NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कानून
भारत
न्याय वितरण प्रणाली का ‘भारतीयकरण’
भारत के मुख्य न्यायाधीश ने हाल ही में दो मौकों पर न्याय देने वाली प्रणाली के भारतीयकरण किए जाने की बात उठाई है।
विक्रम हेगडे
29 Sep 2021
NV Ramana
भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना

देश की न्यायिक व्यवस्था के भारतीयकरण किए जाने की आवश्यकता के बारे में मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन की हालिया टिप्पणी के आलोक में विक्रम हेगड़े अपने लेख में यह जांचने का प्रयास करते हैं कि क्या ऐसा भारतीयकरण हमारी कानूनी प्रणाली एवं न्यायिक प्रक्रिया के लिए आवश्यक होगा। 

संविधान सभा में लगभग समापन की ओर बढ़ रहे विमर्श के दौरान केनगल हनुमंथैया ने, जिन्हें बाद में मैसूर राज्य (अब कनार्टक) का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था, एक टिप्पणी की थी:

“हम तो अपने लिए वीणा या सितार का संगीत चाहते थे, लेकिन यहां हमारे पास इंग्लिश बैंड का संगीत है।”

भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया के दौरान निर्माताओं के परस्पर विवेचन-विश्लेषणों में उभरा यह यादगार रह जाने वाला उद्धरण, दरअसल देश में इसके बाद निरंतर जारी रहने वाले इस विमर्श का हिस्सा था कि हमारी राजनीति, प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था का स्वरूप “पर्याप्त भारतीय नहीं है।” 

औपनिवेशिक प्रभावों के बारे में शिकायतें

यह आरोप देश के तमाम राजनीतिक एवं विचारधारात्मक परिदृश्य से जुड़े व्यक्तियों ने लगाया है और इसके कई आयाम हैं। देश की मौजूदा नौकरशाही, जिसकी जड़ें औपनिवेशिक युग की भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं, के बारे में कहा जाता है कि वह स्वशासी कल्याणकारी राज्य की बजाए प्राप्त अपने को साम्राज्यवादी ताकतों के ज्यादा मुफीद पाती है।

पुलिस एवं लोक के साथ उसके संबंध उन लोगों का एक अन्य निशाना है, जो व्यवस्था के अधूरे-अपर्याप्त भारतीयकरण के बारे में शिकायतें करते हैं। पुलिस के बारे में कहा जाता है कि वह खुद एक कठोर बल की मानसिकता से अभी भी बाहर नहीं आ पाई है, जिसका उद्देश्य अर्ध-सभ्य मूल निवासियों को जैसे भी कानून के दायरे में रखना था। 

औपनिवेशिक प्रभावों के अवशेष रह जाने के बारे में सबसे गंभीर शिकायत हमारी न्यायिक व्यवस्था से है, जो शायद देश की अन्य किसी भी संस्था के लिहाजन सबसे अधिक अ-भारतीय है। इसके पदाधिकारियों एवं सेवा प्रदाताओं के पहनावे, जो भाषा वे बोलते हैं, और बहुत सारे कानून जिसकी वे व्याख्या करते हैं और उन्हें लागू करते हैं, वे सब के सब सीधे-स्पष्ट रूप से हमारे पूर्ववर्ती औपनिवेशिक प्रभुओं से लिए गए हैं। 

भारत के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी 

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन ने विगत सप्ताह दो अलग-अलग सार्वजनिक अवसरों पर न्याय देने वाली हमारी व्यवस्था के भारतीयकरण की आवश्यकता के बारे में बताया है। 

न्यायमूर्ति रमन देश की न्याय देने वाली व्यवस्था के भारतीयकरण की अवधारणा का जो अर्थ लगाते हैं, वह बदलाव के एक मार्गदर्शन के रूप में काम करेगा। उनसे हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे न्यायपालिका के सर्वोच्च पद के अपने शेष कार्यकाल में ये बदलाव लाएंगे। 

“भारतीयकरण” के अन्य कारकों में भारत में प्रशासनिक एवं कानूनी व्यवस्था है, जो अक्सर उन प्रथागत, पारंपरिक या ऐतिहासिक मॉडलों और विचार प्रणालियों से आकर्षित होती है, जिन्होंने भारत में औपनिवेशिक शासन कायम होने से पहले कई वर्षों तक देश पर शासन किया था, और उनमें से कुछ तो ब्रिटिश राज के दौरान भी जारी रहे थे। यहां हम याद कर सकते हैं कि हमारे पूर्वजों ने इनमें से कई व्यवस्थाओं को असमानतापूर्ण मानते हुए खारिज कर दिया था कि ये एक आधुनिक लोकतंत्र में जगह नहीं ले सकतीं। 

लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा व्यक्त की गई न्याय वितरण प्रणाली के भारतीयकरण की परियोजना इस तर्ज पर नहीं है। जबकि उन्होंने मौजूदा हमारी कानूनी प्रक्रिया को देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित कई भाषाओं में अधिक से अधिक अनुपात में संचालन करने का आह्वान किया है। इसके पीछे उनका इरादा अतीत के कथित किसी सुनहले युग को पुनरुज्जीवित करना नहीं है बल्कि कानूनी प्रक्रिया को अधिकाधिक सहभागी एवं स्वभावतः समावेशी बनाना है। 

अंग्रेजी देश के केवल 6 से 10 फीसदी लोगों की पहली, दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में बोली जाती है। उस भाषा का उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय स्तर की वैधानिक प्रक्रियायों पर लगभग वर्चस्व बना हुआ है।

जबकि कई स्थानीय अदालतें, जहां वे अवस्थित होती हैं, उस क्षेत्र की भारतीय भाषा में व्यवहार करती हैं, लेकिन लागू होने वाला कानून अंग्रेजी में लिखा होता है और उनके फैसले पुनर्विचार के लिए अंग्रेजीभाषी अदालत के समक्ष जाते हैं। यह समूची प्रक्रिया भारत के लोगों के व्यापक हिस्से को देश के ही कानूनों की सटीक एवं सीधी समझदारी से वंचित कर देती है। 

इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से एक परियोजना की शुरुआत 2019 में की गई थी। इसके तहत न्यायालयों के निर्णयों के अधिकृत अनुवाद देश की नौ क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराए जाते हैं। जो मामला जिस राज्य से संबद्ध होता है, उससे संबंधित फैसले को वहीं की क्षेत्रीय भाषा में तर्जुमा कराया जाता है, जो एक सराहनीय कदम है। हालांकि कोविड-19 के दौरान जीवन के समस्त क्रिया-कलापों में बाधा आने पर यह काम थोड़ा मंदा पड़ गया था पर यह रुक-रुक कर चल रहा है। 

फैसलों के अनुवाद के काम को न केवल पूरे रौ में लाया जाने और गंवा दिए गए वक्त की भरपाई की जानी चाहिए बल्कि इसका विस्तार ऐसे किया जाए कि विभिन्न न्यायालयों द्वारा दिए गए अहम फैसलों का तर्जुमा संविधान की आठवीं सूची में शामिल सभी भाषाओं में कराया जाए।

संविधान का अनुच्छेद 348 (2) प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वह अपने से संबद्ध उच्च न्यायालय की कार्यवाही में राज्य की आधिकारिक भाषा का उपयोग करे। इस दिशा में विभिन्न राज्यों द्वारा किए गए प्रयासों पर केंद्र सरकार ने यह कहते हुए बारहां अडंगा लगा दिया है कि इस पर 1965 के कैबिनेट कमेटी प्रस्ताव के संदर्भ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की स्वीकृति आवश्यक है। न्यायालयों में भारतीय भाषाओं को महत्व देने की आवश्यकता को स्वीकार करने की मुख्य न्यायाधीश की घोषित स्थिति इस मांग को फिर से मजबूत कर सकती है।

हम यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि अंग्रेजी बोलने वाले, जिनमें इसे धाराप्रवाह बोलने वाले लोग भी शामिल हैं, वे हमारे विधानों, निर्णयों एवं सरकारी अधिसूचनाओं में व्यक्त की गई विशेष शब्दावली को आसानी से समझने में सक्षम होंगे। कानून को रखने वाले दस्तावेजों की लंबाई एवं उसकी जटिलता और कानूनी कार्यवाहियों की गूढ़ता एक दिक्कत है, जिसको मुख्य न्यायाधीश ने भी माना है, हालांकि हल्के ढ़ंग से। 

शायद इस स्थिति में सुधार के उपाय शीर्ष न्यायपालिका द्वारा किए जाने वाले आत्ममंथन में भी है, और हम सकारात्मक रूप से उम्मीद कर सकते हैं कि यह मानना कि समस्या है, उसके समाधान की दिशा में पहला कदम है।

मुख्य न्यायाधीश द्वारा सुझाए गए अन्य उपाय 

चीफ जस्टिस ने लोगों के न्याय की देहरी तक सहुलियत से पहुंच में रुकावट बन रही प्रक्रियागत बाधाओं पर भी सवाल उठाया है। इसके लिए उन्होंने प्रक्रियाओं का सरलीकरण करने और विवाद के समाधान की वैकल्पिक पद्दितयों की व्यापक भागीदारी का सुझाव दिया है, जिसको कानूनी व्यवस्था के केंद्र बिंदु के रूप में वादी की मान्यता के संदर्भ में व्याख्यायित किया जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश का यह सुझाव पारंपरिक पंचायतों के अपरिष्कृत और तैयार न्याय-व्यवस्था का प्रत्यावर्तन नहीं है, बल्कि उनमें कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था में सुधार लाने के जरिए उन्हें अधिक से अधिक वादी के अनुकूल बनाने की बात है। 

भारतीयकरण की प्रक्रिया का आशय मौजूदा व्यवस्था में एकबारगी ही इतना व्यापक बदलाव करने से नहीं है, जिसको इतिहासकार एवं मानवविज्ञानी भारतीय परंपरा एवं संस्कृति के रूप में मानते हैं, किंतु यह केवल भारतीयता के व्यापक आधार को देश की व्यवस्थाओं का हिस्सा बनाने से है। 

(विक्रम हेगड़े सर्वोच्च न्यायालय में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

सौजन्य: दि लीफ्लेट 

CJI
Justice NV Ramana
Indian judiciary

Related Stories

अदालत ने वरवर राव की स्थायी जमानत दिए जाने संबंधी याचिका ख़ारिज की

जजों की भारी कमी के बीच भारतीय अदालतों में 4.5 करोड़ मामले लंबित, कैदियों से खचाखच भरी जेलें

लिव-इन रिश्तों पर न्यायपालिका की अलग-अलग राय

सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय बेंचों की ज़रूरत पर एक नज़रिया

जेंडर के मुद्दे पर न्यायपालिका को संवेदनशील होने की ज़रूरत है!

क्या सीजेआई हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल कर सकते हैं?

गर्भपात पर एक प्रगतिशील फ़ैसला, लेकिन 'सामाजिक लांछन' का डर बरक़रार

न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाती है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि किसको न्यायाधीश नियुक्त किया गया है : इंदिरा जयसिंह  

क्या सूचना का अधिकार क़ानून सूचना को गुमराह करने का क़ानून  बन जाएगा?

क्या कॉलेजियम सिस्टम भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित कर पाएगा?


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License