NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
बिहार चुनाव के कड़वे-मीठे सबक: थोड़ी हक़ीक़त,थोड़ा फ़साना
हाल के दिनों में हुए चुनावों के सबसे बड़े विकासक्रमों मे खंडित जनादेश,जातिगत वोट का आंशिक टूटन और वामपंथ का फिर से उठ खड़े होने की आहट है।
सुबोध वर्मा
12 Nov 2020
बिहार चुनाव
प्रतीकात्मक फ़ोटो: साभार:बीटी

मंगलवार की देर रात (10 नवंबर) बिहार के कांटे की टक्कर वाली कुछ 20 सीटों पर मतगणना को अंतिम रूप दिया जा रहा था, उस दौरान राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) लिबरेशन ने नीतीश कुमार सरकार की तरफ़ से नतीजे के ऐलान को लेकर विभिन्न रिटर्निंग अफ़सरों पर पड़ते दबाव के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया। उन्होंने आरोप लगाया कि विपक्षी दलों के महागठबंधन (MGB) को जिन सीटों पर जीत हासिल हो रही थी, उन सीटों पर सत्तारूढ़ पार्टियों की जीत का ऐलान कर दिया गया।

इन सीटों पर क्या होगा, यह तो कुछ दिनों में साफ़ हो जायेगा, लेकिन अब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला निवर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन ही विजेता हैं, हालांकि इस गठबंधन को 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में आधी सीट यानी 122 से महज़ तीन सीटें ही ज़्यादा मिली हैं। वहीं महागठबंधन को 110 सीटें मिली हैं, जबकि छोटे-छोटे दलों के एक अन्य मोर्चे को छह सीटों पर जीत हासिल हो पायी है।

खंडित जनादेश- दोनों गठबंधनों के बीच बस 13,000 वोटों का अंतर

ग़ौरतलब है कि दो अहम मोर्चे- भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन को  क्रमशः 37.3% और 37.2% के साथ तक़रीबन बराबर-बराबर वोट शेयर मिले हैं, और दोनों को मिले वोटों के बीच का यह अंतर सिर्फ़ 13,000 वोट का ही है। (नीचे दिये गये चार्ट में 2020 में गठबंधनों की स्थिति को देखा जा सकता है; 2015 में जेडीयू ने तत्कालीन महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन 2017 में जेडीयू ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया था।)

दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे,चिराग़ पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने 5.7% वोट हासिल किये हैं, जबकि छोटे-छोटे दलों वाले ‘ग्रैंड सेक्युलर डेमोक्रेटिक फ़्रंट’ को तक़रीबन 4.5% वोट मिले हैं। बिहार के लोगों ने एक खंडित जनादेश दिया है, हालांकि सरल बहुमत प्रणाली में इसका मतलब तो यही होता है कि निवर्तमान एनडीए सत्ता में वापस आ जायेगा। साफ़ है कि यह फ़ैसला नीतीश कुमार के उन 15 सालों के शासन पर लगने वाली मुहर तो बिल्कुल नहीं है, जिनमें 13 साल भाजपा के साथ गठबंधन के थे। अगर यह मान लिया जाये कि नतीजों में किसी तरह का कोई हेरफेर नहीं किया गया है,तो लोगों ने महागठबंधन पर भी पर्याप्त भरोसा नहीं जताया है।

जैसा कि हमेशा भारतीय चुनावों में होता है, अभियान के दौरान बनाये गये कई मिथक टूट गये हैं,जबकि कुछ कड़वी हक़ीक़त भी सामने आयी हैं।

कुछ हद तक जाति आधारित मतदान में टूटन

महागठबंधन की बिहार के मतदाताओं से ज़्यादा नौकरियों, औद्योगिकीकरण, खाद्य सुरक्षा, किसानों को बेहतर क़ीमत आदि के समर्थन के लिए की गयी अपील ने उन जातिगत बाधाओं से आगे निकल गयी, जिनके बारे में आमतौर पर सोचा जाता है कि ये ही मतदान की व्यवहार को तय करते हैं और मोटे तौर पर चुनाव को समझने का एकमात्र साधन भी यही होते हैं। बिहार में बेरोज़गारी दर दो साल से दोहरे अंकों में आ गयी है और सूबे के लोग अब भी अप्रैल-मई के महीनों में लॉकडाउन के दौरान नज़र आयी 46% की बेरोज़गारी से उबर नहीं पाये हैं।

महागठबंधन ने सरकार के लिए चुने जाने के बाद 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था और इस वादे ने लोगों को जोश से भर दिया था और इस वादे ने सभी जातियों के लोगों, ख़ासकर नौजवानों को आकर्षित करने में अहम भूमिका निभायी थी। सभी जातियों के बीच आधार वाले वामपंथियों ने भी इस प्रक्रिया में मदद की।

हालांकि, महागठबंधन की यह अपील जाति-आधारित उस राजनीतिक गोलबंदी को पूरी तरह से नहीं तोड़ पाया, जिसे भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में संस्थागत रूप दिया गया था, जिसमें मल्लाह या निषाद (नाविक) जाति या दलितों में भी सबसे ज़्यादा दलित जाति यानी मुसहरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल थे।

इन जातियों के नेताओं को सत्ता और संरक्षण के लालच ने राजनीतिक गठजोड़ बनाने के लिए प्रेरित करता रहा है, हालांकि अतीत हमें बताता है कि उस जाति के आम लोगों को शायद ही कभी कोई आर्थिक फ़ायदा पहुंचता है। बिहार में हुए इस चुनाव में जाति आधारित मतदान का आंशिक तौर पर तो विघटन ज़रूर हुआ है, लेकिन एनडीए को हराने के लिए इतना काफ़ी नहीं था।

वामपंथ का उदय

बिहार में कई दशकों से उग्र और वामपंथी आंदोलनों का एक इतिहास रहा है। लेकिन,वैचारिक मतभेद और मंडल की राजनीति के उद्भव ने वामपंथियों को हाशिये पर धकेल दिया था। पिछले कई सालों में ज़मीन, ट्रेड यूनियन अधिकारों को लेकर और छात्रों के बीच वामपंथी आंदोलन हुए हैं, साथ ही धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों और आदिवासियों जैसे उत्पीड़ित वर्गों के बचाव को लेकर हुए आंदोलनों से इनके बीच एक नहीं दिखायी देने वाली लामबंदी हो रही थी।

इस चुनाव में यह उभरता हुआ समर्थन ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आया है, हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि महागठबंधन का हिस्सा होने से वोटों के मामले में मदद ज़रूर मिली है। तीन मुख्य वामपंथी पार्टियां-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआई (मार्क्सवादी) और सीपीआई (एमएल)-लिबरेशन को एक अहम ताक़त के तौर पर स्वीकार किया गया और इन्हें महागठबंधन में शामिल किया गया। उन्होंने 29 सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें से 18 सीटें जीतीं।

पिछली बार के 3.5% के मुक़ाबले इस बार उन्हें 4.5% वोट मिले हैं। उनके कुछ उम्मीदवार तो बहुत ही मामूली वोटों के अंतर से हार गये हैं। इस अहम चुनाव में ये 18 सीटें भाजपा और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत दीवार बनाती हैं। उन दूसरे सीटों पर भी वामपंथियों का योगदान अहम था, जहां उनके बेहद उत्साहित कैडरों ने सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के लिए काम किया, और समाज के उन वर्गों को कामयाबी के साथ एकजुट किया, जिन्होंने अन्यथा गठबंधन का समर्थन नहीं किया होता।

आने वाले महीनों में विधानसभा में एक ठोस वामपंथी गुट की मौजूदगी विपक्ष को एक धर्मनिरपेक्ष और जनसरोकार की तरफ़ मोड़ने में बहुत मददगार होगी,क्योंकि इसका सामना सत्तारूढ़ भाजपा-जदयू गठबंधन से है।

लोजपा-भाजपा का एक मोहरा

इन चुनावों में एक ऐसा ग़ज़ब और पेचीदा खेल खेला गया, जिससे भाजपा की कुटिल महत्वाकांक्षा का पता चलता है। केंद्र में बीजेपी के सहयोगी,एलजेपी ने ऐलान कर दिया था कि वह नीतीश कुमार के जद (यू) के उम्मीदवारों का समर्थन नहीं करेगी और पूरे चुनाव अभियान के दौरान उस पर हमला करती रही।

इस बात की पूरी संभावना है कि यह भाजपा द्वार प्रेरित और समर्थित यह एक ऐसी चाल थी, जिससे कि जदयू के मुक़ाबले भाजपा बड़ी पार्टी बन सके, हालांकि बाद के चरणों में सभी बड़े भाजपा नेताओं ने इस बात से इनकार कर दिया कि लोजपा उनका मोहरा है। उनका यह इनकार इसलिए सामने आ पाया, क्योंकि बाद में उन्हें महसूस हुआ कि एलजेपी,एनडीए को वहां नुकसान पहुंचा रहा था, जहां साफ़ तौर पर कड़ी टक्कर थी।

जैसा कि नतीजे दिखाते हैं कि एलजेपी कम से कम 33 जेडी (यू) उम्मीदवारों की हार की वजह बनी है, क्योंकि इन सीटों पर एलजेपी के उम्मीदवारों को मिले वोट उन अंतर से कहीं ज़्यादा हैं, जिन अंतर के साथ जेडी (यू) के उम्मीदवार हार गये हैं। इससे यह बात निश्चित रूप से साफ़ हो जाती है कि अगर लोजपा, जद (यू) को समर्थन दे रही होती, तो उसी संख्या में ये वोट जद (यू) को हस्तांतरित हो गये होते।

यह ज़रूरी नहीं है, लेकिन फिर भी,इससे यह बात तो सामने आती ही है कि जद (यू) को उसके अपने ही सहयोगी, बीजेपी की वजह से नुकसान उठाना पड़ा है। यह हक़ीक़त उन तमाम दलों के लिए भी एक चेतावनी है,जो चुनावों में भाजपा के सहयोगी हैं। उन्हें समय के साथ कभी न कभी निगल जाया जायेगा।

कांग्रेस के चलते महागठबंधन को नुकसान

महागठबंधन के सहयोगी के तौर पर कांग्रेस की जीत की दर सबसे ख़राब रही,वह 70 में से महज़ 19 सीटें ही जीतने में कामयाब हो सकी। हालांकि काग़ज़ पर तो इसने 2015 में मिले अपने वोट शेयर 6.7% को बढ़ाते हुए इस बार 9.5% कर लिया है, लेकिन यह बहुत हद तक बेहद सक्रिय महागठबंधन का असर है। वोटों को जुटाने के मामले में कांग्रेस मामूली आधार या संरचना वाला एक ऐसी मरणासन्न संगठन रह गयी है, जो चुनावों को छोड़कर बाक़ी समय बड़े पैमाने पर ज़मीन पर मौजूद ही नहीं होती है।

अभी भी कुछ वर्गों के बीच इसकी कुछ साख बची हुई है, और आख़िरी उपाय का विकल्प बन सकती है, लेकिन एक व्यवहारिक विकल्प के तौर पर यह तेजी से गर्त में जा रही है। जैसा कि वामपंथी नेताओं ने बाद में कहा था कि अगर कांग्रेस को 70 सीटें देने के बजाय,वाम दलों को ज़्यादा सीटें दी गयी होती,तो नतीजे अलग होते।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव के कई कड़वे-मीठी सबक हैं: वैकल्पिक नीतियों के साथ एक जनोन्मुख मोर्चे की ज़रूरत है, लेकिन सिर्फ़ चुनावों के लिए नहीं, बल्कि लोगों के लिए लगातार काम करने और लड़ने की ज़रूरत है। चुनाव प्रचार में आप केवल इतना ही फ़ायदा उठा सकते हैं, जितना कि महागठबंधन को मिला है। अगर यह गठबंधन पिछले पांच सालों से आगे बढ़कर काम कर रहा होता, जैसा कि इसका वाम घटक कर रहा था,तो नतीजे निर्णायक रूप से अनुकूल होते।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bitter-Sweet Lessons from Bihar: Some Myths, Some Truths

Bihar Assembly Elections 2020
Bihar government
Nitish Kumar
Left Parties in Bihar
mahagathbandhan
Tejashwi Yadav
JDU BJP Alliance
Caste Based Politics
Unemployment in Bihar
Modi Factor in Bihar Elections

Related Stories

बिहार: पांच लोगों की हत्या या आत्महत्या? क़र्ज़ में डूबा था परिवार

मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बिहार : दृष्टिबाधित ग़रीब विधवा महिला का भी राशन कार्ड रद्द किया गया

बिहार : नीतीश सरकार के ‘बुलडोज़र राज’ के खिलाफ गरीबों ने खोला मोर्चा!   

बिहार : सरकारी प्राइमरी स्कूलों के 1.10 करोड़ बच्चों के पास किताबें नहीं

सवर्णों के साथ मिलकर मलाई खाने की चाहत बहुजनों की राजनीति को खत्म कर देगी

बिहार : गेहूं की धीमी सरकारी ख़रीद से किसान परेशान, कम क़ीमत में बिचौलियों को बेचने पर मजबूर

तेजप्रताप यादव की “स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स” महज मज़ाक नहीं...

बिहारः मुज़फ़्फ़रपुर में अब डायरिया से 300 से अधिक बच्चे बीमार, शहर के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती

कहीं 'खुल' तो नहीं गया बिहार का डबल इंजन...


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License