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बजट 2020 : अंधेरे में तीर चलाती मोदी सरकार
टैक्स संग्रह पहले से कम हो गया है और मोदी सरकार मंत्रालयों के ख़र्च में कटौती कर संकट को और गहरा कर रही है।
सुबोध वर्मा
29 Jan 2020
Translated by महेश कुमार
बजट 2020 : अंधेरे में तीर चलाती मोदी सरकार

दो दशकों में पहली बार, कॉर्पोरेट और आयकर संग्रह के 2019-20 में गिरने की उम्मीद है। यह भयंकर रूप से बर्बाद होती अर्थव्यवस्था की तरफ़ इशारा है जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने कॉर्पोरेटों पर करों को कम कर और सरकारी ख़र्च को निचोड़ कर चरमराती अर्थव्यवस्था को कथित रूप से ऊपर उठाने की कोशिश की है। नज़दीक आ रही 1 फ़रवरी को जब 2020-21 का नया बजट पेश किया जाएगा, तो सरकार समाधान पेश करने की कोशिश करेगी - लेकिन उसके पास इस  संकट का अंतत कोई भी समाधान नहीं होगा।

चालू वित्त वर्ष 2019-20 में प्रत्यक्ष कर के संग्रह का लक्ष्य पिछले वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान से लगभग 12 प्रतिशत अधिक रखा गया था, जो 13.4 लाख करोड़ रुपए था। सरकार के सूत्रों के हवाले से मिली ताज़ा रिपोर्ट से पता चला है कि 23 जनवरी तक प्राप्त वास्तविक प्रत्यक्ष कर संग्रह केवल 7.3 लाख करोड़ रुपए है। विभिन्न आर्थिक विशेषज्ञ भविष्यवाणी कर रहे हैं कि इस वित्तीय वर्ष के समाप्त होते-होते अंत में क़रीब 2 लाख करोड़ रुपये तक की कमी होने की संभावना है।

टैक्स संग्रह में गिरावट क्यों?

बाज़ार में डूबती मांग की वजह से आर्थिक मंदी के अलावा जो अन्य तथ्य हैं उनमें कॉर्पोरेट करों में कटौती करने के सरकार के विचित्र फ़ैसले से प्रत्यक्ष कर के राजस्व में भी गिरावट आ गई है। अनुमान यह लगाया गया है कि पिछले साल सितंबर में घोषित कटौती के कारण सरकारी खज़ाने को 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा।

मौजूदा कंपनियों के लिए बुनियादी (बेस) कॉर्पोरेट टैक्स को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत किया गया था और नई विनिर्माण फ़र्मों के लिए 25 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत तक की कटौती की गई – यह 28 वर्षों की सबसे बड़ी कटौती है। यह सरकार के समस्त दृष्टिकोण का एक हिस्सा था, जिसमें उन्होंने अर्थव्यवस्था को तेज़ करने के लिए कॉर्पोरेट्स की मदद यह कह कर की कि वे लोग "धन निर्माता", हैं और इसलिए इनकी मदद करने से अधिक निवेश होगा और अर्थव्यवस्था रास्ते पर आ जाएगी। इसी समझ के आधार पर सरकार ने पोर्टफ़ोलियो निवेशकों पर पूंजीगत लाभ कर में भी कटौती कर दी थी, जिससे सरकारी खज़ाने को 11,400 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। विशिष्ट क्षेत्रों में मदद करने की सरकार की मुहिम ने  सरकारी संसाधनों की लूट में योगदान दिया है।

जहां तक अप्रत्यक्ष करों का सवाल है सीमा शुल्क संग्रह वर्ष दर वर्ष 12.5 प्रतिशत और नवंबर तक उत्पाद शुल्क संग्रह 3.8 प्रतिशत तक गिर गया है, जैसा कि आधिकारिक तौर पर लेखा महानियंत्रक के जारी आंकड़ों के से पता चला है। माल और सेवा कर संग्रह में ज़रूर वृद्धि हुई है लेकिन वह भी केवल 3.9 प्रतिशत की मामूली दर है।

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सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो अगर सरकार को अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए इस वित्तीय वर्ष में शुद्ध कर संग्रह के लिए पिछले चार महीनों में एक असंभव 9.9 करोड़ रुपये का संग्रह करना होगा - यानी कुल करों का लगभग 54 प्रतिशत। स्पष्ट रूप से, यह असंभव है। इसलिए, अनुमानित कमी रहेगी।

इसलिए, हाल के वर्षों में सरकार ने स्वयं के कुप्रबंधन से स्थिति को अधिक ख़राब कर दिया है, जो कम से कम कहने के लिए काफ़ी गंभीर है। अगर सरकार ने कॉर्पोरेट और शेयर बाज़ार के शेयरों के करों में कटौती नहीं की होती, और अधिक सार्थक तरीक़ों से अपने स्वयं के खर्च को बढ़ाया होता तो आज अर्थव्यवस्था इस दुखद स्थिति में नहीं पहुँचती। इसका सीधा प्रभाव बढ़ती बेरोज़गारी और उपभोक्ता ख़र्च को कम करने पर पड़ रहा है, जो संकट को और अधिक तीव्र कर रहा है। और, ज़ाहिर है, अब यह आम लोगों के लिए भारी संकट का कारण बन गया है।

ख़र्च को कम करना

सरकार की अदूरदर्शी की नीतियों के सबूत मंत्रालयों के नवीनतम ख़र्च के आंकड़ों से मिलते हैं। महालेखा नियंत्रक, जो दो महीने के अंतराल में मासिक डाटा जारी करता है, ने नवीनतम आंकड़े जारी किए है, यानी नवंबर माह के आंकड़े। उसके बाद का कोई और डाटा उपलब्ध नहीं है क्योंकि अब केंद्रीय बजट की घोषणा की जाएगी।

नवंबर 2019 के आंकड़ों में यह चौंकाने वाली तस्वीर मिलती है: कृषि मंत्रालय ने अपने आवंटन का केवल 49 प्रतिशत ही ख़र्च किया है, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 60.7 प्रतिशत,  रेलवे ने 60.2 प्रतिशत, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने 59.9 प्रतिशत और पेयजल और स्वच्छता विभाग ने 59.5 प्रतिशत ही ख़र्च किए हैं। इससे पता चलता है कि कुछ प्रमुख मंत्रालय जो बड़ी संख्या में वंचित वर्गों को लाभान्वित करने के लिए कार्यक्रम चलाते हैं, उन्हें बहुत तंग स्थिति रखा जा रहा है। ख़र्च के मामले में आत्मसंयम रखने का अभियान चल रहा है, जिसे छिपा कर किया जा रहा है और धरातल पूरी मुस्तैदी से जारी है।

इसके अलावा, सरकार ने अपने सभी विभागों से कहा है कि वे अपना खर्च वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में बजट अनुमान के 25 प्रतिशत तक सीमित रखें। पहले यह सीमा 33 प्रतिशत थी। पिछले महीने के  खर्च की सीमा पहले 15 प्रतिशत के मुक़ाबले 10 प्रतिशत किया  है।

इसका मतलब स्पष्ट है कि कई मंत्रालय और विभाग अपने आवंटित मोटी रकम को ख़र्च नहीं कर पाएंगे। उनके लिए पहले से ही मौत लिख दी गई है। योजनाओं और कार्यक्रमों का विवरण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह निश्चित है कि उनमें से अधिकांश फंड की कमी का सामना कर रहे हैं।

जैसा कि हाल ही में आई एक रिपोर्ट बताती है कि फंडिंग कम करने का एक और असर हो सकता है: वह यह कि ज़रूरतों को सीमित फंडों से पूरा नहीं किया जा सकता है, भले ही वे आवंटन के अनुरूप क्यों न हों। इसका उदाहरण ग्रामीण रोज़गार योजना (मनरेगा) है, जहां इस महीने तक लगभग पूरे धन का उपयोग किया गया है और शेष अवधि के लिए काम पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लग गया है। यह एक ऐसे दौर में है जब नौकरियों की कमी के कारण मनरेगा के काम की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ रही है।

यह सब, निश्चित रूप से, चालू वर्ष का मसला है। मोदी आने वाले वर्ष को कैसे संभालेंगे, वह  आगामी केंद्रीय बजट में दिखाई देगा, यह भी स्पष्ट नहीं है। लेकिन, एक बात लगभग तय है - सरकार की वर्तमान नीतियों के बने रहने से हालात और अधिक ख़राब होंगे।

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