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किसान के तौर पर मान्यता दिए जाने की मांग के साथ बुंदेलखंड में महिलाओं ने कृषि क़ानूनों के विरोध को तेज़ किया
उत्तरप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के कई गांवों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में महिलाएं हर रोज़ भारी तादाद में इकट्ठा हो रही हैं।
अब्दुल अलीम जाफ़री
17 Feb 2021
Women Farmers

लखनऊ: उत्तरप्रदेश का आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर पिछड़ा बुन्देलखण्ड का इलाका, जो कि कृषि संकट से बुरी तरह प्रभावित एक असिंचित प्यासे टुकड़े के तौर पर है, वहां महिला नेतृत्व की एक नई लहर उभरकर सामने आ रही है।

उत्तरप्रदेश के बुन्देलखण्ड के हिस्से में पड़ने वाले गाँवों में महिलाएं हर रोज भारी संख्या में जमा हो रही हैं। यह कुछ ऐसा है, मानो केंद्र के तीन हालिया कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का काम उनके कर्तव्य में शामिल हो। रोजाना सुबह 10 बजे के वक्त महिलाओं का जमावड़ा जमने लगता है और अगले दिन एक बार फिर से इकट्ठा होने से पहले भीड़ शाम तक तितर-बितर हो जाती है।

इस अनुशासनबद्ध एकजुटता और प्रतिरोध के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से लोगों की कई दशकों से की जा रही उपेक्षा का हाथ है।

न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में प्रदर्शनकारी ठाकू पुजारी ने जमीन पर मौजूद भावना का सार निकालते हुए कहा “अब हम आपस में विभाजित नहीं होने वाले और हम तब तक यहाँ से टस से मस नहीं होने जा रहे हैं, जब तक कि इन कृषि कानूनों को रद्द नहीं कर दिया जाता है। हम अपने संघर्ष में एकजुट हैं और यह जारी रहेगा।”

पुजारी एक सामजिक कार्यकर्ता हैं जो मीरा राजपूत, ललिता, मुबीना खान, कुशमा, फूला और बच्चों सहित दर्जनों महिलाओं के साथ चिंगारी संगठन – जो कि महिला अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए काम करने वाला एक अनौपचारिक मंच है - के झंडे तले पोस्टर, बैनर और हाथों में प्लेकार्ड लिए कम से कम 25 गांवों में तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध में हिस्सा ले रही हैं। पिछले सात दिनों से ये टोली उत्तरप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बाँदा के भंवरपुर, नीबी, खेरवा, अतर्रा, भरोसापुरवा, नौगवा, नरसिंगपुर, चाँदपुरा और शहबाजपुर जैसे गाँवों में अपने प्रदर्शन को जारी रखे हुए है।

पुजारी जो कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में महिलाओं को घर-घर जाकर संगठित करने का भी काम कर रही हैं, ताकि वे इन कृषि कानूनों और महिलाओं के मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन में भाग ले सकें, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “शुरुआत में एक दर्जन के करीब महिलाएं और पुरुष ही इसमें शामिल थे लेकिन अब हर रोज 1000 से भी अधिक की संख्या में लोग सुबह से लेकर शाम तक हमारे साथ इस आंदोलन में शामिल होते हैं। हर गुजरते दिन के साथ अधिकाधिक संख्या में महिलाएं हमारे साथ जुड़ रही हैं।”

कुछ इसी प्रकार की भावनायें मुबीना और कुशमा ने भी व्यक्त की। उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में बाँदा के अतर्रा ब्लाक में विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली चिंगारी संगठन के सदस्य राजा भैया का कहना था कि “जब तक मोदी सरकार इन किसान-विरोधी कानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक हम अपने आंदोलन को स्थगित नहीं करने जा रहे हैं। सरकार को किसानों की दुर्दशा पर ध्यान देने की जरूरत है और उसे इन काले कानूनों को तत्काल वापस ले लेना चाहिए।”

उनका कहना था कि कई गांवों में इन विरोध प्रदर्शनों को आयोजित किया जा रहा है और रोजाना महिलायें अपने गाँवों में प्राथमिक पाठशालाओं या पंचायत भवनों में इकट्ठा होकर भारत के इन नए विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ अपने प्रतिरोध का इजहार कर रही हैं।

महिला किसानों के तौर पर मान्यता दिए जाने की माँग 

कृषि सुधारों के विरोध में शामिल होने के लिए महिलाओं की टुकड़ी ने उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की पैदल यात्रा इस उम्मीद में निकाली है कि न सिर्फ उनकी आजीविका की रक्षा हो सके बल्कि उन्हें किसानों के तौर मान्यता दिए जाने की लड़ाई में भी जीत हासिल हो सके। 

40 वर्षीया कुशमा, जिनके हिस्से में बाँदा जिले के अतर्रा ब्लाक में खेत का एक बेहद छोटा हिस्सा ही है ने कहा कि “हमारे विरोध के पीछे एक मकसद यह भी है कि हमें एक किसान के बतौर देखे जाने में कामयाबी हासिल हो सके, क्योंकि भारत में महिलाओं को कभी भी किसान के तौर पर मान्यता नहीं मिलती है...हम हमेशा घरेलू महिलाओं के रूप में गिनी जाती हैं, किसानों या कामगारों के तौर पर नहीं।” 

भूमिहीन किसान फूला ने न्यूज़क्लिक को बताया “निराई गुड़ाई से ले कर फसल तैयार करना हो या फसल काटना, सब औरतें ही करती हैं। हमारे योगदान को कभी भी पुरुषों के समतुल्य नहीं देखा जाता है, भले ही पुरुषों की तुलना में हम अधिक काम ही क्यों न करते हों।” वे आगे कहती हैं कि वे इस विरोध प्रदर्शन में इसलिए शामिल हुई हैं ताकि दिल्ली और पश्चिमी यूपी की अपनी समकक्षों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार कर सकें, जो पिछले 80 दिनों से विभिन्न सीमाओं पर डेरा डाले हुए डटी हुई हैं। उनका कहना था कि “यह एक प्रमुख राष्ट्रीय विरोध प्रदर्शन है और मैं इसमें इसलिए शामिल हुई हूँ, ताकि लोग यह जान सकें कि हम भी किसान हैं, क्योंकि आज तक किसी भी महिला को महिला किसान का दर्जा हासिल नहीं हो सका है। उसकी पहचान एक महिला किसान के तौर पर विकसित नहीं हो सकी है, इसे ध्यान में रखते हुए भी इस विरोध को आयोजित किया जा रहा है।”

बुंदेलखंड क्षेत्र में महिला किसानों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए राजा भैय्या, जो खुद इन विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे रहे हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया: “हर साल सैकड़ों की संख्या में बुंदेलखंड क्षेत्र में किसान आत्महत्या करते हैं, लेकिन कृषि संकट के चलते यदि कोई महिला किसान आत्महत्या करती है तो सरकार या मीडिया कभी भी इस मौत को कृषि संकट के तौर पर मान्यता नहीं देती, बल्कि इसे वे एक ‘घरेलू कलह’ के तौर पर चित्रित करते हैं। कृषि संकट के कारण किसानों की आत्महत्याओं का कोई आंकड़ा नहीं मौजूद है, लेकिन पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आत्महत्या का अनुपात कहीं अधिक है।” 

चिंगारी संगठन का कहना है कि इन कानूनों पर उनके विचारों और दृष्टिकोण को भी तरजीह देने की जरूरत है। उनकी ओर से कहा गया कि यदि सरकार ने उनकी मांगों को नहीं स्वीकारा तो उनका यह धरना-प्रदर्शन अनिश्चितकाल तक चलने जा रहा है। उनका यह भी कहना था कि “भले ही हमारी फसलें खेतों में सड़ जाए, हम तब तक यहाँ से नहीं हिलेंगे जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जातीं। एक सीजन की उपज को बचाने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य इन कानूनों को निरस्त कराने में है।”

इस संगठन के मुताबिक 2011 की जनगणना में महिलाओं को ‘खेतिहरों’ के तौर पर मान्यता प्रदान की गई थी लेकिन उन्हें ‘किसानों’ का दर्जा नहीं दिया गया था। किसानों के तौर पर मान्यता हासिल हो जाने  पर महिलाओं को खेती के लिए कर्ज लेने, ऋण माफ़ी, फसल बीमा, विभिन्न सब्सिडी और यहाँ तक कि मुआवजे का हकदार बनने में सहूलियत हो सकेगी।”

इस बीच बाँदा स्थित एक किसान नेता प्रेम सिंह का कहना था “सारे देश में किसानों की समस्या एक जैसी है, और ऐसा कहते हुए हम सिर्फ कृषि बिलों के फायदे और नुकसानों के बारे में नहीं कह रहे हैं। किसानों को अपने प्रतिनिधि की दरकार है, जो उनसे जुड़े मुद्दों को उठाये।”

न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में प्रेम सिंह ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में बात करते हुए आगे कहा “बुंदेलखंड क्षेत्र के मात्र 2% किसान ही एमएसपी का लाभ उठा पा रहे हैं। मेरे गाँव छोटी बरोखर में, जो कि एक किसान-बहुल गाँव है में मुश्किल से सिर्फ 1% लोगों को ही अपनी फसलों पर एमएसपी का लाभ मिल पा रहा है। विडंबना यह है कि आज भी दलाल और बिचौलिए सस्ते दामों पर फसलों की खरीद कर उन्हें शहरों में दुगुने-तिगुने रेट पर बेचने में सफल हैं।” प्रेम आगे कहते हैं कि वे फसलों के लिए गारंटीशुदा कीमत चाहते हैं।


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