NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
आर्थिक मंदी ने मज़दूर वर्ग की ज़िंदगी दुश्वार बना दी
पंजाब में खेती के मशीनीकरण, उद्योगों की बर्बादी, सेवा क्षेत्र की कमज़ोरी व मनरेगा जैसे बुनियादी अधिकार के सरेआम उल्लंघन के कारण रोज़गार के कार्य दिवस लगातार घटते जा रहे हैं
शिव इंदर सिंह
04 Feb 2020
Agriculture

आर्थिक मंदी ने तमाम कारोबार पर बुरा असर डाला है, लोगों के रोज़गार छीने हैं, बेरोज़गारी शिखर पर पहुंची है, लोगों को अपनी रोज़ी रोटी के लाले पडे़ हुए हैं वहीं आर्थिक मंदी और सरकारों की जनविरोधी नीतियों ने मज़़दूर वर्ग को बुरी तरह बर्बाद किया है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार ही बेरोज़गारी ने पिछले 45 सालों का रिकार्ड तोड़़ दिया है। गैर-संगठित क्षेत्र के श्रमिक इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।

बिना किसी सामाजिक सुरक्षा व भोजन तक सीमित कर दी गई श्रमिक शक्ति का 93प्रतिशत हिस्सा गैर-संगठित होने के कारण सरकार द्वारा इनकी सुनवाई भी कम होती है। पंजाब में खेती के मशीनीकरण, उद्योगों की बर्बादी, सेवा क्षेत्र की कमज़ोरी व मनरेगा जैसे बुनियादी अधिकार के सरेआम उल्लंघन के कारण रोज़गार के कार्य दिवस लगातार घटते जा रहे हैं और ग़रीबों के घरों में चूल्हे की आग बुझने की नौबत आ गई है।

‘द सेन्टर फॉर मानिटिरिंग इंडियन इकोनमी’ की रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2016 में पंजाब में गैर-संगठित क्षेत्र की बेरोज़गारी दर 4.9 फीसदी थी जो दिसंबर 2016 में बढ़कर 6.1 फीसदी, जून 2017 में 8.9फीसदी, अक्तूबर 2018 में 11.7 फीसदी और फरवरी 2019 में यह बढ़कर 12.4 फीसदी तक पहुंच गई। निर्माण कार्य लगभग ठप्प होने की कगार पर है। पंजाब में अधिकारित तौर पर अकुशल श्रमिकों के लिए ऐलान की गई न्यूनतम मज़दूरी 311.12 रूपये प्रति दिन है और कुशल श्रमिकों के लिए यह 375.62 रूपये है।

नौजवानों को हर साल नौकरी देने का वादा करके सत्ता में आई कैप्टन सरकार का कहना है कि उसने अभी तक 5 लाख 50 हज़ार नौजवानों को नौकरी की पेशकश की है और इनमें से 1 लाख 72 हज़ार प्राईवेट उद्योगों में और 37,542 सरकारी नौकरियां दी हैं। लेकिन आर्थिक जानकारों के मुताबिक़ राज्य में नए उद्योग नहीं लगे है बल्कि पुराने बंद हो रहे हैं। पंजाब के अर्थशात्री प्रोफेसर सुच्चा सिंह गिल ने कहा है कि राज्य में रोज़गार की कहानी जानने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं हैं सिर्फ राजपुरा से अंबाला तक का सफर कर लिया जाए तो दो ओद्यौगिक इकाईयों, ढाबे और पॉलिटेक्निक कॉलेजों की जर्जर हो रही इमारतें दिखाई देती हैं।

खेती क्षेत्र में रोज़गार घट रहा है। ग्रामीण श्रमिकों के लिए साल में 100 दिन के रोज़गार के लिए बने मनरेगा का भी यही उद्देश्य था कि देहाती अर्थव्यवस्था में रोज़गार बढ़ा कर मांग पैदा की जाए। पंजाब में मनरेगा को लेकर श्रमिक तो संघर्ष कर रहे हैं साथ ही सरकारी अधिकारी इसे मनमाने ढंग से चला रहे हैं।

पंजाब की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और खेती विशेषज्ञ पत्रकार हमीर सिंह बताते हैं, “पंजाब के 32 लाख ग्रामीण परिवारों में से 17.80 लाख के जॉब कार्ड बने हैं, इनमें से 10.81लाख ही चालू जॉब कार्ड वाले परिवार हैं इन्हें भी साल 2019-20 के दौरान 27.6 दिन का काम दिया गया है। मनरेगा के तहत 60 प्रतिशत दिहाड़ी व 40 प्रतिशत सामग्री पर खर्च होना होता है। अगर इसे पंजाब में सही रूप में लागू किया जाए तो मज़़दूरों व पांच एकड़ वाले किसानों को अपने खेत में काम करके भी लाभ मिल सकता है। अपने खेत में काम करने वालों के लिए दिहाड़ी अभी तक लागू नहीं की जा रही, न ही यह किसान-मज़दूर संगठनों के संघर्ष का हिस्सा बना है।“

हमीर सिंह बताते हैं कि सुपरवाइज़री भूमिका में रोज़गार के अन्य अवसर पैदा हो सकते हैं। मनरेगा की हिदायतों के अनुसार हर 50 जॉब कार्ड्स पर एक मेट भर्ती हो सकता है। हर छोटे गांव में एक व बड़े गांव में एक से अधिक रोजगार सेवक भर्ती हो सकते हैं। 2500 जॉब कार्डधारक पर 4 जूनियर इंजिनियर, सोशल ऑडिट टीम, डाटा एन्ट्री ऑपरेटर्स की भर्ती हो सकती है। इस अनुमान के अनुसार पंजाब में 70,000 के क़रीब नए रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो सकते है। पंजाब सरकार का श्यामलात जमीनों को कॉर्पोरेट घरानों को देने का फैसला मनरेगा के लिए और भी दिक्कतें पैदा करने वाला है।

मनरेगा लागू करने के लिए सबसे पहले जॉब कार्ड बनाना जरूरी है, इसके बाद अर्जी लिखकर काम मांगना और इसकी रसीद रखनी पड़ती है, नियुक्ति पत्र मिलने के बाद मस्ट्रोल निकलने पर ही काम पर जाना होता है। लेकिन दिक्कत यह है कि न तो अर्जी की रसीदें दी जाती हैं, न नियुक्ति पत्र नतीजतन न तो श्रमिक बरोज़गारी भत्ता मांग पाते हैं और न ही किए गए काम का समयानुसार भुगतान होता है।

निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के घर के चूल्हे भी ठंडे पड़े हैं। चौक पर खड़े मज़दूरों के कई कई दिन काम के इंतज़ार में ही गुज़र जाते हैं। काम की तलाश में अपना घर-बार छोडकर एक जगह से दूसरी जगह जाकर दिन-रात मेहनत करने के बावजूद उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए परेशानी झेलनी पड़ती है। समाज के इस वर्ग के पढ़ा-लिखा न होने के कारण उन्हें थोड़ी बहुत मिलने वाली सरकारी सहूलियतों से भी वंचित रहना पड़ता है। मोहाली के एयरपोर्ट रोड पर बन रही इमारतों में काम करने वाले मज़़दूर मनोज कुमार ने बताया कि वह मूल रूप से उत्तर प्रदेश का रहने वाला है और वह चार साल पहले काम की तलाश में पंजाब आया था।

उसने कुछ समय बाद अपना परिवार भी यहां बुला लिया और वे अब अपने दो बच्चों व पत्नी समेत यहां रह रहे है। वे दोनों पति-पत्नी काम करते हैं। उसने बताया कि पढ़े-लिखे न होने के कारण सरकार की किसी स्कीम बारे उन्हें पता नहीं लगता और न ही सरकारी स्कीमों का उन्हें लाभ मिला है। उत्तर प्रदेश का रहने वाला 48 वर्षीय रामलाल लम्बे समय से मिस्त्री का काम कर रहा है, उसकी पत्नी व दोनों बच्चे साथ ही काम कर रहे हैं, सारा परिवार दिहाड़ीदार होने के कारण अपने पैतृक गांव नहीं जा पाता। उसने बताया कि काम करने के लिए उसे मूलभूत आवश्यकताएं मुहैया नहीं करवाई जाती जिस कारण कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

केन्द्र सरकार द्वारा मज़दूर वर्ग को रोज़गार स्कीम, सेहत बीमा, मेडिकल बीमा समेत अन्य प्रकार की स्कीमों के बारे पूछे जाने पर उसने बताया कि दिहाड़ी पर काम करने के कारण वह कोई भी लाभ लेने के लिए नहीं जा पाते। यदि वे अपना काम छोड़कर जाते हैं तो उनकी दिहाड़ी काट ली जाती है। बड़ी इमारतों के निर्माण में कार्य करने के कारण उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती। पटियाला के किला चैक में काम का इंतजार कर रहे राजकुमार ने बताया कि वह काम के लिए शहर में पांच किलोमीटर की दूरी से आता है।

कमाने वाला अकेला है जिस कारण वित्तीय परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। उसने बताया कि केन्द्र सरकार की उज्जवला योजना के तहत उसे गैस सिलेंडर तो मिल गया था पर गैस सिलेंडर के बढ़ रहे रेट के कारण उसे भरवाना ही मुश्किल हो जाता है। पंजाब में ज्यादातर मज़़दूर पहले उत्तर प्रदेश व बिहार से आते थे लेकिन पिछले कुछ समय से पश्चिम बंगाल व झारखंड से भी मज़दूर आकर मज़़दूरी कर रहे हैं। पंजाब में रजिस्टर्ड निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की गिनती 3.20 लाख से ज़्यादा है पर एक समाजसेवी संस्था का दावा है कि निर्माण कार्य में काम कर रहे मज़दूरों की गिनती 20लाख से ज्यादा है।

राज्य की आर्थिक राजधानी लुधियाना में मज़़दूरों का एक हिस्सा ऐसा भी है जो अपनी ज़़िंदगी भगवान भरोसे ही काट रहा है। ये दिहाड़ी मज़दूर सवेरे घर से निकलने से पहले दिहाड़ी मिल जाने की प्रार्थना कर के निकलते हैं ताकि खाने को रोज़ रोटी मिलती रहे। मंडियों में इंतजार के बाद कई मज़़दूरों को तो दिहाड़ी मिल जाती है लेकिन कई खाली हाथ घर वापिस लौट आते हैं। ऐसा हाल पूरे गैर-संगठित क्षेत्र का है जिसमें दिहाड़ी मज़़दूर, पलम्बर, कारपेंटर, घरों में काम करने वाले मज़़दूर शामिल हैं।

इस औद्योगिक शहर की बात करें तो यहां हज़़ारों की गिनती में मज़दूर ऐसे हैं जो दिहाड़ी करके अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। शहर के हर इलाक़े में मज़दूरों की भिन्न-भिन्न मंडी है। जहां राजमिस्त्री को 600 रूपये के क़रीब तथा मिस्त्री के साथ काम करने वाले मज़़दूर को 450रूपये दिहाड़ी दी जाती है। पलम्बर अपने काम के मुताबिक़ पैसे लेता है व लकड़ी का काम करने वाला मिस्त्री 500 से 600 रूपये दिहाड़ी लेता है। घरों में काम करने वाली औरतें 1500 से 2000रूपये महीना प्रति घर लेती हैं।

लुधियाना में पिछले 20 सालों से मज़़दूरी करने वाले छिंदर सिंह का कहना है कि उसे महीनें में 20 दिनों से अधिक काम नहीं मिलता। यूपी से लुधियाना आकर बसा कमलेश भी पिछले सात-आठ सालों से दिहाड़ी मज़़दूर के तौर पर ही काम कर रहा है, उसने बताया कि शिवपुरी स्थित मंडी में उसे 400 से 500 रूपये दिहाड़ी मिलती है पर कई बार लोग यह रेट भी कम कर देते हैं। अगर वह ठेकेदार के साथ काम करता है तो कई बार ठेकेदार भी उसके पैसे मार लेता है।

घरों में काम करने वाली रेखा रानी का कहना है कि वह पिछले 10-12 सालों से अपने परिवार समेत यूपी से आकर लुधियाना में रह रही है, वह दो-तीन घरों व एक दफ्तर में झाड़ू-पोंछे का काम करती है जहां उसे 800 से 1500रूपये मिलते हैं, उसका पति भी एक फैक्ट्री में काम करता है फिर भी मुश्किल से गुज़ारा होता है। वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहती है इसलिए उसने अपने बच्चे का दाखिला प्राइवेट स्कूल में करवा रखा है, आधी कमाई बच्चों की फीस पर लग जाती है। सबसे ज्यादा समस्या तब आती है जब कोई बीमार पड़ जाता है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पंजाब सरकार ने निर्माण कार्य श्रमिकों की भलाई के लिए कई स्कीमें चलाई हैं लेकिन ज्यादातर श्रमिकों के रजिस्ट्रेशन ही नहीं हो पाते जिस कारण उन्हें कल्याणकारी स्कीमों का फायदा मिल ही नहीं पाता। जानकारी के अनुसार पंजाब सरकार के पास निर्माण कार्य श्रमिकों के लिए 700 करोड़ से ज्यादा का फंड पड़ा हुआ है। सरकार ने निर्माण कार्य श्रमिकों के लिए कई कल्याणकारी स्कीमें चलाई हैं जैसे कि किसी पंजीकृत निर्माण कार्य श्रमिक की हादसे में मौत होने पर उसके परिवार को 4 लाख रूपये का मुआवजा, सामान्य मृत्यु पर 2 लाख रूपये, बच्चों की पढ़ाई के लिए वजीफा स्कीम।

सेन्टर फॉर सोशल चेंज़ एण्ड इक्विटी के डायरेक्टर विजय वालिया के अनुसार पंजाब सरकार को निर्माण कार्य श्रमिकों की भलाई के लिए सेस के रूप में एक फीसदी पैसा लेना होता है पर यह पैसा ग्रामीण क्षेत्र में हो रहे निर्माण कार्यों से नहीं लिया जाता। इसी तरह भट्ठों, सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के निर्माण के दौरान भी यह पैसा नहीं लिया जाता। कुल मिलाकर यह करोड़ों रूपये हो जाता है। निर्माण कार्य श्रमिकों को सुरक्षा के लिए सहूलियतें देनी होती हैं लेकिन ज्यादातर स्थानों पर श्रमिक इनसे वंचित रहते हैं।

सारे श्रमिकों को सेफ्टी जूते देने आवश्यक हैं लेकिन वे चप्पलें पहनकर ही काम करते हैं। पांच फुट से ज्यादा ऊंचाई वाली इमारतों के निर्माण के दौरान हैलमेट पहनने जरूरी हैं लेकिन हर तरफ हैलमेट के बिना ही काम चलता रहता है। ठेकेदारों को मज़दूरों की रजिस्ट्रेशन करवानी होती है लेकिन ऐसा नहीं होता। उन्हें मज़दूरों के कल्याण फंड के लिए पैसा देना होता है लेकिन श्रम विभाग के इंस्पेक्टरों की कथित मिलीभगत के चलते रजिस्ट्रेशन नहीं करवाए जाते व बिना रजिस्ट्रेशन के काम चलता रहता है।

कृषि मज़दूरों की ज़़िंदगी और भी कठिन है। खेती में आए औद्योगिकरण ने उनकी ज़़िंदगी में काफी उथल-पुथल मचाई है। साठ के दशक तक ‘सीर प्रथा’ प्रचलित थी। सीर का ग्यारहवां हिस्सा होता था। सीरी के साथ-साथ पशु चलाने के लिए ‘छेड़ू’ भी रखा जाता था। ‘सीर प्रथा’ में खेत मज़दूर व उसके परिवार के पास ज़मीन संभालने का रोज़गार था। अब सीर प्रथा खत्म हो गई है, खेत मज़दूर ठेके पर रखे जाने लगे हैं। खेत मज़दूर को कुल मिलाकर 50 से 80 हजार रूपये वार्षिक तक ठेका दिया जाने लगा है। अब मशीनीकरण के बढ़े प्रभाव ने हाथ से खेती के तरीक़े को ख़त्म कर दिया है।

अब ज्यादातर ज़़मीनदार ज़मीन ठेके पर देते हैं, ज़रूरत पड़ने पर ही दिहाड़ी पर रखे जाते हैं। इस तरह कृषि प्रधान राज्य में खेती मज़दूरों को रोज़गार देने में फेल हो गई है जिसके चलते मजबूरन वे अन्य कामों में लग गये हैं। पंजाब खेत मज़़दूर यूनियन के राज्य सचिव लछमण सिंह सेवेवाला ने बताया कि खेत मज़दूरों की हालात बहुत ख़राब है, रहने के लिए घर नहीं हैं, खाने के लिए अन्न नहीं है, पढ़ाने के लिए पैसे नहीं है। सरकार काग़ज़ी कार्रवाईयां करके टाइम पास कर रही है। ग्रामीण मज़दूरों को गांवों में स्थायी रोज़गार, बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य व सफाई प्रबंधों की तुरंत आवश्यकता है। इसलिए संघर्ष ही आख़िरी रास्ता रह गया है जो कृषि मज़़दूर कर रहे हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

What Economic Slump Really Means for Workers

Punjab Wages
Agriculture wages
Construction wages
Agriculture mechanisation
Workers Struggle
Budget 2020-21
punjab

Related Stories

मूसेवाला की हत्या को लेकर ग्रामीणों ने किया प्रदर्शन, कांग्रेस ने इसे ‘राजनीतिक हत्या’ बताया

लुधियाना: PRTC के संविदा कर्मियों की अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू

त्रासदी और पाखंड के बीच फंसी पटियाला टकराव और बाद की घटनाएं

मोहाली में पुलिस मुख्यालय पर ग्रेनेड हमला

तमिलनाडु: छोटे बागानों के श्रमिकों को न्यूनतम मज़दूरी और कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रखा जा रहा है

पटियाला में मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं निलंबित रहीं, तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का तबादला

दिल्ली और पंजाब के बाद, क्या हिमाचल विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय बनाएगी AAP?

विभाजनकारी चंडीगढ़ मुद्दे का सच और केंद्र की विनाशकारी मंशा

पंजाब के पूर्व विधायकों की पेंशन में कटौती, जानें हर राज्य के विधायकों की पेंशन

विश्लेषण: आम आदमी पार्टी की पंजाब जीत के मायने और आगे की चुनौतियां


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License