NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
एलजेपी में टूट : रफ़्तार के बाद आये सामाजिक ठहराव को थामे रखने की सियासी कोशिश!
अपने स्वतंत्र वजूद के लिए छटपटाती दलित और अति पिछड़ी जातियां दोनों तरफ़ से ताक़तवर जातियों की राजनीतिक दीवारों से घिरी हुई हैं। इन दीवारों को पता है कि संख्या की ताक़त से सियासी दीवारें गिरने में देर नहीं लगतीं। लिहाज़ा हर तरफ़ से कोशिश यही है कि इन अति पिछड़ी जातियों और दलितों को इन्हीं मज़बूत दीवारों के खंभे बना दिया जाय।
उपेंद्र चौधरी 
15 Jun 2021
पशुपति कुमार पारस लोकसभा में एलजेपी के नेता बन गए हैं। स्पीकर ने उन्हें मान्यता दे दी है। (फाइल फोटो)
पशुपति कुमार पारस लोकसभा में एलजेपी के नेता बन गए हैं। स्पीकर ने उन्हें मान्यता दे दी है। (फाइल फोटो)

इसमें संदेह नहीं है कि ग्रामीण भारत में ग़ैर सवर्णों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान हुआ है। यह मामूली उत्थान सामाजिक न्याय के लिए लड़ी गयी लड़ाई की एक लम्बी श्रृंखला का परिणाम है। भले ही बिहार में इस नतीजे का सेहरा लालू प्रसाद यादव के सर जाता हो, लेकिन ऐतिहासिक तौर पर वहां तक पहुंचने में लड़ी गयी लड़ाइयों की एक समृद्ध परंपरा रही है। लालू प्रसाद इसी परंपरा के कई नायाब कड़ियों में से एक हैं।

मगर, लालू प्रसाद यादव ने जब इस परंपरा के बीच उसी वंशवाद का बैरिकेड लगाकर सामाजिक न्याय को अपने परिवार के हित में साधने की क़वायद की, तो नीतीश कुमार ग़ैर-यादव ग़ैर-सवर्णों की उम्मीद के तौर पर सामने आये। हालांकि, लालू और नीतीश उन जातियों से आते हैं, जो पहले से ही आर्थिक रूप से सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों की अगुवा रही हैं। इसका अंदाज़ा दशकों से विधानसभा की कुल क्षमता में यादवों के प्रतिशत से पता चलता है।

यादवों और कुर्मियों का हुक्का-पानी सवर्णों के साथ हमेशा से अबाध रहा है। लिहाज़ा उनकी समाजिक हैसियत भी उतनी बुरी नहीं रही थी, जितनी कि बाक़ी पिछड़ी जातियों की रही है। यादवों के साथ कोयरी-कुर्मियों और बाक़ियों के बीच का सामाजिक-आर्थिक फ़ासला गांव में आज ज़्यादा विज़िबल है। सवर्णों के साथ यादव और कोयरी-कुर्मी, दोनों आज गांवों में दबंग जातियों में शुमार हैं।

सवर्णों के अलावा इन दोनों के शिकार भी दलित और बेहद पिछड़ी जातियां, आदिवासी और पसमांदा मुसलमान होते रहे हैं। यह ज़िक़्र ज़रूरी है कि 1977 के बेलछी नरसंहार के पीछे कुर्मियों का हाथ था और मरने वालों में 8 पासवान और 3 सोनार थे। उस समय केन्द्र में पिछड़ों के सामाजिक न्याय के सैनिकों, हिंदुत्व के झंडा-बरदारों और आपातकाल के मुख़ालफ़त करने वालों की कॉकटेल, जनता पार्टी की सरकार थी। मगर, जो आपातकाल दलितों और अति पिछड़ों पर क़ायम था, वह आज भी बदस्तूर है।

चिराग पासवान और पारस पासवान के बीच की रस्साकशी को इसी ऐतिहासिक और सामाजिक प्रवाह की गति में देखा जाना चाहिए। बिहार में इस समय सवर्ण समर्थिक बीजेपी और ताक़तवर ‘पिछड़ी जाति’ की शासन वाली सरकार है। विपक्ष में बिहार का ताक़तवर सियासी परिवार और बेहद ताक़तवर पिछड़ी जाति वाली पार्टी है। ऐसे में अति पिछड़ी जातियां और दलित ‘डगरे के बैगन’ बन गयी हैं। अपने स्वतंत्र वजूद के लिए छटपटाती ये जातियां दोनों तरफ़ से ताक़तवर जातियों की राजनीतिक दीवारों से घिरी हुई हैं। इन दीवारों को पता है कि संख्या की ताक़त से सियासी दीवारें गिरने में देर नहीं लगतीं। लिहाज़ा हर तरफ़ से कोशिश यही है कि इन अति पिछड़ी जातियों और दलितों को इन्हीं मज़बूत दीवारों के खंभे बना दिया जाय। लोक जनशक्ति पार्टी में टूट को इसी खंभे बनाने की क़वायद  के तौर पर देखा जाना चाहिए। पारस को सवर्णों, ताक़तवर पिछड़ों की तरफ़ से अपने-अपने पाले में करने की इस क़वायद को भी इन्हीं संदर्भों में देखा जाना चाहिए। 

मगर, अति पिछड़ी जातियों और ख़ासकर दलितों की आकांक्षायें करवट ले रही हैं। जिस तरह वामपंथी पार्टियां ‘टैक्टफुल’ होने के नाम पर अक्सर उन पार्टियों का समर्थन करती रही है, जिनके कुछ रंग प्रगतिशील विरोधी और अतार्किक रहे हैं। ऐसा दलितों की अगुवाई करने वाली पार्टियां कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़कर करती रही हैं। जिस तरह कुछ सालों तक राजनीतिक फ़लक पर चमकने वाली वामपंथी पार्टियां ‘टैक्टफुल’ रणनीति अपनाते-अपनाते उसी जाति व्यवस्था में खपती चली गयी हैं, जिसके ख़िलाफ़ उन्हें लड़ना था, उसी तरह का शिकार दलितों की अगुवाई करने वाली पार्टियां भी होती रही हैं। दोनों के बीच का ख़ास फ़र्क़ यह है कि वामपंथी पार्टियां जहां वंचितों के उत्थान की उम्मीद में ख़ुद को खपाती रही हैं, वहीं दलितों की अगुवाई करने वाली पार्टियां सियासत के संस्कृतिकरण का शिकार होती रही हैं।

इंटेलेक्चुअल से इनपुट लिया जा सकता है, मगर इंटेलेक्चुअल के बूते ज़मीन की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। ज़मीन पर तो बस कार्यकर्ता लड़ते हैं। लम्बी लड़ाई इन्हीं कार्यकर्ताओं से बनते संगठनों और इन संगठनों के बूते कार्यकर्ताओं के बीच से तैयार होते नेतृत्व के ज़रिये लड़ी जाती है। इसका जीता जागता उदाहरण बीजेपी है। एक लम्बी और सधी हुई रणनीति से शून्य से शिखर तक का सफ़र कैसे तय किया जाता है, बीजेपी का विरोधी होने के बावजूद बाक़ी पार्टियों को बीजेपी से सीखना चाहिए।

सच्चाई है कि पारस ने उस ज़मीन का इस्तेमाल किया है, जिसे रामविलास पासवान ने तैयार किया था। रामविलास के बाद उस ज़मीन पर लगातार चिराग पासवान नज़र आते रहे हैं। चिराग दलितों की नयी पीढ़ी को इस बात का भरोसा दिलाते हैं कि दलितों के बच्चे भी सधी हुई अंग्रेज़ी और हिंदी, दोनों बोल सकते हैं, सवर्णों, कुर्मियों और यादवों की तरह, और कई बार तो उनसे भी ज़्यादा स्मार्ट नज़र आ सकते हैं; सत्ता की गलियारों में पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़े नज़र आ सकते हैं; चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से अपनी सामाजिक-सियासी वजूद की धमक भी दे सकते हैं। दरअस्ल, यही वह चुनौती है, जो जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी को डराती है। यह बात भी ठीक है कि चिराग उसी सियासी वंश परंपरा से आते हैं, जो लोकतंत्र को कमज़ोर करती है। लेकिन, इस लोकतंत्र से कहीं ज़्यादा कमज़ोर वे दलित जातियां हैं, जिन्हें व्यवहार में वह न्यूनतम नागरिकता भी हासिल नहीं है,जो कि लोकतंत्र का व्यवहार में उतरने के लिए ज़रूरी है।

दलितों को अभी लम्बा सफ़र तय करना है और इस सफ़र में अगर चिराग पासवान जैसे कुछ नौजवान सामने आते हैं, तो दलितों के सियासी आंदोलन इससे मज़बूत होंगे। आंदोलन हमेशा वंचितों के ज़रिये शोषक ताक़तों के ख़िलाफ़ होता है,ताकि उन जातियों में एक बडा सामाजिक मध्यमवर्ग इसलिए तैयार हो सके, ताकि उनकी मौजदूगी बाक़ियों के बीच उसी धमक के साथ दिखे।इससे बराबरी की एक गूंज सुनायी देती है।

अभी तो यह लड़ाई जातिगत है, क्योंकि ख़ास जाति होने की वजह से कई पीड़ायें झेलनी होती हैं, आर्थिक लड़ाई इसके बाद की कड़ी है, जो आने वाले दिनों में स्वाभाविक लड़ाई में बदल जायेंगी और इसमें तब जातियां नहीं,बल्कि वर्ग शामिल होंगे हैं। मगर,भारत में दमित-शमित जातियों-जनजातियों के बीच वर्ग का स्पष्ट विभाजन अब भी एक दूर की कौड़ी है,क्योंकि ये जातियां ही अपने आप में वर्ग हैं।इस वर्ग में भी कई वर्ग हैं। मगर जातियों के बीच यह वर्गगत अंतर इतना बारीक़ है कि वहां आंतरिक संघर्ष की ग़ुंजाइश बहुत कम है,बल्कि बड़ी ताक़त से लड़ने का उनमें एक समन्वित भाव है।

जो लोग इस बात से ख़ुश हो रहे हैं कि चिराग तले अंधेरा हो गया है, तो उन्हें यह बात भी ध्यान रखना होगा कि अंधेरा जब घनीभूत होता है, तो रौशनी वहीं से फूटती है। दलितों के लिए इस रौशनी के इंतज़ार से कोई ताक़त ऐसी सामने आनी चाहिए, जो आदिवासियों और मुसलमानों की बीच से उन अतिपिछड़े मुसलमानों को साथ लेकर चलने का माद्दा रखती हो, जिनकी हैसियत सवर्ण मुसलमानों के बीच दलितों जैसी इसलिए है,क्योंकि इनका धर्मांतरण दलितों के बीच से हुआ था।उन्हें अपने नये धर्म में नयी धार्मिक पहचान तो मिल गयी,लेकिन यहां भी वे अपनी सामाजिक हैसियत नहीं बदल पाये।

पिछले कुछ दशकों से हिंदू सवर्ण,सवर्ण मुसलमान और ताक़तवर पिछड़ी जातियां अपने ख़ुद के ख़िलाफ़ लड़ने वाली ताक़त को घनीभूत होने से हमेशा रोकते रहे हैं। इसके लिए तरह-तरह के सियासी पैंतरे आज़माये जाते रहे हैं। लिहाज़ा इनके हाथ में वंचितों की अगुवाई की डोर से वंचितों की संभावनायें खोखली होती हैं। इस समय जो संघ के ढांचे के भीतर से बीजेपी की अगुवाई में एक सामाजिक ठहराव दिख रहा है,उस ठहराव की ज़मीन को तोड़ने का माद्दा भी इसी ताक़त में निहित है।जैसे-जैसे दलितों-आदिवासियों और मुसलमानों के भीतर निम्न जातियों के बीच गोलबंदी की रफ़्तार बढ़ेगी,वैसे-वैसे सियासी-सामाजिक और अंतत: आर्थिक ठहराव भी टूटेगा। एलजेपी पहले दबंग पिछड़ी जातियों के साथ रही, फिर सवर्ण समर्थित उस पार्टी के साथ आ गयी, जिसका मक़सद चार वर्णों की व्यवस्था को बनाये रखना है। ऐसे में एलजेपी में हो रही यह टूट भले ही नीतीश के बदले का तात्कालिक नतीजा दिखे, मगर इस टूट में वह सियासी संदेश भी निहित है कि चाहे जैसे भी हो, बिहार में दलितों को बाक़ियों के ख़िलाफ़ एक ताक़त बनने से रोका जाये, क्योंकि ऐसा करके ही मौजूदा सामाजिक-सियासी ठहराव को थामा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Chirag Paswan
Pasupati Paras
RAM VILAS PASWAN
BIHAR POLITICS
LJP
Nitish Kumar
NDA

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बिहार : दृष्टिबाधित ग़रीब विधवा महिला का भी राशन कार्ड रद्द किया गया

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : सुप्रीम कोर्ट ने कथित शिवलिंग के क्षेत्र को सुरक्षित रखने को कहा, नई याचिकाओं से गहराया विवाद

बिहार : सरकारी प्राइमरी स्कूलों के 1.10 करोड़ बच्चों के पास किताबें नहीं

बिहार : गेहूं की धीमी सरकारी ख़रीद से किसान परेशान, कम क़ीमत में बिचौलियों को बेचने पर मजबूर

बिहारः मुज़फ़्फ़रपुर में अब डायरिया से 300 से अधिक बच्चे बीमार, शहर के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती

कहीं 'खुल' तो नहीं गया बिहार का डबल इंजन...

बिहार: नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने समान नागरिक संहिता का किया विरोध


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License