NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
पर्यावरण
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
काॅप 26 और काॅरपोरेट
वैश्विक काॅरपोरेट घरानों के लिए कार्बन नियंत्रण के कोई लक्ष्य नहीं तय किये गए हैं, क्योंकि यह मुद्दा काॅप 26 के ऐजेन्डे में आया ही नहीं।
बी. सिवरामन
13 Nov 2021
cop 26

‘पूंजीवाद हमारे ग्रह को खत्म कर रहा है!’’- ग्लास्गो में हो रहे यूएन क्लाइइमेट काॅन्फरेन्स काॅप 26 के दौरान मार्च कर रहे 1 लाख युवाओं का मुख्य नारा यही था। सम्मेलन का कल ही स्काॅटलैंड के इस शहर में समापन हुआ। पर यह किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका और समझौते के लिये बातचीत जारी रहेगी। शुक्रवार को जो परिवर्तित मसौदा प्रस्तुत किया गया, उसमें कोई नए उत्सर्जन टार्गेट नहीं लिए गए और पैरिस का पुराना वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य दोहराया गया। जरूर एक अस्पष्ट अपील थी कि सभी देश पैरिस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपने टार्गेट 3 साल पहले-यानि 2022 तक पूरा कर लें।

यदि पैरिस के लक्ष्य को हासिल करना है, तो 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 26.6 गिगा टन तक घटाना होगा, पर काॅप 26 में आए नेताओं के वायदों का योग निकालें, तो यह केवल 41.9 गिगा टन घटेगा। तो ग्लोबल वार्मिंग भी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित न होकर 2.4 डिग्री सेल्सियस पर रहेगा।

शुक्रवार सुबह के 7 पेज के अपडेटेड मसौदे में फिर एक अस्पष्ट आह्वान है कि कोयले का प्रयोग और फाॅसिल फ्युएल सब्सिडी बन्द किये जाएं, जिससे मुख्य रूप से काॅरपोरेट घरानों को लाभ होगा। पर बन्द करने का कोई ठोस समझौता और इन्हें खत्म करने की ठोस तारीखें या टार्गेट नहीं तय किये गए। शाम को दूसरा मसौदा पेश हुआ तो उसमें यह प्रावधान और भी हल्का कर दिया गया। काॅप 26 में उपस्थित यूएस क्लाइमेट प्रतिनिधि एफ. केरी ने अन्तिम दिन कुछ जुमले सुनाए कि तेल, गैस और कोयला उत्पादन के लिए सरकारी सब्सिडी ‘‘पागलपन की परिभाषा’’ है, पर वे बाइडेन सरकार द्वारा यूएस के फाॅसिल फ्युएल काॅरपोरेटों को 20 अरब डाॅलर वार्षिक सब्सिडी पर चुप रहे।

विकसित देशों से अधिक क्लाइमेट फाइनैंस पर भी कोई समझौता नहीं हुआ और पुनः पैरिस का 100 अरब डाॅलर का वायदा दोहराया गया। काॅरपोरेटों पर कार्बन टैक्स की बात कैसे होती, जब वह ऐजेन्डा में ही नहीं था। संशोधित मसौदे पर भी सहमति नहीं बन सकी। शनिवार को ‘कम्प्रोमाइज़ ड्राफ्ट पेश होगा। इस लेख के लिखने तक बातचीत जारी है, पर कोई बड़े ब्रेकथ्रू की आशा नहीं है। लगता है काॅप 26 भी सफल नहीं माना जाएगा।

तो क्या यह पूछना लाज़मी नहीं है कि आखिर काॅप 26 का वैश्विक काॅरपोरेटों पर क्या प्रभाव होगा?

जलवायु पहलकद्मियों के पूंजीवाद पर दो विस्तृत किस्म के प्रभाव दिखते हैं।

एक तरफ, पूंजीवाद, खासकर विकसित देशों में पूंजीवाद, जो ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य गुनहगार है, अब एक नए अवतार में आया है- ‘ग्रीन कैपिटलिज़्म’। अब वह हरित उद्यमों, यानि ग्रीन वेन्चर्स में भारी मुनाफे की संभावनाएं देख रहा है क्योंकि लगभग सभी सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से जलवायू-संबंधी पहलकद्मियों के लिए भारी मात्रा में फंड आने वाले हैं।

दूसरी ओर, पूंजीवादियों पर भी पूंजीवाद-विरोधियों और ग्रीन ऐक्टिविस्टों की ओर से काफी दबाव पड़ रहा है कि वे अपने ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन टार्गेटों को हासिल करें। इसके मायने हैं कि उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों को हरित प्रौद्योगिकियों पर निवेश करना पड़ेगा ताकि वे अपने कार्बन उत्सर्जन कम करें और नेट उत्सर्जन को शून्य तक ले आएं। नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के मायने हैं अपने उत्सर्जन के बढ़े स्तर की भरपाई करने के लिए वायूमंण्डल से कार्बन की जब्ती, यानि सीक्वेस्ट्रेशन के लिए पूंजी खर्च करना। अर्थात उन्हें हरित प्रौद्योगिकी पर भारी खर्च करने होंगे, जिसके चलते मुनाफे में आनुपातिक कमी आएगी।

पर्यावरण विदों की ओर से मांगे भी उठ रही हैं कि काॅरपोरेटों पर अधिक सख्त कार्बन कंट्रोल उपाय लागू किये जाएं अैर उन्हें संपूर्ण जलवायु खर्च में ग्रीन टैक्स और कार्बन टैक्स के माध्यम से योगदान देने पर बाध्य किया जाए। क्या काॅरपोरेटों पर संबंधित सरकारों द्वारा जलवायु उपायों को लागू करवाने के लिए ग्लासगो वैश्विक सम्मेलन का कोई विशेष ऐजेन्डा था? काॅप 26 में 100 बड़े काॅरपोरेटों का स्वयं आगे आकर, ग्रीन टैक्स के माध्यम से, वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के लिए योगदान देने हेतु प्र्रतिबद्धता जताने के पीछे रहस्य क्या है? और काॅरपोरेट मीडिया के बीच से कुछ का यह कहना कि फाॅसिल फ्यूएल के दाम बढ़ाना भी एक समाधान हो सकता है-इससे क्या समझा जाए?

बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर मार्क कार्नी काॅप 26 में उपस्थित 197 देशों के पूंजी बाज़ारों के आकार का जो अनुमान लगाते हैं, वह 120 खरब डाॅलर है! यह अमेरिका के जीडीपी का करीब 6 गुना है। यह पूंजी, जो निवेश आउटलेटों में प्रवेश करने वाली है, जलवायू संकट, जो महामारी के बाद ग्रह और मानव जाति का सबसे बड़ा संकट है, को कम करने में क्या योगदान देगी? जिस संकट को मुख्यतः पूंजीवाद ने स्वयं पैदा किया है।

आइये हम एक बैलेंस शीट तैयार करें।

जलवायु न्याय की कीमत

यूएन ने सतत् विकास लक्ष्यों का एक ऐजेन्डा स्वीकृत किया है, जिसे 2030 तक हासिल करना है और ओईसीडी यानि आॅर्गनाइज़ेशन फाॅर इकनाॅमिक कोऑपरेशन ऐण्ड डेवलपमेंट ने अनुमान लगाया है कि इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सभी देशों की सरकारों को 2030 तक 2.3 खरब डालर प्रति वर्ष का खर्च उठाना पड़ेगा। यदि पैरिस जलवायु टार्गेटों को शामिल कर लिया जाए तो यह खर्च बढ़कर 2.9 खरब डाॅलर प्रति वर्ष तक पहुंचेगा, और यह अगले 10 वर्ष चलेगा, जैसा कि ओईसीडी का प्रकाशन ‘‘फाइनैंन्सिंग क्लाइमेट फ्यूचर्स’’ भविष्यवाणी करता है। अन्य शब्दों में कहें तो ओईसीडी के अनुसार 2030 तक पैरिस जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने का मतलब होगा 2030 तक प्रति वर्ष अतिरिक्त 600 अरब डाॅलर का खर्च। क्या यह विश्व की सरकारों के बूते की बात है?

सिपरी-स्वीडिश इंटरनैश्नल पीस रिसर्च इंस्टिटियूट ने अनुमान लगाया है कि 2020 में यूएस का रक्षा बजट 778 अरब $ था; यदि विश्व के सभी देशों के रक्षा बजट लें तो वह 2020 में तकरीबन 2 खरब डाॅलर था। पर वाॅशिंगटन से लेकर बीजिंग तक और माॅस्को से लेकर नई दिल्ली तक, युद्धसामाग्र के जरिये परिकल्पित सुरक्षा तो जलवायु सुरक्षा से भी बड़ी प्राथमिकता लगती है।

विश्व बैंक के आंकड़े तो और भी अधिक चैंकाने वाले हैंः

यदि काबू न किया गया तो जलवायु परिवर्तन अगले 10 वर्षों में 13.2 करोड़ लोगों को गरीबी में धकेल देगा, जिसकी वजह से मेहनत से अर्जित सारा विकास लाभ मिट्टी में मिल जाएंगे। विश्व बैंक ने यह भी अनुमान लगाया है कि प्राकृतिक आपदायें, जो मुख्यतः जलवायु परिर्वतन के कारण ट्रिगर होंगी, अगले 10 वर्षों तक 400 अरब डालर प्रति वर्ष का नुक्सान करेंगी। इस संदर्भ में देखें तो मानवजाति और हमारे ग्रह को बचाने के लिए अगले दशक में 600 अरब डाॅलर प्रति वर्ष का खर्च बहुत बड़ी बात नहीं है। पर प्रश्न तो यह है कि क्यों केवल सरकारें ही खर्च करें? क्यों हम और आप जैसे करदाता जलवायु के बिल को भरने पर बाध्य हों? आखिर, काॅरपोरेट घरानों और व्यापारिक समूहों को क्यों छूट दी गई है?

ओईसीडी का भी अनुमान है कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 60 प्रतिशत तक के लिए तो ऊर्जा उद्योग (खासकर फाॅसिल फृयूएल उद्योग), परिवहन उद्योग, निर्माण उद्योग और सिंचाई व जल आपूर्ति अधिसंरचना जिम्मेदार हैं। प्रदूषकों को खर्च करना होगा यानि ‘प्रोड्यूसर्स शुड पे’ के बहु-प्रचारित सिद्धान्त का क्या हुआ?

क्या प्रदूषक पूंजीपति खर्च वहन करेंगे?

आज काबर्न काॅस्ट्स-यानि वह दाम जो पब्लिक टैक्स के माध्यम से देती है, ताकि जलवायू परिवर्तन के कुप्रभावों-अचानक आने वाले बाढ़ और विकट सुखाड़ के चलते फसल के नुक्सान, बढ़ते तापमान के कारण स्वास्थ्य सेवा का बढ़ता खर्च, तटवर्ती क्षेत्रों में जलप्लावन के चलते नुक्सान आदि की भरपाई हो सके-का सटीक आंकलन किया जा सकता है। संपूर्ण समाज को जो धन की क्षति होती है, उससे हम यह निकाल सकते हैं कि प्रत्येक यूनिट उत्सर्जन के लिए प्रदूषक को कितने पैसों की भरपाई करनी पड़ेगी। तब हरेक उद्योग के लिए उत्सर्जन सीमा तय की जा सकती है।

कार्बन ट्रेडिंग की एक व्यवस्था भी लागू की जा सकती है। इसके तहत जो इकाई तय सीमा से कम उत्सर्जन कर रही है, उसे कार्बन सर्टिफिकेट दिये जा सकते हैं। इन्हें वे उन इकाइयों को ऊंची कीमत पर बेच सकते हैं, जो सीमा से अधिक उत्सर्जन करते हैं, और इस तरह वे भी कार्बन न्यूट्रैलिटी की ओर बढ़ सकते हैं। वैकल्पिक तौर पर जो उद्योग जितना उत्सर्जन करता है, उसके हिसाब से उसपर टैक्स लगाया जा सकता है। यानि, हर तरह से प्रदूषकों को भरपाई करने पर बाध्य किया जा सकता है।

और, काबर्न नियंत्रण की कीमत का सटीक ढंग से हिसाब लगाया जा सकता है-जैसे अलग-अलग उद्योगों के लिए अलग-अलग ‘ग्रीन टेक’ उपकरणों का लगाने का खर्च। ग्रीन ऐक्टिविस्ट मांग कर रहे हैं कि अब यह अत्यावश्यक है कि कार्बन अकाउंटिंग और कार्बन प्राइसिंग की एक व्यवस्था लागू की जाए ताकि हर उद्योग को उसके उत्सर्जन के अनुपात में पैसा भरना पड़े।

विश्व  बैंक के अनुसार आज केवल 40 देश ऐसे हैं जिनके यहां कार्बन प्राइसिंग और कार्बन नियंत्रण की व्यवस्था लागू है। और ये उपाय कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का केवल 13 प्रतिशत कवर करते हैं। ज़ाहिर है कि विश्व को प्रदूषकों को काबू करने और जवाबदेह बनाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। विडम्बना यह है कि प्रदूषण के लिए कार मालिक को पैसा भरना पड़ता है, कार कंपनी के मालिक को नहीं।

मैक्रो-नीति उपायों की ज़रूरत

किसी भी देश के लिए, नेट-ज़ीरो उत्सर्जन स्तर हासिल करने का मतलब है नीतियों में प्रमुख बदलाव, जैसे कि अक्षय हरित ऊर्जा उत्पादन की ओर स्विचओवर कर लेना, मस्लन कोयला-आधारित थर्मल पावर और गैस-आधारित पावर प्लांट्स से सौर्य, पवन और हाईडेल ऊर्जा    के उत्पादन की ओर जाना; इसी प्रकार, पेट्रोलियम-आधारित वाहनों से विद्युत वाहनों की ओर बढ़ना और अधिक वनीकरण करना तथा ग्रीन कवर को बढ़ाना। इन सब को करने में पूंजी खर्च होनी ही है।

और धन उगाही का सबसे बेहतर तरीका है प्रदूषकों पर ग्रीन टैक्स/कार्बन टैक्स लगाना। दुर्भाग्य से अब तक 40 में से केवल 27 देश ऐसा कर रहे हैं। यहां मिकेल नाईबर्ग, जो स्वीडेन के एक प्रख्यात क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट हैं और ‘ग्रीन कैपिटलिज़म’ नामक पुस्तक के लेखक भी हैं, चेतावनी देते हैं और न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं कि इसके साथ ही एकाधिकार-विरोधी कदम भी जुड़ने चाहियेः वे कहते हैं कि ‘‘यह अद्भुत बात है कि स्वीडेन के आईकेईए और वोल्वो सरीखे 100 प्रमुख काॅरपोरेट नेता और काॅरपोरेशनों ने काॅप 26 के दौरान कार्बन टैक्स की मांग की। क्यों? क्योंकि वे एकाधिकार पूंजीपति होने के नाते यह छूट ले लेंगे कि वैश्विक ऊर्जा सप्लाई (फाॅसिल व गैर-फाॅसिल) के बड़े हिस्से पर एकाधिकार जमाए रखें और तेल व्यापार से छोटी कम्पनियों को बाहर कर दें।’’

दूसरे, हमें बड़े टार्गेट घोषित करने वाले नेताओं के बारे में एक स्वस्थ संशय भी मन में रखनी चाहिये। बंगलुरु में रहने वाले सीपीआई एमएल लिबरेशन के ऐक्टिविस्ट पीआरएस मणि कहते हैं, ‘‘आज भारत में ही देखें, दिल्ली सांस नहीं ले पा रही, चेन्नई आकस्मिक बाढ़ में डूब रहा है, और बंगालुरु अपना ग्रीन कवर खोता जा रहा है। बजाए इसके कि इन ज्वलंत जलवायु संबंधित चुनौतियों का ठोस समाधान ढूंढा जाए, मोदी जी को अपना 56-इंच सीना ठोंककर यह कहने में गुरूर महसूस होता है कि 50 साल बाद वे भारत में नेट-ज़ीरो टार्गेट हासिल कर लेंगे। हम बंगलुरु के ग्रीन ऐक्टिविस्ट आज की तारीख में क्लाइमेट ऐक्शन की मांग कर रहे हैं। अभी से लेकर मोदी के कार्यकाल के अगले दो वर्षों तक मोदी जी अपनी हिम्मत दिखानी चाहते हैं तो काॅरपोरेट प्रदूषकों पर टैक्स लागू करें।’’

इनके अलावा वैश्विक जलवायु राजनीति में और भें महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।

क्लाइमेट टार्गेटों को हासिल करने में विकसित देशों की धोखाधड़ी

वैश्विक जलवायु राजनीति में मुख्यतः दो केंद्रीय मुद्दे शामिल हैंः विकसित और विकासशील देश उत्सर्जन नियंत्रण हेतु क्या टार्गेट अपनाएंगे और कितनी समय-सीमा के अंदर उसे हासिल करेंगे। अम्रीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि यूएस 2045 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन स्तर हासिल कर लेगा। यूरोपीय संघ ने 2050 की समय सीमा तय की है और श्री नरेंद्र मादी ने ग्लास्गो में घोषित किया कि भारत 2070 तक इस लक्ष्य को हासिल कर लेगा। क्या गारंटी है कि ये देश 30-50 सालों में लक्ष्य हासिल कर लेंगे जब उन्होंने 2015 में पैरिस में किये गए वादों को पूरा नहीं किया?

पहली बात तो यह है कि इन लक्ष्यों को हासिल करने में पैसे लगेंगे, तो यह पूंजी कौन लगाएगा? यह सच है कि औद्योगीकृत विकसित देश ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं, इसलिये, बजाए विकासशील देशों पर इस खर्च को मढ़ देने के, उन्हें ही खर्च के प्रधान हिस्से को वहन करना चाहिये।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की परिभाषा के अनुसार 152 विकासशील देश हैं जिनकी वर्तमान जनसंख्या 6.61 अरब है और वे सब मिलकर कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 63 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। दूसरी ओर, 37 ओईसीडी विकसित देश, जिनकी कुल जनसंख्या 1.3 अरब है, बाकी 37 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। दूसरे शब्दों में, प्रति व्यक्ति दर के हिसाब से विकसित देश विकासशील देशों की अपेक्षा 3 गुना अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। फिर भी, विकसित देश विकासशील देशों को जबरन बड़े टार्गेट लेने और अधिक खर्च करने पर बाध्य करते रहे हैं।

काफी नोक-झोंक के बाद विकसित देश राज़ी हुए कि वे पैरिस में 100 अरब डाॅलर का एक फंड तैयार करेंगे ताकि विकसित देशों को अपने क्लाइमेट टेार्गेट हासिल करने में मदद मिल सके। पर, न ही इन विकसित देशों ने अपने टार्गेट पूरे किये न ही उन्होंने 100 अरब डाॅलर का वायदा पूरा किया। ट्रम्प ने तो पैरिस समझौते को मानने से ही इन्कार कर दिया था; दूसरे विकसित देशों ने वादाखिलाफी की।

अंतर्राष्ट्रीय फाइनैंस काॅरपोरेशन ने अनुमान लगाया है कि वैश्विक पूंजी के लिए 2030 तक केवल उभरते बाज़ारों में हरित निवेश के अवसर तकरीबन 24.7 खरब डाॅलर के होंगे। ये प्रमुख रूप से होंगे अक्षय ऊर्जा उत्सर्जन नियंत्रण और कार्बन निराकरण या न्यूट्रलाइजे़न प्रौद्योगिकी व विद्युत वाहनों के प्रयोग पर। वैश्विक वित्तीय पूंजीपति अब ‘हरित पूंजीपति’ बन गए हैं, पर उनके विकसित देश इस निवेश के बरखिलाफ केवल 100 अरब डाॅलर का खर्च नहीं उठाना चाहते। साम्राज्यवाद कठोर है! जलवायु साम्राज्यवाद उसका नया अवतार है!

काॅप 26 केवल कारोबारी बतकही का मंच बन कर रहा

जब क्लाइमेट संबंधी चुनौतियों पर एक वैश्विक सम्मेलन हो रहा हो तो हम स्वाभाविक रूप से आशा करेंगे कि प्रमुख मुद्दों पर गंभीर विचार होगा और समाधान निकाले जाएंगे। यद्यपि काॅप 26 में 197 सरकारें उपस्थित हुई थीं, केवल 40 देशों ने नेट-ज़ीरो टार्गेट स्वीकार किये;वह भी अलग-अलग समय सीमा बांधते हुए, जो पैरिस के लक्ष्यों से काफी आगे थे।

लेकिन मिकेल नाइबर्ग न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘हमें बड़े निगमों या काॅरपोरेशनों के नेट-ज़ीरो वायदों के बारे में संशय बर्करार रखना होगा। कई काॅरपोरेशन अब आगे आकर शताब्दी के मध्य तक नेट-ज़ीरो का वादा कर रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि 90 प्रतिशत उत्सर्जन सप्लाई चेन में पैदा होता है, न कि बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा। 10 प्रतिशत गिरावट का खर्च अधिक नहीं है। ऐसा ही हम अपने धनी देश स्वीडेन में देखते हैं। हमारे देश का नेट-ज़ीरो वायदे का क्या मतलब है जब हमारे कार्बन फुटप्रिंट का बड़ा भाग उभोक्ता सामग्रियों के निर्माण से है? पर यह सारा निर्माण तो एशिया और पूर्वी यूरोप के मैनुफैक्चरिंग यूनिटों में होता है।’’

हरित ऐक्टिविस्ट 1.2 खरब डाॅलर का क्लाइमेट फंड मांग रहे हैं। पर 100 अरब डाॅलर तक के लिए कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं दिखाई पड़ती। वैश्विक काॅरपोरेट घरानों के लिए कार्बन नियंत्रण के कोई लक्ष्य नहीं तय किये गए हैं, क्योंकि यह मुद्दा काॅप 26 के ऐजेन्डे में आया ही नहीं।

युवा क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट गे्रटा थुनबर्ग ने काॅप 26 की बहसों का सही ही वर्णन किया- ‘‘ग्रीनवाॅश’’! पर यह देखकर उत्साह बढ़ता है कि 1 लाख युवा इस 18-वर्षीय युवती के पीछे हो लिए और ग्लास्गो की सड़कों पर उतरे। इससे भी अधिक लोग विश्व के विभिन्न हिस्सों में मार्च करते हुए मांग कर रहे थे कि ठोस क्लाइमेट ऐक्शन अभी-के-अभी हो।इससे इतना तो समझ आता है कि काॅॅप 26 ने अप्रत्यक्ष रूप से नई पीढ़ी की जलवायु चेतना में भारी इज़ाफा किया है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

COP26
climate change
Carbon Emission
Developed Countries
developing countries
COP 26 AND CORPORATE

Related Stories

गर्म लहर से भारत में जच्चा-बच्चा की सेहत पर खतरा

मज़दूर वर्ग को सनस्ट्रोक से बचाएं

लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार

जलवायु परिवर्तन : हम मुनाफ़े के लिए ज़िंदगी कुर्बान कर रहे हैं

लगातार गर्म होते ग्रह में, हथियारों पर पैसा ख़र्च किया जा रहा है: 18वाँ न्यूज़लेटर  (2022)

‘जलवायु परिवर्तन’ के चलते दुनियाभर में बढ़ रही प्रचंड गर्मी, भारत में भी बढ़ेगा तापमान

दुनिया भर की: गर्मी व सूखे से मचेगा हाहाकार

जलविद्युत बांध जलवायु संकट का हल नहीं होने के 10 कारण 

संयुक्त राष्ट्र के IPCC ने जलवायु परिवर्तन आपदा को टालने के लिए, अब तक के सबसे कड़े कदमों को उठाने का किया आह्वान 

आईपीसीसी: 2030 तक दुनिया को उत्सर्जन को कम करना होगा


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License