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भारत
राजनीति
सिंधिया को उनकी ‘हैसियत’ से रूबरू करा रही है भाजपा!
भाजपा ने उपचुनाव के लिए जारी अभियान के बीचोबीच अपनी रणनीति में बड़ा फेरबदल किया है। बदली हुई रणनीति के मुताबिक सिंधिया अब इस चुनाव में भाजपा के पोस्टर बॉय नहीं हैं।
अनिल जैन
24 Oct 2020
Jyotiraditya Scindia
Image courtesy: India Today

सात महीने पहले अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या मध्य प्रदेश की राजनीति मे अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुके? इस सवाल का जवाब तो आने वाला समय ही देगा, मगर फिलहाल साफ तौर पर ऐसा लग रहा है कि भाजपा के लिए उनकी भूमिका और उपयोगिता अब वैसी नहीं रही, जैसी कुछ महीने पहले तक हुआ करती थी। भाजपा में सिंधिया की हैसियत के बारे में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने हाल ही में जो कहा है, वह काफी मायने रखता है। उनका कहना है कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया गति हमेशा धीमी रहती है और भाजपा में सिंधिया अभी उसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।

मध्य प्रदेश में भाजपा के कद्दावर नेता और सिंधिया के ही गृह नगर ग्वालियर से ताल्लुक रखने वाले तोमर ने सिंधिया के बारे में यह टिप्पणी पिछले दिनों भोपाल में मीडिया से चर्चा के दौरान की। उन्होंने कहा, ''सिंधिया जी भाजपा में आए हैं, उनका स्वागत है। भाजपा एक विचार और कार्यकर्ता आधारित पार्टी है, जिसकी परंपराओं, विचारों और कार्यपद्धति से सिंधिया जी अभी परिचित हो रहे हैं। हमें उम्मीद है कि वे जल्दी ही भाजपा में समरस हो जाएंगे।’’

संजीदा और बहुत कम बोलने वाले नेता की छवि रखने वाले तोमर की बेहद शालीन लहजे में की गई यह टिप्पणी बताती है कि भाजपा ने सिंधिया को उनकी हैसियत से रूबरू कराते हुए उन्हें संकेत दे दिया है कि भाजपा में आने के बाद अब उन्हें अपने 'महाराज’ या 'श्रीमंत’ वाले ठसके से उबरना होगा।

आगामी 3 नवंबर को जिन 28 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। ज्यादातर सीटों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक उम्मीदवार हैं और उपचुनाव वाली ज्यादातर सीटें भी उसी इलाके की हैं, जिसे सिंधिया अपने प्रभाव वाला इलाका मानते हैं। लेकिन इसके बावजूद इन चुनावों में उन्हें भाजपा की ओर से कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दी गई है।

आठ महीने पहले सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस से बगावत कर कांग्रेस की 15 महीने पुरानी निर्वाचित सरकार को गिरा दिया था। सिंधिया समर्थक 19 तथा तीन अन्य विधायकों के कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा दे देने से 230 सदस्यीय विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आकर फिर से सत्ता पर काबिज हो गई थी।

भाजपा की सरकार बनवाने के बदले सिंधिया को पुरस्कार स्वरूप पहले राज्यसभा में भेजा गया। फिर उनके साथ विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में आए ज्यादातर समर्थकों को राज्य सरकार में मंत्री बना दिया गया। सिंधिया की जिद पर उनके समर्थक मंत्रियों को महत्वपूर्ण विभाग भी दे दिए गए। विधानसभा से इस्तीफा देने वाले जो मंत्री नहीं बनाए जा सके उन्हें निगमों और मंडलों का अध्यक्ष बनाकर मंत्री का दर्जा दे दिया गया। यही नहीं, विधानसभा से इस्तीफा देने वाले सभी समर्थकों को उपचुनाव में पार्टी की ओर से उम्मीदवार भी बना दिया गया।

इसके बावजूद फिलहाल कहा नहीं जा सकता कि उपचुनाव लड़ रहे सिंधिया के 19 समर्थकों में से कितनों की विधानसभा में वापसी होगी। यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि उनके जो समर्थक चुनाव जीतेंगे, उनमें से कितनों की निष्ठा पहले की तरह सिंधिया के साथ रहेगी?

बहरहाल, राज्य में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव भाजपा पूरी तरह अपने दम पर लड़ रही है और सिंधिया के सभी समर्थकों को टिकट देने और उनके असर वाले इलाके में चुनाव होने के बावजूद भाजपा उन्हें वह अहमियत नहीं दे रही है, जिसकी अपेक्षा वे और उनके समर्थक करते हैं। प्रदेश भाजपा का पूरा नेतृत्व चुनाव में लगा हुआ है और धर्मेंद्र प्रधान सहित चार केंद्रीय मंत्री उपचुनाव की कमान संभाल रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद भी धुआंधार प्रचार में जुटे हुए हैं।

भाजपा सिंधिया की किस कदर उपेक्षा कर रही है या उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं दे रही है, इसका अंदाजा चुनाव प्रचार के लिए जारी भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची देखकर भी लगाया जा सकता है। तीस स्टार प्रचारकों की इस सूची में सिंधिया को दसवें स्थान पर रखा गया है। यही नहीं, तीस नेताओं की सूची में सिंधिया समर्थक किसी नेता या मंत्री का नाम नहीं है।

दरअसल भाजपा ने उपचुनाव के लिए जारी अभियान के बीचोबीच अपनी रणनीति में बड़ा फेरबदल किया है। बदली हुई रणनीति के मुताबिक सिंधिया अब इस चुनाव में भाजपा के पोस्टर बॉय नहीं होंगे। पिछले सप्ताह पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष द्बारा विभिन्न चुनाव क्षेत्रों के लिए रवाना किए गए हाईटैक चुनावी रथों पर अन्य नेताओं के साथ सिंधिया की तस्वीर न लगा कर पार्टी ने अपनी बदली हुई रणनीति का संकेत दे दिया। इन रथों पर हर तरफ सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा की तस्वीरें लगी हैं। रथों पर नारा लिखा है- 'शिवराज है तो विश्वास है।’

सवाल है कि आखिर भाजपा को अपनी रणनीति में एकाएक यह बदलाव कर सिंधिया को किनारे क्यों करना पड़ा? बताया जाता है कि उपचुनाव वाले क्षेत्रों में जनता के बीच सिंधिया के विरोध ने भाजपा के चिंता पैदा कर दी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने सर्वे में यह फीडबैक मिला है कि सिंधिया के दलबदल को लोगों ने पसंद नहीं किया है। बताया जाता है कि ऐसी ही रिपोर्ट राज्य सरकार को अपने खुफिया विभाग से भी मिली है।

उपचुनाव के एलान से पहले शिवराज सिंह और सिंधिया उपचुनाव वाले क्षेत्रों के दौरे पर जब एक साथ निकले थे तो पहले दौरे में ही उन्हें लोगों की नाराजगी से रूबरू होना पडा था। अपने ही कथित प्रभाव वाले क्षेत्रों में सिंधिया को कई जगहों पर काले झंडे और 'गद्दार वापस जाओ’ के नारों का भी सामना करना पडा था। इन्हीं सारी सूचनाओं के आधार पर संघ और भाजपा के भीतर विचार-विमर्श हुआ और यह माना गया कि उपचुनाव के लिए प्रचार अभियान में अगर सिंधिया को आगे रखा गया तो पार्टी को नुकसान हो सकता है।

करीब 18 साल के अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में सिंधिया जब तक कांग्रेस में रहे, तब तक ग्वालियर चंबल संभाग में किसी चुनाव के दौरान ऐसा नहीं हुआ कि पार्टी के पोस्टर, बैनर, और होर्डिंग्स पर उनकी तस्वीर न छपी हो, लेकिन अब भाजपा में जाने के बाद इतने महत्वपूर्ण चुनाव में प्रचार सामग्री पर उनकी तस्वीर का न होना और उन्हें नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में न रखना उनके लिए भी और उनके समर्थकों के लिए भी एक बडा संकेत है। भाजपा में सिंधिया की इस ताजा स्थिति पर कांग्रेस के नेता तंज कर रहे हैं कि क्या इसी सम्मान की खातिर वे कांग्रेस छोड कर भाजपा में गए थे!

गौरतलब है कि सिंधिया ने आठ महीने पहले यह कहते हुए कांग्रेस से इस्तीफा दिया था कि पार्टी में उनका अपमान हो रहा है, जबकि प्रदेश स्तर पर कांग्रेस में सिंधिया की गिनती तीन शीर्ष नेताओं में होती थी। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के साथ उनकी तस्वीर होर्डिंग्स और पोस्टरों पर लगती थी। वे प्रदेश की चुनाव अभियान समिति के मुखिया थे। विधानसभा चुनाव के टिकटों वितरण में भी उन्होंने बड़ी संख्या में अपने समर्थकों को टिकट दिलवाए थे। राज्य मंत्रिमंडल में भी उनके समर्थकों की खासी संख्या थी।

यही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी वे पार्टी के महासचिव और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य थे। इससे पहले वे चार बार कांग्रेस की ओर से लोकसभा के सदस्य और केंद्र सरकार में मंत्री रहे। यह सब कुछ उन्हें महज 18 साल के राजनीतिक जीवन में हासिल हुआ था, जिसके लिए उन्हें आम कार्यकर्ता की तरह जरा भी मेहनत मशक्कत नहीं करनी पड़ी थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वे वंशवादी राजनीति के रंगरूट थे और अपने पिता माधवराव सिंधिया की असामयिक मृत्यु की बाद उनकी विरासत के दावेदार के तौर पर राजनीति में आए थे।

दरअसल चार मर्तबा लोकसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने खुद को अजेय मान लिया था। लेकिन 2019 में उनके पांचवे लोकसभा चुनाव में उनका यह भ्रम दूर हो गया। उन्हें भाजपा उम्मीदवार के तौर पर उस व्यक्ति के मुकाबले हार का मुंह देखना पडा, जो कभी कांग्रेस में उनका ही एक कार्यकर्ता हुआ करता था। इसके बावजूद कांग्रेस में उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। उनकी गिनती पार्टी के टॉप टेन नेताओं में होती थी और कांग्रेस के अध्यक्ष पद तक के लिए उनका नाम चर्चा आने लगा था।

बहरहाल, कांग्रेस में सिंधिया की जो हैसियत थी, उसकी तुलना में भाजपा में तो वे प्रदेश स्तर पर भी दसवें नंबर के नेता हैं। पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर तो वे किसी गिनती में ही नहीं आते हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दे दी जाए, लेकिन मंत्री बनने के बाद भी उनकी हैसियत में कोई इजाफा नहीं होना है। वह हैसियत तो उन्हें हर्गिज हासिल नहीं होनी है, जो कांग्रेस में उनकी थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : मध्य प्रदेश में 28 सीटों पर उपचुनाव: देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व घटना

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