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भारत
राजनीति
बिहार के दो पंचायत क्षेत्रों के चुनावी दांवपेच और भावुकता की कहानी
संसद और विधायकी के चुनावी माहौल पर बहुत ज्यादा बहस होती है लेकिन पंचायती चुनाव के माहौल पर बहुत कम। तो चलिए बिहार के दो पंचायत क्षेत्रों के चुनावी माहौल को भांपने की कोशिश करते हैं।
अजय कुमार
07 Dec 2021
chunav

पंचायती चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि लोग पंचायती चुनाव में पार्टियों की बात नहीं करते। प्रत्याशियों की बात करते हैं। प्रत्याशियों पर चर्चा करते हैं। 

भारत के संविधान की मूल भावना भी यही कहती है कि प्रत्यक्ष चुनावों के जरिए होने वाले चुनाव में प्रत्याशियों पर चर्चा की जाए। लेकिन केंद्र और राज्य के चुनाव में प्रत्याशियों की बजाए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पद पर ज्यादा चर्चा होती है। जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक का पूरा संसदीय चुनाव का कुनबा एक प्रधानमंत्री पद के व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। इस एक मायने में जहां पर क्षेत्रीय और केंद्रीय पार्टियां पंचायती चुनाव में हस्तक्षेप नहीं कर रही हैं, वहां यह फायदा साफ-साफ दिखता है कि लोग पार्टियों की बजाए प्रत्याशियों पर चर्चा करते हैं। मैंने ऐसे ही बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के दो पंचायती क्षेत्र- जोगिया पंचायती क्षेत्र और दौनहा, जहां पर केंद्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के उम्मीदवार नहीं थे, उनका मुआयना किया। 

इन दो पंचायती क्षेत्र के लोगों से बातचीत करने पर इसके अलावा पंचायती चुनाव से एक और सकारात्मक बात नजर आई। जब मैंने लाठी के सहारे बुढ़ापे को काट रहे लोगों से यह पूछा कि पहले के पंचायती चुनाव में और आज के पंचायती चुनाव में क्या अंतर है? तो अधिकतर लोगों का जवाब था कि "पहले कहां यह सब तामझाम होता था? ना माइक था। ना गाड़ी थी। ना पोस्टर था। बाबू साहेब के गांव के कुछ लोग खड़ा हो जाते थे। गांव-गांव में घूमकर हाथ खड़ा करके वोट दिया जाता था। अब वह जमाना बदल गया। अब तो मेहरारू (औरतें) खड़ा हो रही हैं। चमार, मुशहर सब खड़ा हो रहा है। बताइए मियां साहब की लड़की बीडीसी में चुनाव लड़ रही हैं। पंडित जी की पतोहू खड़ी है। क्या ई सब कभी किसी से बात करेंगी। घर का इज्जत दांव पर लगाकर चुनाव लड़ रहे हैं सब।"

बुजुर्ग लोगों की बातें भले ही ठीक ना हों। लेकिन बातों से मिली जानकारी पंचायती चुनाव की एक छोटी सी सफलता का जिक्र करती है कि वंचना के शिकार समुदाय इन चुनावों में बड़ी धीमी गति के साथ ही सही मगर आगे आ रहे हैं। इसके अलावा भी पंचायती चुनाव से जुड़ी ढेर सारी सकारात्मक बातें हो सकती हैं। लेकिन बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में पड़ने वाले दो पंचायती क्षेत्र के लोगों से बातचीत करने के बाद पंचायती चुनाव से जुड़ी मुझे यह दो सकारात्मक बातें नजर आईं। बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के जोगिया पंचायत क्षेत्र में पंचायत चुनाव संपन्न हो चुका है। लेकिन दौनहा पंचायत क्षेत्र में पंचायत चुनाव जारी है। 12 दिसंबर को संपन्न होगा। इन दो क्षेत्रों के लोगों से बातचीत करने के बाद पंचायती चुनाव के बारे में जो प्रवृतियां निकल कर आई है, उन्हें इस लेख के जरिए आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।

हजामत के पेशा के सहारे मुश्किल से अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले धनंजय पिछले 2 महीने से कह रहे थे कि वह अबकी बार वार्ड सदस्य का चुनाव लड़ेंगे। लेकिन अचानक से पर्चा दाखिला के 15 दिन पहले वह कहने लगे कि अपना इंतजाम हो गया अब चुनाव नहीं लड़ना है। पैसा मिल गया है। बैठ जाना है। इस पर मैंने कहा यह तो अजीब है। ऐसा नहीं करना चाहिए। तो उनका जवाब था कि ऐसा सब करते हैं। चुनाव ही तो कमाने का सीजन है। कौन नहीं करता है? प्रत्याशी बनने से पहले कम से कम 5 लोगों को बैठाने का इंतजाम करना पड़ता है। कभी कभार तो ऐसा होता है कि आस पड़ोस के ही लोग आपस में भिड़ जाते हैं। खड़ा होने से पहले आसपास का कचरा हटाना पड़ता है तब खड़ा हुआ जाता है। गौर करके देखिए जो खाद की दलाली करता है, अनाज की दलाली करता है, जिसका आना-जाना ब्लॉक कर कचहरी में लगा हुआ है। वह सब पहले आपस में इस बात का इंतजाम करके कि चुनाव जीतने के बाद किस को क्या मिलेगा? कैसे मिलेगा? तब किसी को लड़ने और सपोर्ट करने के लिए तैयार होते हैं। नहीं तो इतना खूरपेंच होगा कि पूछिए मत। गांव का पंचायती चुनाव है, इसे कम मत समझिए। हवा गुल हो जाती है।

खूरपेंच का एक नमूना देखिए। जोगिया पंचायत क्षेत्र में मुखिया प्रत्याशी के तौर पर तीन ऐसे लोग खड़े हुए जिनका रिश्ता तकरीबन 30 साल पहले एक ही परिवार से था। सालों साल से अलग रहते आए हैं। लेकिन जब चुनाव लड़े तो उन तीनों के खिलाफ विरोधियों ने एक हवा बनाई कि बताइए चुनाव कितनी गंदी चीज है? परिवार के लोग इकट्ठे होकर नहीं लड़ रहे हैं. एक ही परिवार के तीन लोग खड़े हैं। जब यह इकट्ठे नहीं हो पा रहे हैं तो जनता इनके साथ कैसे इकट्ठा रह पाएगी? यह विशुद्ध तौर पर खुर पेंच था, जो चुनाव में ठीक ठाक काम कर गया। वह तीनों चुनाव हार गए। 

पंचायती चुनाव का एक और खुर पेंच देखिए। कुछ प्रत्याशियों ने गांव के बीच तीन चार ऐसे लोगों को छोड़ रखा है जिन्हें लोगों के साथ केवल इस पर बहस करनी है कि "अमुक उम्मीदवार का तो वोट ही नहीं है, गिनकर सौ वोट भी नहीं मिलेगा, हार रहा है, गांव वाले ही वोट नहीं देंगे"। इसे एक तरह से रणनीति भी कह सकते हैं। यह रणनीति भी ढंग से काम कर जाती है। अधिकतर लोग यही सोचकर वोट देते हैं कि जो जीत रहा है उसे जिताया जाए। इसी मनोभाव पर यह रणनीति हमला करती है। जोगिया पंचायत क्षेत्र के एक उम्मीदवार ने तो खुलकर बताया कि उसके खिलाफ कई लोगों ने ऐसा काम किया।

जोगिया पंचायत क्षेत्र भारत के उन चंद पंचायत क्षेत्रों में से एक है जहां पर मुस्लिमों की आबादी हिंदुओं के मुकाबले अधिक है। इसलिए अगर कोई रिसर्चर चाहे तो इस पंचायत पर अच्छा खासा रिसर्च कर सकता है। भारत में हिंदुत्व की राजनीति का असर मुस्लिमों पर क्या पड़ा है? यह जानने के लिए यह एक बहुत उचित पंचायत क्षेत्र हो सकता है? यहां पर साइकिल बनाने वाले इदरीश नाम के 50 साल के व्यक्ति से अच्छी खासी बातचीत हुई। उन्होंने कहा कि उनकी दुकान पर दूर-दूर से लोग साइकिल बनवाने आया करते थे। उनके नाम और काम का असर पहले से अब कम हुआ है। उनके मन को थाहते हुए लंबी बातचीत एक मुकाम पर पहुंची तो उन्होंने खुलकर कहा कि हम प्रधानमंत्री के चुनाव में उसे वोट देते हैं जो मुस्लिमों के खिलाफ नहीं है। यही काम हम मुख्यमंत्री के चुनाव में भी करते हैं। लेकिन जहां पर हमारी संख्या ज्यादा है। हमारी तरफ से भी उम्मीदवार खड़े हो रहे हैं। उनके जीतने के चांसेज ज्यादा हैं तो साहेब आप ही बताइए अगर आप हमारी जगह होते तो किसे वोट देते? सवाल की शक्ल में मिला यह जवाब आप खुद भी अपने आप से पूछ सकते हैं कि आप इदरीश मियां की जगह होते तो किसे वोट देते?

समाजवादी विचारधारा में प्रशिक्षित और देश भर के कई आंदोलनों से जुड़ा एक नौजवान भी जोगिया पंचायत क्षेत्र में मुखिया पद का प्रत्याशी था। प्रगतिशील विचारों में सना यह नौजवान चुनाव हार गया। अपने अनुभव को इस नौजवान ने बताया कि मेरे जीवन का काफी लंबा समय आंदोलनों के साथ बिता है लेकिन फिर भी मेरे गांव वाले इस बात को ज्यादा तवज्जो देते हैं कि मेरा गांव में रहना कितना हुआ है? आप गांव में रहते हैं या गांव से बाहर? इस बात का पंचायती चुनाव में बहुत बड़ा असर पड़ता है। एक तरह से यह अच्छा है। लेकिन लोग इसे तार्किक नजरिए की बजाय भावुकता के लिहाज से अपनाते हैं। अगर तार्किक नजरिए से अपनाते तो वह मुझसे जुड़े इस तथ्य को महत्व जरूर देते कि मैंने अपने जीवन का अधिकतर समय सामाजिक कामों में बिताया है। लोगों ने केवल इस बात को महत्व दिया कि मैं अभी गांव में नया हूं। मैं बाहरी हूं। मैं लोगों को दोष नहीं देता। हमारे नागरिकों  का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत कम हुआ है। इसलिए यह केवल मेरी और इसी गांव की बात नहीं है। बल्कि हर जगह होता होगा। नहीं तो लोग बाहर से पढ़ कर आए डॉक्टर और इंजीनियर से कभी कहां पूछते हैं कि आप हमारे गांव के नहीं हैं इसलिए हमें दवा मत दीजिए, हमारी सड़क मत बनाइए। क्योंकि लोगों को पता है डॉक्टर इंजीनियर बनने के लिए काबिलियत हासिल करनी पड़ती है। लेकिन नेता बनने के लिए काबिलियत की कोई जरूरत नहीं। जिस दिन यह लोग समझ जाएंगे कि नेता बनने के लिए भी कुछ विशेष तरह की काबिलियत जरूरी है, उस दिन लोग गांव में रहना या ना रहना, जाति का होना या ना होना जैसी बातों को कम महत्व देंगे।

आपको कुछ और बातें बताता हूं। शुरुआत में मुझे लगा कि एक माइक लेकर लोगों से अपनी बात करने पर लोग बात समझेंगे। उनके हाव-भाव से लगेगा कि वह हमें पसंद कर रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे लगा कि हम संवाद ही नहीं कर पा रहे हैं। लोगों का हमारी बातों पर कम भरोसा है। हर गांव में कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनकी पकड़ आसपास के लोगों पर होती है। लोग उनकी ज्यादा सुनते हैं। इसलिए अधिकतर उम्मीदवार उन लोगों को अपनी तरफ लाने की जुगत में लगे रहते हैं।

आम लोगों से ज्यादा कुछ लोगों को इकट्ठा करने पर ज्यादा जोर दिया जाना शुरू हो जाता है। यहां पर वह पूरी तरह से हार जाते हैं जो मोलतोल नहीं कर पाते। लेन-देन का जुगाड़ फिट नहीं कर पाते। मेरे जोगिया पंचायत में तो कई लोगों ने मुझे दबी जुबान में कहा कि हिंदुओं का वोट लेने के लिए जरूरी है कि आप यह दिखाएं कि आप हिंदू हैं। यहां पर लोगों के मन में मुस्लिमों को लेकर अपनत्व है लेकिन जब मामला चुनाव का है तो घनघोर किस्म का बैर भाव है। इस बैर भाव को दिखाने पर ही आम हिंदुओं को लगता है कि मुस्लिम बहुल इस इलाके में हिंदुओं का दबदबा रहेगा। यह बहुत ही घातक बात है। पता नहीं इससे कब छुटकारा मिले।

इसके बाद बात चुनावी खर्चे पर हुई। मैंने झट से सवाल दाग दिया कि आप यह बताएं कि पंचायती चुनाव में खर्च कितना हो जाता है? उन्होंने हंसते हुए कहा कि चूंकि पंचायती, संसदीय और विधायकी क्षेत्र से छोटी होती हैं। इतनी बड़ी नहीं होती कि दिन भर चलने के बाद भी पूरा पंचायत ना घुमा जा सके इसलिए कोई चाहे तो एक मोटरसाइकिल एक माइक और जेब में दिन भर का खर्चा लेकर भी पंचायती चुनाव लड़ सकता है। लेकिन यह आदर्श स्थिति है। ऐसा बिल्कुल नहीं होता। गांव देहात का इलाका भले फिल्मों की वजह से नॉस्टैल्जिया का विषय लगता हो। लेकिन यह जगह घनघोर सामंती किस्म की जगहें होती है। अगर आप चुनाव लड़ रहे हैं और पैदल ही अपना प्रचार कर रहे हैं तो इस की ज्यादा संभावना है कि लोग आपको ज्यादा तवज्जो नहीं देंगे। 

मोटरसाइकिल की जगह बुलेट हो तो रुतबा बढ़ जाता है। आपके नाम से 3-4 बोलेरो चलें तो लोग कहते हैं कि बहुत खर्च कर रहा है। आपके साथ 10-20 लोग घूमे तो लोगों को लगता है कि बहुत दबदबा है। पर्चा दाखिल करने के बाद इन सब का चुनाव होने तक रोज ढंग से इंतजाम किया जाए तब भी दो लाख से ऊपर का खर्चा चला जाता है। यह मैं उनकी बात बता रहा हूं जो कम पैसे पर चुनाव लड़ते हैं, पैसा देकर वोट नहीं खरीदते। नहीं तो पैसा देकर वोट का जुगाड़ करने वाले तो खेत बेच देते हैं। जमीन जायदाद बेचकर चुनाव लड़ते हैं। 10-20 लाख रुपए से अधिक पैसा खर्च कर देते हैं।

दौनहा पंचायती क्षेत्र के चाय की दुकान पर सरपंच का एक उम्मीदवार गांव के एक वोटर को अपने पक्ष में वोट देने के लिए यह बता रहा था कि देखिए मेरे पास चार बोलेरो (कार) और दो ट्रैक्टर है। कोई बीमार पड़ेगा तो मेरा ही बोलेरो जाएगा। किसी की शादी होगी तो मेरा ही बोलेरो जाएगा। जिसके पास संसाधन हैं, वही मदद कर सकता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह क्या मदद करेगा? ( बात भोजपुरी में) यह बात इतनी मारके की थी कि सामने बैठे बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि सही कह रहे हैं बाबू, सरपंच बनने लायक तू ही हो।" अब सोच कर देखिए कि उस बूढ़े आदमी को कौन समझाए कि सरकार का पैसा उसका पैसा होता है। उस पर सरपंच और मुखिया का नहीं बल्कि उसका हक है। ठीक इस बात के ख़िलाफ़ जा रही एक और चर्चा सुनी। इस चर्चा में एक आदमी जोर जोर से बोल रहा था कि पिछले महीने भर से अमुक उम्मीदवार ने कपड़ा नहीं बदला है। बहुत गरीब है। उसको ही जिताना है। मैंने पलटकर पूछा कि कोई बहुत गरीब है महीने भर से कपड़ा नहीं बदलता है तो क्या उसे जीत जाना चाहिए? तो लोग हंसने लगे। कहने लगे कि वह गरीब नहीं है। लेकिन उसका कपड़ा ना बदलना लोगों के बीच प्रभाव डाल रहा है।

B.A. पास निचली जाति के मनोज राम से बात हुई। पत्रकार जान वह मुझसे बातचीत करने में दिलचस्पी लेने लगे। उन्होंने बताया कि देखिए अंबेडकर कहा करते थे कि शिक्षित बनिए, संगठित बनिए और संघर्ष कीजिए। लेकिन इस ध्येय वाक्य को कहां कोई अपनाता है। पैसा दारू और मुर्गे का जोर चुनाव पर जोर से चलता है। मैं निचली जाति का हूं। निचली जाति के लोगों के साथ रहता बैठता हूं। लेकिन हम लोग अब भी बहुत पीछे हैं। इसलिए इस इलाके में यह मान्यता भी है कि मुसहर और बीन जाति के वोट पैसा दारू और मुर्गा खिला कर ही लिया जा सकता है। ऐसा होता भी है। किसी रात चले जाइए तो वहां की औरतें यह कहते हुए मिलेंगी कि यही तो खाने कमाने के दिन है हम क्यों ना लें? ऊंची जाति के लोगों को उनके बीच जाकर सुनिए। वह आपस में यह कहते हुए मिल जाएंगे कि चुनाव की वजह से ना जाने क्या-क्या देखना पड़ेगा? चमार, मुसहर और डोम से बात करना पड़ता है। उनमें से किसी से कह दीजिए कि वह हमारे यहां खाना खा ले। तो हो सकता है कि उनमें से कोई खाना खा ले। लेकिन पांडे और चौबे टोली गांव से उसे वोट नहीं मिलेगा। वहां अलग ही किस्म का अफवाह फैल जाएगा? महाराज अब भी गांव वाले इंसानियत के चमड़े पर ही अटके हैं। गहरा नहीं उतरे हैं। बहुत पीछे हैं।

जहां तक औरतों की बात है तो चुनाव को लेकर उनकी दिलचस्पी बहुत कम दिखाई दी। लेकिन एक अच्छी बात यह रही की उम्मीदवार अपना पर्चा लेकर औरतों से मिलने की भी कोशिश करते हुए दिखे। औरतों से बतियाने की कोशिश करते भी दिखे। यह काम नौजवान उम्मीदवार ज्यादा कर रहे थे, बूढ़े अब भी औरतों से बात करने से कतरा रहे थे। औरतों के हाव भाव से यही लगा कि उनका वोट उधर ही जाएगा जिधर उनके परिवार का वोट जाएगा। बहुत कम ऐसी औरतें होंगी जो अलग तरह से वोट करें। गरीब और बूढ़ी औरतें यह शिकायत करते हुए मिल जाती हैं कि उनका घर नहीं बना। उन्हें राशन नहीं मिल रहा है। सब आते हैं और लूट कर चले जाते हैं। किस पर भरोसा किया जाए? किसे वोट दिया जाए? जैसा सब करेंगे हम भी वैसा कर देंगे। वोट का महीना चल रहा है, इसलिए सब हाथ जोड़कर बात कर रहे हैं। बाद में हमारी तरफ तो दूर की बात है हमारे घर की तरफ भी कोई नहीं देखता।

इन दो पंचायती क्षेत्र का मुआयना करने पर सबसे खराब बात यह लगी कि कोई भी ऐसा वोटर नहीं मिला जो उम्मीदवारों से कड़े सवाल पूछता दिखाई दे। उम्मीदवारों के हाथ जोड़ने से पहले वोटर हाथ जोड़कर कहता है कि ठीक है, हम आप ही को वोट देंगे। एक छोटी सी मुस्कान लिए हुए हर वोटर हर उम्मीदवार के सामने खुद को खुशी के साथ पेश करता है। जब मैंने इस प्रवृत्ति के बारे में कई वोटरों से पूछा। तो अधिकतर वोटरों का यही जवाब था कि हम सबको गांव में ही रहना है। कौन किस से दुश्मनी मोल ले? आप ही बताइए हम तो बहुत दूर की बात हैं। जो लोग लड़ रहे हैं, वह लोग भी आमने सामने खड़ा होकर एक दूसरे से सवाल नहीं पूछते। तो हम क्या पूछें?

पंचायती चुनाव में जीत का फार्मूला बताते हुए एक बूढ़े व्यक्ति कहते है कि जीतने का फॉर्मूला यही है कि गांव में रहिए। टाटा बिड़ला तो नहीं लेकिन इतनी संपत्ति जरूर रखिए कि सब लोग से महीने में मेल मिलाप कर पाएँ। किसी के घर पर शादी हो तो उसकी मदद कर पाएँ। कोई मर गया हो तो उसके लिए लकड़ी का इंतजाम कर पाएं। उसके मरने पर घाट पर जा पाएँ। किसी को पैसे और दवाई की जरूरत हो तो उसे पैसा और दवाई दे पाएँ। यह करिए और इसका प्रचार करिए। एक ढंग की गाड़ी रखिए। लोगों से नरम तरीके से बात कीजिए। दान दक्षिणा दीजिए। मंदिर में दान दीजिए। पंडित जी को दान दीजिए। साथ में ऐसा कुछ भी मत कीजिए, जिसे समाज नहीं स्वीकारता। आपकी उम्र 30 साल हो गई है। आपकी शादी नहीं हुई है। इसलिए अगर आपको आवारा बता दिया गया और इसका प्रचार कर दिया गया तो आप कभी चुनाव नहीं जीत सकते। 

भले आप अंदर से कितने भी जाहिल क्यों ना हो या आप बहुत अधिक ईमानदार और सत्य निष्ठा क्यों ना हो, लेकिन जब तक आप कुछ ऐसा नहीं करते जिससे गांव के लोगों को आपके प्रति भावुकता ना पैदा हो, तब तक आप नहीं जीत पाएंगे। देखिए तार्किक तौर पर देखेंगे तो यहां पर कोई काबिल नहीं दिखेगा। लेकिन लोगों के नजर से सोचिए। उनकी भावुकता की नजर से सोचिए। अबकी बार लोग जिसे चुनाव जीता रहे हैं, उसे केवल इस बात के लिए चुनाव जिता रहे हैं कि पिछली बार बार चुनाव में हार गया था। उसके पास कोई वाजिब काबिलियत नहीं है। महज यह काबिलियत है कि उसने लोगों के बीच अपने लिए भावना पैदा कर दी है कि वह पिछली बार चुनाव हार गया था। इस बार उसे चुनाव जीता दिया जाए। गांव देहात के इलाके में बदलाव का मतलब बदलाव नहीं होता है। बदलाव का मतलब केवल इतना होता है कि जो मौजूदा समय में सत्ता पर बैठा है वह ना जीते। 

बाकी एक ही बार में मुखिया, सरपंच, वार्ड सदस्य, पंच, जिला परिषद, बीडीसी सब का चुनाव हो रहा है। यह भी कोई चुनाव है। अशिक्षित लोगों के सामने एक ही समय में 6 पदों को चुनने की जिम्मेदारी दे दी गई है। एक अनपढ़ औरत और मर्द को 6 चुनाव चिन्ह याद करने पड़ेंगे। मुखिया के अलावा जितने भी पद हैं उसको ज्यादा तवज्जो नहीं दिया जाता। जबकि सभी पद महत्वपूर्ण है। जिला परिषद को ही देख लीजिए। जिला परिषद सदस्य के चुनाव के लिए 10 पंचायत क्षेत्र के वह लोग वोटर हैं, 22 उम्मीदवार खड़े हैं, लोग तो यह कह रहे हैं कि जो चुनाव चिन्ह सबसे अच्छा दिखेगा उस पर ही वोट दे देंगे। पंचायती चुनाव को परिपक्व होने में अभी लंबा सफर तय करना है।

ये भी पढ़ें: बिहार में पूर्ण टीकाकरण सूची में शामिल हैं मोदी, शाह और प्रियंका चोपड़ा के नाम 

Bihar
Bihar panchayati election
Logic and emotion in panchayti elelction
Story of Panchayati election

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