यदि ग़रीबों को ज़रूरी सरकारी सहायता समय पर नहीं पहुंचती है तो लाखों लोगों को भारत बंद के तीसरे सप्ताह में भूखा रहना पड़ सकता है। बहुत सारे स्वैच्छिक संगठन और सरकारी संस्थान देश के विभिन्न हिस्सों में समाज के कमज़ोर तबक़ों के लिए खाद्य सामाग्री और खाद्य पदार्थों की किट मुहैया करने के लिए अपने स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं। लेकिन, मौजूदा लॉकडाउन की वजह से भारत के सबसे कमजोर इलाकों के साथ जन संपर्क के बारे में स्पष्ट तस्वीर नहीं है। हालांकि, माध्यमिक डेटा के उपलब्ध कुल स्तर से, नीति निर्माण के उद्देश्य के लिए कुछ हद तक स्थिति को समझा जा सकता है या उसकी कल्पना करना संभव है।
सरकार ने 2017-18 की खपत पर ख़र्च का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) द्वारा इकट्ठा किया गया यूनिट स्तर डेटा जारी नहीं किया है। इसलिए, भारतीय घरों के वर्ग-वार खपत पर ख़र्च का नवीनतम डेटा वर्ष 2011-12 का ही उपलब्ध है।
यदि हम कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में ग्रामीण मुद्रास्फीति दर और औद्योगिक श्रमिकों (आईडब्ल्यू) के लिए सीपीआई में शहरी मुद्रास्फीति दर पर विचार करते हैं, तो हम 2011-12 के खपत के ख़र्च की संख्या को 2018-19 की लागत में बदल सकते हैं।
इस डेटा के अनुसार, भारत में ग्रामीण आबादी के निचले 5 प्रतिशत लोगों की औसत मासिक प्रति व्यक्ति ख़र्च 687 रुपये है और शहरी भारत में यह 920 रुपये है। जहां तक नीचे से अगली 5 प्रतिशत आबादी का संबंध है, उसका 2018-19 की क़ीमतों में (क्रमशः नीचे दी गई तालिका देखें) ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए, प्रति व्यक्ति औसत खपत पर ख़र्च महज 868 और 1,186 रुपए रहा हैं।
विभिन्न मदों पर मासिक प्रति व्यक्ति औसत ख़र्च (यूपीआर) (2018-19 की क़ीमतों में)

स्रोत: टेबल नंबर 4.1a-R & 4.1a-U, से की गई गणना, भारत में घरेलू उपभोक्ता व्यय पर मुख्य संकेतक के रूप में एनएसएस 68वें चक्र की सर्वे रिपोर्ट (2011-12), NSSO, MoSPI, GoI, जून 2013
यदि हम भारत में इस निचले स्तर की 10 प्रतिशत आबादी को देखते हैं, तो हम पाएंगे कि वे अपने कुल उपभोग या खपत का 60 प्रतिशत खाद्य पदार्थों पर ख़र्च करते हैं और अन्य सभी वस्तुओं पर 40 प्रतिशत से कम ख़र्च करते हैं, जिसमें कपड़े, आश्रय, शिक्षा, स्वास्थ्य, ईंधन और बिजली आदि शामिल हैं। भोजन पर कुल ख़र्च के भीतर, ग्रामीण ग़रीब में 10 प्रतिशत लोग अकेले अनाज पर ही 35 प्रतिशत आम्दनी से अधिक ख़र्च करते हैं। यह अनुपात 10 प्रतिशत शहरी आबादी के निचले हिस्से के लिए लगभग 30 प्रतिशत है। अनाज के अलावा, आबादी के इस वर्ग के उपभोग की टोकरी में अन्य प्रमुख खाद्य पदार्थों में सब्जियां, पेय पदार्थ, खाद्य तेल, दालें, दूध और दूध उत्पाद और मसाले आदि शामिल हैं और ईंधन और रोशनी पर 30-40 प्रतिशत गैर-खाद्य ख़र्च होता है।
यदि हम दैनिक खपत के ख़र्च पर पहुंचने को जानने के लिए इन मासिक संख्याओं को 30 से विभाजित करते हैं, तो 2018-19 की क़ीमतों के हिसाब से हम देखते हैं कि ग्रामीण नीचे की 5 प्रतिशत आबादी औसतन प्रति दिन केवल 2 रुपए प्रति व्यक्ति ख़र्च करती हैं। ये आंकड़े शहर की नीचे की 5 प्रतिशत आबादी के लिए मात्र 3 रुपए हैं, ग्रामीण आबादी के 5-10 प्रतिशत के लिए यह 29 रुपए और शहरी नीचे के 5-10 प्रतिशत के लिए यह 40 रुपए हैं। भोजन पर 5 प्रतिशत नीचे की ग्रामीण आबादी का औसत दैनिक प्रति व्यक्ति ख़र्च क्रमशः14 और 18 रुपए है जबकी शहर की 5-10 प्रतिशत निचले स्तर की आबादी का प्रति व्यक्ति ख़र्च 18 और 23 रुपए है। यह काफी स्पष्ट है कि 18 से 23 रुपए में (ग्रामीण और शहरी क्षेत्र दोनों में) जो भोजन मिलता है, वह उन्हें पर्याप्त पोषण और प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करता है।
इससे एक बात स्पष्ट है कि इन लोगों के पास अब कोई पर्याप्त बचत नहीं है और जो कुछ बचत थी वह लॉकडाउन के कारण पिछले दो हफ्तों में खत्म हो चुकी हैं। अगर हमारे देश की आबादी 130 करोड़ है तो इस जनसंख्या का आकार 13 करोड़ या 130 मिलियन बैठता है।
एनएसएसओ 2011-12 के एक अनुमान के अनुसार, इस आबादी का 40 प्रतिशत शहरी और 60 प्रतिशत ग्रामीण भारत में रहता हैं। अगर इस आबादी के बेहद कमजोर तबके का सिर्फ 1 प्रतिशत भी भूखा है, तो इसका मतलब है कि 13 लाख से ज्यादा लोग भूखे हैं। यह स्थिति की गंभीरता है।
इसकी तुलना में, अब तक, भारत में कोरोनावायरस या कोविड़-19 केसों की कुल संख्या 6,000 से भी कम है और मौतें 200 से भी कम है। यानि प्रति 1,000 जनसंख्या पर 7.2 की मृत्यु दर और 130 करोड़ की कुल जनसंख्या को देखते हुए भारत में हर महीने औसतन 7 लाख 80 हजार लोगों की मौत होती है। इसलिए, लॉकडाउन को तीन सप्ताह से अधिक बढ़ाने की क़ीमत लाभ की तुलना में बहुत अधिक है।
इस भयंकर अनिश्चितता के माहौल में ग़रीब और कमजोर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति समझ में आती है। उनके आय के स्रोतों को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है और यह सुनिश्चित नहीं है कि ऐसा कब तक चलेगा। यदि उन्हें सरकारी राहत तुरंत नहीं दी जाती है, तो उनके पास केवल दो ही विकल्प होंगे – या तो असामाजिक गतिविधियों का सहारा या फिर चुपचाप मौत के आगोश में चले जाना। कानून और व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण के बाहर जा सकती है। इसके अलावा, भुखमरी से मौत और आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं। इसलिए, वक़्त की जरूरत है कि सरकार योजनाबद्ध और समन्वित तरीके से इस विशाल उप-महाद्वीप के प्रत्येक कोने तक पहुंचे। हमें देश के ग़रीबों को एक और अग्निपरीक्षा ’(एसिड-टेस्ट) से गुजरने पर मजबूर नहीं करना चाहिए।
लेखक, सेंटर फ़ॉर इकोनॉमिक स्टडीज़ एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
Agnipariksha for the Poor in India