योगीकरण के जीते-जागते स्मारक के तौर पर दक्षिण-पूर्व में विद्यमान है। मोदी ने बीजेपी की बेलगाम महत्वाकांक्षा के साथ-साथ घमण्ड का खुलासा इस तथाकथित दावे के साथ करने का काम किया कि उनकी पार्टी के लम्बे समय से सहयोगी नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री के तौर पर पहले 10 वर्षों का कार्यकाल किसी काम का नहीं रहा। यह तो सिर्फ उनके (मोदी) प्रधानमंत्री बनने (और जेडी-यू के नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस या एनडीए की जद में आने) के बाद से ही राज्य में अच्छा काम संभव हो सका है।

“इन तीन से चार सालों में जबसे मैंने नीतीश कुमार के साथ काम किया है, आप सबने देखा होगा कि कैसे परियोजनाएं अपनी सामान्य चाल की तुलना में तीन से चार गुना तेजी से आगे बढ़ी हैं...कैसे विकास कार्यों को कुछ जगहों पर पाँच गुना तेजी से चलाया जा रहा है” मोदी ने कथित तौर पर इसका  दावा किया।

इस बेहद विचित्र विश्लेषण में कहीं न कहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की समालोचना निहित थी, जिसने 2014 से पहले तक केंद्र पर शासन किया था। मोदी का कहना था कि यूपीए ने नीतीश कुमार को कुछ भी काम कर पाने की इजाजत नहीं दी थी।

सुनने में शायद यह विचित्र न लगे क्योंकि मोदी और नीतीश दोनों ही कांग्रेस को लेकर शुरू से ही ओब्सेस्ड रहे हैं और साथ ही तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के प्रति भी, जिन्हें 2005 में नीतीश द्वारा सत्ताच्युत कर दिया गया था। लेकिन अपने ही सहयोगी को बकवास करार देना, जो उनके भाषण के दौरान भी उसी मंच को साझा कर रहे हों, को समझने के लिए कुछ और व्यख्या करने की मांग करता है।

सनद रहे कि मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के नेतृत्व में पिछले कुशासन के बरअक्स अपने पिछले 15 वर्षों के सुशासन के दावों को हर सभा में दोहराते रहने का काम किया है।

यहाँ पर मोदी ने नीतीश के मुहँ पर ही इस बात का खंडन कर डाला, लेकिन थोड़ा घुमा-फिराकर कहा- और अच्छे कामों के लिए अपनी खुद की पीठ थपथपाई। इस सबका क्या निहितार्थ है?

मोदी बिहार में बीजेपी को नंबर-1 पर देखना चाहते हैं 

बीजेपी पिछले 25 वर्षों से नीतीश कुमार के जूनियर पार्टनर के बतौर रही है। पिछले चुनाव में 53 सीटों के साथ इसकी बुरी गत बनी थी। लेकिन नीतीश कुमार को यह एक बार फिर से लुभाने में कामयाब रही और जनादेश को धता बताकर यह एक बार फिर से पिछले दरवाजे से 2017 में सत्ता में काबिज होने में सफल हो गई। हालाँकि मोदी, अमित शाह एवं संघ परिवार के लिए यह स्थिति कोई संतोषप्रद नहीं थी। वे बिहार पर राज करना चाहते हैं, हिंदी ह्रदयस्थल राज्यों में वह अंतिम राज्य जहाँ अपने बल-बूते पर वे अभी तक शासन पर काबिज होने में असमर्थ रहे हैं।

इस बात को भांपते हुए कि बिहार में नीतीश कुमार के कुशासन के चलते हवा का रुख बदल रहा है, ऐसा लगता है कि बीजेपी ने इस चुनाव में दुधारी खेल खेलने का फैसला ले लिया है। इस चुनाव को वह जेडी-यू के साथ गठबंधन में लड़ रही है, लेकिन साथ ही साथ उसकी कोशिश नीतीश कुमार के कद को छोटा करने और खुद की बढ़त बना लेने को लेकर बनी हुई है।

नीतीश कुमार को भी इस बात का एहसास है कि इस बार का चुनावी संग्राम बेहद कठिन है लेकिन विकल्पहीनता की स्थिति में उनके पास बीजेपी के साथ गठबंधन में जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। यही कारण है कि सीटों के बँटवारे में बीजेपी के खाते में 121 और जेडीयू के खाते में 122 सीटें आई हैं। नीतीश कुमार के मामले में यह अभूतपूर्व गिरावट है, क्योंकि पिछले चुनाव में बीजेपी मात्र 53 सीटें ही जीत सकी थी। इस सबके बावजूद वह उन्हें कुल जीती हुई सीटों के दुगुने से भी अधिक देने को राजी हो गई।

बीजेपी ने भी स्पष्ट तौर पर अपने एनडीए सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को सिर्फ जेडी-यू के खिलाफ ही चुनावी जंग में उतरने के लिए खड़ा किया है। हाल ही में एलजेपी नेता राम विलास पासवान के निधन के बाद से उनके बेटे चिराग पासवान ने जहाँ पीएम मोदी के प्रति अपनी निष्ठा को बार-बार दोहराया है लेकिन वहीं दूसरी तरफ नीतीश कुमार को हराने की कसम खाई है। हालाँकि बीजेपी के शीर्षस्थ नेतृत्व ने एलजेपी के साथ किसी भी प्रकार के ‘गुप्त समझौते’ की बात से इंकार किया है, लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। इस चुनाव में एलजेपी सिर्फ जेडी-यू के खिलाफ ही अपने उम्मीदवारों को खड़ा कर रही है, जिसके चलते अंतिम सीटों की गिनती के दौरान नीतीश कुमार के हिस्से में कम सीटों का खतरा उत्पन्न हो गया है।

इस सन्दर्भ में पीएम मोदी का यह ऐलान कि बिहार में पिछले तीन-चार वर्षों में किसी भी अच्छे काम के पीछे उनका (और बीजेपी का) हाथ रहा है, से मंतव्य स्पष्ट हो जाता है। मोदी एक तरह से मतदाताओं से कह रहे हैं: गलती यदि कहीं है तो वह कांग्रेस और लालू यादव में है, और शायद खुद नीतीश में है, लेकिन अभी भी बीजेपी आपके रक्षक के तौर पर मौजूद है। उनका मकसद इस संकट की घड़ी में बीजेपी को बिहार के सबसे बड़े दल के तौर पर अवसर में तब्दील करने में है।

अपने कार्यकाल को इस प्रकार से कूड़ेदान में फेंक दिए जाने का जवाब नीतीश कुमार कैसे देते हैं यह तो अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाने वाला है। या हो सकता है कि वे किसी विकल्प के अभाव में इसे यूँ ही गुजर जाने दें। लेकिन बिहार के मतदातों के लिए तो लोह दस्ताने उछाल ही दिए गए हैं।

मोदी का अंतिम दांव

हालाँकि मोदी इस दाँव के पीछे के गंभीर जोखिम का अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं। यह सब उनकी व्यक्तिगत अचूक अभेद्यता एवं अपील की धारणा पर टिका हुआ है। यह सब तब काम करता अगर वे और उनकी पार्टी सुशासन की वजह से लोगों के बीच में लोकप्रिय और विश्वसनीय बने रहते। लेकिन मामला इससे कोसो दूर है।

अरुणाचल प्रदेश को छोड़ दें तो बीजेपी ने पिछले कुछ वर्षों में हुए 18 विधानसभा चुनावों में से एक भी नहीं जीता है। इसने सीधे-सीधे छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे कई बड़े प्रदेशों में हार का स्वाद चखा है। चुनाव के बाद इसके सहयोगी शिवसेना ने इसका साथ छोड़ दिया और अब महाराष्ट्र में यह विपक्ष के पद पर आसीन है। वहीं हरियाणा में सत्ता में बने रहने के लिए इसे एक क्षेत्रीय दल के साथ समझौते में जाना पड़ा है, जबकि कर्नाटक और उसके बाद मध्य प्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए इसे सत्तारूढ़ दलों में विभाजन तक कराना पड़ा है। उत्तर पूर्व में यह किसी न किसी क्षेत्रीय दल के सहारे सत्ता की सवारी गाँठने को मजबूर है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच में स्पष्ट अंतर करके देखते हैं। राज्यों में बीजेपी के कामकाज को देखते हुए उसे बुरी तरह से इसकी सजा मिल रही है। केंद्र में भी यदि विकल्प मौजूद होता तो यहाँ पर भी उसे इसी प्रकार का इनाम मिलता।

बिहार में खासतौर पर लोग गुस्से में हैं और उनका मोहभंग अपने चरम पर है। भयानक लॉकडाउन की स्थिति में ढील दिए जाने के बाद भी बेरोजगारी लगभग 12% के अपने उच्चतम स्तर पर दौड़ रही है। राज्य में कोरोनावायरस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, जबकि यहाँ की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहद जर्जर हालत में बनी हुई है।

आवश्यक वस्तुओं की कीमतें, खासकर सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं। लगातार जारी उपेक्षा के बीच किसान बेहद गुस्से में हैं। बिहार के विऔद्योगीकरण ने इसे प्रवासन-आधारित अर्थव्यवस्था में तब्दील कर डाला है। इसके साथ ही भ्रष्टाचार और अपराध जैसे विषय, जोकि नीतीश कुमार के पसंदीदा मुद्दे हुआ करते थे और जिनके बारे में उनका दावा था कि इन्हें प्रभावी तौर पर समाप्त कर दिया गया है, आज एक बार फिर से अपने उफान पर हैं।

यह स्थिति न सिर्फ नीतीश कुमार के लिए बल्कि उनके सहयोगी दल बीजेपी के लिए भी शुभ संकेत नहीं कही जा सकती है। इसलिए मोदी के विचार में इस सबके लिए मतदाता सिर्फ नीतीश कुमार को ही जिम्मेदार ठहराएंगे, और उनके जूनियर पार्टनर बीजेपी को सभी आरोपों से बरी कर देंगे, जो कि इतने वर्षो से उसके पीछे लटकन बनी फिर रही थी, निरा भोलापन है।

शायद मोदी जोखिम भरे खेल को खेलना पसंद करते हों। या, हो सकता है यह आखिरी पासा फेंका जा रहा हो, गोया अंधे के हाथ बटेर लग जाने को चरितार्थ करने वाला एक नाकाम दाँव ही सही।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Bihar Elections: Modi Reveals BJP’s Double Game – And Ambition for Power

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