''वोट बैंक की राजनीति भारत की अगुआई करने वालों पर इतनी अधिक हावी हो गयी है कि उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं कि भारत के विचार का क्या हश्र होगा? क्या आपने किताबों में पढ़ा था कि भारत को इतना कमतर किया जाएगा कि वह धर्मों के आधार पर नागरिकता देने लगे। ऐसी बातें सुनकर भारत के गौरवशाली विचार से नजरें झुक जाती है। यह राम मंदिर की तरह भाजपा की तरफ से छोड़ा गया अगला हथियार है, जिससे वह लोगों के बीच सांप्रदायिकता को बढ़ाकर वोट हासिल करने की कोशिश करेगी। लेकिन हम इसके खिलाफ बहुत पहले से बोलते आये हैं और अंतिम दम तक बोलते रहेंगे।''
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र मृत्युंजय अपनी बात रख ही रहे थे कि भीड़ से नारों की आवाज गूंजी। मृत्युंजय जैसे सैकड़ों छात्र दिल्ली के संसद मार्ग पर ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोशियसन (आइसा) के बैनर तले नागरिकता संशोधन बिल पर विरोध दर्ज करने एकजुट हुए।
सुप्रीम कोर्ट की वकील शिवली शर्मा भी इस प्रदर्शन में शामिल होने आयी थीं। शिवली शर्मा का कहना है कि मोटे तौर पर समझा जाए तो इस बिल के जरिये भारत को एक ऐसे जगह में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है, जहां मुस्लिमों की सिवाय सबका स्वागत है। यह सीधे तौर पर भारतीय संविधान का उल्लंघन है। भारतीय संविधान से मिले अनुच्छेद 14 के प्रवधानों का उल्लंघन है, जो सभी के लिए समानता की बात करता है। इस बिल की अंतिम पेज पर इस बिल को लाने की वजहों का ब्योरा दिया गया है। वजह यह बताई गयी है पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में मुस्लिमों के सिवाय दूसरे समुदाय प्रताड़ित होते हैं।

इसलिए इन प्रताड़ित समूहों की भारत में एंट्री को अवैध प्रवासी के तौर पर नहीं माना जाएगा। यह तर्क सुनने में तो सही लगता है, लेकिन यह पूरी तरह से मनगढ़ंत तर्क है। भारतीय राज्य कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस्लाम के सिवाय दूसरे समुदाय के लोग इन तीन देशों में प्रताड़ित होते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि प्रताड़ना हर देश में हर धर्म और समुदाय के लोगों के साथ होती है। राज्य अपने प्रशासन के जरिये उसे ठीक करता रहता है। आप ही बताइये कि अगर कल को कोई भारत से कहे कि आपके यहाँ दलितों पर जुल्म ढाहा जाता है तो आप क्या सोचेंगे? एक भारतीय होने के नाते आपको ऐसा लगेगा कि आपकी सम्प्रभुता पर हमला किया जा रहा है।
ठीक ऐसा ही भारतीय राज्य दूसरे राज्यों के साथ कर रहा है।इनकी बात को आगे ले जाते हुए जब प्रदर्शन में शामिल पोलिटिकल साइंस की छात्रा शुभिका से बात की तो शुभिका ने बताया कि संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित समानता के मकसद को पूरा करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सबको विधि के समक्ष समानता का अधिकार हासिल है। इसलिए तर्कसंगत मकसदों को पूरा करने के लिए ही नागरिकों के बीच वर्गीकरण किया जाता है। जैसे आरक्षण और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए वर्गीकरण किया गया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम मनगढ़ंत आधारों पर वर्गीकरण करते चले। नागरिकता जैसा विषय तब सामने आता है , जब एक लोकतांत्रिक राज्य की उत्पति होती है।

अगर राज्य जैसी कोई संस्था नहीं है तो आप नागरिक होने के बजाय केवल लोग हैं। इसलिए भारत अगर खुद को आधुनिक राज्य कहता है तो नागरिकता देने के लिए ऐसा कोई भी वर्गीकरण उचित नहीं है , जो धर्म पर आधारित हो। संसद इसे पास भी कर दे लेकिन न्यायालय में अगर यह सवाल याचिका के तौर पर जाएगा तो इसे ख़ारिज करना ही होगा। अगर न्यायालय ने ऐसा नहीं किया तो आप ये समझिये कि आपने सबकुछ गंवा दिया है।
वहीं पर असम राज्य के सम्बन्ध रखने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी विक्रम सिंह भी आये थे। उनसे जब इस विषय पर बात की तो उन्होंने कहा कि ऐसे बिलों की वजह से ही लगता है कि पूर्वोतर भारत से खुद को अलग-थलग महसूस करता रहे। इस सरकार को हमारे अधिकारों की कोई चिंता नहीं है। उसे हमारे नाम पर हिंदी प्रदेशों में हिन्दू-मुस्लिम राजनीति करनी है। और इस राजनीति में हम जैसे पिसते हैं। नागरिकता संशोधन बिल में पूर्वोत्तर को अपवाद के तौर पर रखा गया है। यानी पूर्वोत्तर में जो भी आये किसी को अवैध प्रवासी घोषित नहीं किया जाएगा। असम समझौते के मुताबिक प्रवासियों को वैधता प्रदान करने की तारीख़ 25 मार्च 1971 है, लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक में इसे 31 दिसंबर 2014 माना गया है।
असम में सारा विरोध इसी नई कट-ऑफ़ डेट को लेकर है। नागरिकता संशोधन विधेयक में नई कट-ऑफ़ डेट की वजह से उन लोगों के लिए भी रास्ता साफ़ हो जाएगा जो 31 दिसंबर 2014 से पहले असम में दाख़िल हुए थे। इससे उन लोगों को भी असम की नागरिकता मिल सकेगी जिनके नाम एनआरसी प्रक्रिया के दौरान बाहर कर दिए गए थे। लेकिन असम समझौते के मुताबिक, उन हिंदू और मुसलमानों को वापस भेजने की बात कही गई थी जो असम में 25 मार्च 1971 के बाद दाख़िल हुए थे। इस विरोधाभास की वजह से असम में आबादी का एक बड़ा हिस्सा नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहा है।
आगे जब बात चली तो इस विरोध प्रदर्शन में खड़े मोहम्मद असलम से बात हुई।असलम ने कहा कि एक भारतीय होने के नाते हमें अपने देश में कभी अजीब महसूस नहीं होता है लेकिन जैसे ही हम थोड़े राजनीतिक होते हैं या थोड़े प्रभावी होते हैं तो बहुत सारे लोग हमें जिन निगाहों से देखते हैं। उन निगाहों में अपनत्व नहीं होता। अलगाव और दुराव की भावना होती है। दुखद बात यह है कि नागरिकता संशोधन बिल की वजह से अब इस अलगाव को कानून का रूप दिया जा रहा है। आज हमें अपनी गंगा-जमुनी तहजीब की सबसे अधिक जरूरत है। जब तक पूरा भारत विरोध नहीं करेगा तब तक काम नहीं चलने वाला। आपने देखा ही देखते - देखते लोकसाभा से बिल पास कर दिया गया।