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स्वास्थ्य
विज्ञान
COVID-19 : सार्वजनिक स्वास्थ्य और निजी फ़ायदा
यह महामारी दुनिया के देशों, लोगों और उनकी आजीविका के लिए विनाशकारी हो सकती है, लेकिन उन कुछ कंपनियों और उनके शेयरधारकों के लिए यह महामारी फ़ायदेमंद है, जिनके पास N95 मास्क, जीवन रक्षक दवाओं या टीकों के पेटेंट हैं।
प्रबीर पुरकायस्थ
26 Apr 2020
कोरोना वायरस
Image Courtesy: Pixabay

पोलियो वैक्सीन बनाने वाले जोनास साल्क के साथ एक साक्षात्कार के दौरान सीबीएस के पत्रकार एडवर्ड आर मॉरो ने पूछा था कि इस वैक्सीन का पेटेंट किसके पास है। साल्क ने इस सवाल के जवाब में कहा था "मैं तो यही कहूंगा कि इसका पेटेंट लोगों के पास है”। उन्होंने आगे कहा था, “इस वैक्सीन का कोई पेटेंट नहीं है। क्या आप सूरज को पेटेंट करा सकते हैं? ” यही वह भावना है, जो विज्ञान और साल्क जैसे वैज्ञानिकों को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि विज्ञान को सार्वजनिक हित  के लिए होना चाहिए, न कि कंपनियों के निजी फ़ायदे के लिए के लिए।

हालांकि विज्ञान, विश्वविद्यालय या सार्वजनिक अनुसंधान संस्थान जैसे सार्वजनिक क्षेत्र ज़्यादातर दवाओं या टीकों के लिए ज़रूरी ज्ञान के प्रमुख घटक होते हैं, लेकिन इसका फ़ायदा निजी कंपनियों द्वारा उठाया जाता है, और विश्व व्यापार संगठन के पेटेंट से यह नियंत्रित होता है। भले ही वैश्विक शेयर बाज़ार पिछले कुछ महीनों में पूरी तरह धड़ाम हो चुका हो, लेकिन इस समय COVID -19 के ख़िलाफ़ इलाज से जुड़े परीक्षणों में दवा रेमेडिसविर पर पेटेंट के धारक गिलियड साइंसेज ने इसी अवधि में अपने शेयर की क़ीमत में 25% का उछाल देखा है।

यह महामारी दुनिया के देशों, लोगों और उनकी आजीविका के लिए विनाशकारी हो सकती है, लेकिन कुछ कंपनियों और उनके शेयरधारकों के लिए यह महामारी फ़ायदे का मौक़ा है। इस महाविनाश के घोड़ों की सवारी करती कुछ ऐसी कंपनियां हैं, जिनके पास एन95 मास्क, जीवन रक्षक दवाओं या टीकों के पेटेंट हैं।

मैं बहुत से लोगों के बीमार होने की संभावना का अनुमान लगाने नहीं जा रहा हूँ, और इस बात को लेकर भी अनुमान लगाने नहीं जा रहा हूं कि कितने लोग बीमार होंगे। सरल जवाब तो यही है,जो इस समय बताया जा रहा है कि मरने वालों की वैश्विक संख्या पहले से ही 200,000 के क़रीब है, और COVID-19 से होने वाली मौत की संख्या लाखों में होने की संभावना है। जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स के हैरी केनार्ड हमें यूके के आंकड़ों के साथ बताते हैं कि इतनी ही अवधि में हुई अतीत की किसी भी फ़्लू महामारी की तुलना में इस महामारी की मृत्यु दर कहीं अधिक है। फ़र्क इतना ही है कि दुनिया यह भूल गयी है कि महामारी आख़िर होती क्या है, क्योंकि प्लेग और 1918 में लगभग एक सदी पहले हुई वायरल फ्लू महामारी फिर से नहीं दिखी हैं। इस समय, जब हम SARS-CoV-2 वायरस का सामना कर रहे हैं, तो हम महसूस कर रहे हैं कि मानवता एक नये महामारी से केवल एक आनुवांशिक बदलाव की दूरी पर खड़ी है। वायरस और बैक्टीरिया के ख़िलाफ़ दवायें और टीके सिर्फ़ ग़रीब देशों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि उन देशों के लिए भी अहम हैं, जिन्होंने मान लिया था कि उन्होंने इस तरह की महामारी के इतिहास को बहुत पीछे छोड़ दिया है।

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COVID-19 महामारी के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई के तीन व्यापक क्षेत्र अहम हैं। ये हैं- व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई), गंभीर ज़रूरत की चीज़ एन95 मास्क, वे दवायें, जिनका इस समय SARS-CoV-2 वायरस के ख़िलाफ़ परीक्षण किया जा रहा है, और वे टीके, जिन्हें आम लोगों के लिए उपलब्ध होने में शायद और 12 महीने लगेंगे।

मैं अपनी बात उस N95 श्वसन यंत्र या मास्क के साथ शुरू करूंगा, जिसका इस्तेमाल आगे के मोर्चे पर तैनात स्वास्थ्य कर्मी, यानी डॉक्टर, नर्स और दूसरे स्वास्थ्य कर्मचारी ख़ुद को बचाने के लिए करते हैं। इन N95 मास्क और दूसरे सुरक्षात्मक उपकरणों की क़िल्लत है, जिसकी वजह से अस्पताल के कर्मचारियों के बीच संक्रमण देखा जा रहा है, और ऐसे में अस्पताल ख़ुद ही संक्रमण फैलाने वाले हॉट स्पॉट बन गये हैं। दिल्ली में हमें दिल्ली कैंसर अस्पताल को दो सप्ताह के लिए बंद करना पड़ा था, क्योंकि इसके 27 स्टाफ सदस्यों में इस वायरस का पॉजिटिव टेस्ट पाया गया था। इटली के लोम्बार्डी में 20% स्वास्थ्यकर्मी सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी की वजह से संक्रमित हो गये थे।

ऐसे में सवाल तो यही बनता है कि N95 मास्क का दुनिया के सबसे बड़े निर्माता कौन हैं ? N95 मास्क के शीर्ष दस वैश्विक निर्माताओं में से आठ अमेरिकी कंपनियां ही हैं, जिनमें 3M और हनीवेल शीर्ष सूची पर मौजूद हैं। 3M के पास तो कई पेटेंट हैं, उसके एक ही खाते में 400 ऐसे पेटेंट हैं, जो N95 श्वासयंत्र से जुड़े हुए हैं। इसके बावजूद, इस समय मंदी की मार झेल रहे शेयर बाज़ार में भी इसके शेयर की क़ीमत तुलनात्मक रूप से अच्छा प्रदर्शन कर रही है।

अमेरिका द्वारा मास्क से लदे जहाज़ों को किनारे पहुंचने से पहले ही हड़प लेने की कहानियों के ज़रिये हम पहले से ही N95 मास्क की अहमियत के बारे में जानते हैं, और हम यह भी जानते हैं कि ट्रम्प ने कोरियाई युद्ध के दौर के रक्षा उत्पादन अधिनियम के तहत 3M को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दे दी है। 3M को अमेरिका के सहयोगी देश कनाडा और लैटिन अमेरिका में किये जाने वाले इसके निर्यात को भी रोकने के लिए कह दिया गया है, और विदेशों में स्थित 3M के कारखानों में उत्पादित N95 को प्राथमिकता के आधार पर अमेरिका भेजने के लिए कहा गया है।

जबकि अस्पताल के कर्मचारियों के लिए ये सुरक्षात्मक उपकरण बेहद अहम हैं, ऐसे में बड़ी तादाद में लोगों के लिए सवाल तो यही रह जाता है कि क्या हमारे पास ऐसी दवा है, जो बीमार होने पर हमें ठीक कर सकती है ?

इस सवाल का संक्षिप्त जवाब इस समय हमारे पास नहीं है, और इस बीमारी के लिए एक छोटी अवधि में ज़रूरी दवा को विकसित करने में हम सक्षम भी नहीं होंगे। हम इन दवाओं की तलाश के बजाय उन मौजूदा दवाओं की तलाश में हैं, जिसका इस्तेमाल किसी और मक़सद से तो किया जाता रहा है, लेकिन जिसका वायरस पर कुछ प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस समय, हम अपनी उस तरह की सभी दवाओं का परीक्षण कर रहे हैं, जो कि इस हालात में कुछ काम आ सकती हैं।

हाल ही में सुर्खियां बटोरने वाली हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वाइन के अलावा, इस समय यह देखने के लिए डब्ल्यूएचओ की सॉलिडेरिटी क्लिनिकल परीक्षण एंटी-वायरल के एक समूह का परीक्षण कर रहे हैं कि क्या वे दवायें वायरस से लड़ने में हमारे शरीर को मदद पहुंचा सकती हैं या कुछ राहत दे सकती  हैं या नहीं। परीक्षण की जा रही इन दवाओं के समूह हैं: a) रेमेडिसविर b) क्लोरोक्वीन या हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन c) रिटोनाविर के साथ लोपिनाविर d) रिटोनाविर के साथ लोपिनाविर और इंटरफ़ेरॉन बीटा-1ए।

पुरानी मलेरिया रोधी दवाओं-क्लोरोक्विन या हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को छोड़कर,ये सभी दवायें इस समय पेटेंट संरक्षण में हैं। रेमेडिसविर को मूल रूप से इबोला के ख़िलाफ़ विकसित किया गया था, लेकिन,यह दवा अच्छी तरह असरदार नहीं रही थी और फिर इसके इस्तेमाल को छोड़ दिया गया था। ऐसा लगता है कि COVID-19 मामलों में इसका असर बेहतर है, हालांकि इससे पहुंचने वाले लाभ को लेकर जो सुबूत मिले हैं, वह उन फ़्रांसीसी परीक्षणों के समान ही हैं, जिन्होंने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और एज़िथ्रोमाइसिन को मिलाकर इस्तेमाल किया था। इसका मतलब तो यही है कि अभी तक उनमें से किसी भी दवा का परीक्षण दवा विकास के लिए मानक डबल ब्लाइंड टेस्ट का इस्तेमाल करते हुए नहीं किया गया है।

डब्ल्यूएचओ के सॉलिडैरिटी क्लिनिकल परीक्षणों के तहत जिन संयोजनों के परीक्षण किये जा रहे हैं, उन सभी संयोजनों को लेकर जो अहम बात है, वह यही है कि वे सभी पेटेंट संरक्षण के अधीन हैं। यदि उनमें से क्लोरोक्वीन या हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को छोड़कर कोई भी दवा काम करती है,तो पेटेंट धारक उससे अप्रत्याशित पैसे बनायेंगे।

ऐसे में सवाल उठता है कि उरुग्वे दौर की व्यापार वार्ताओं पर छिड़े अहम संग्रम,जिसने बौद्धिक संपदा अधिकार (TRIPS) के विश्व व्यापार संगठन और व्यापार से जुड़े पहलुओं को जन्म दिया था, तो भारत जैसे देश, जिन्होंने दवाओं के लिए उत्पाद पेटेंट को रोक दिया था, क्या वे ऐसा करना जारी रख सकते हैं। 1994 में ट्रिप्स प्रणाली वजूद में आयी थी, भारत जैसे देशों को 10 साल की मोहलत दी गयी थी, जिसके बाद उन्हें उत्पाद पेटेंट देना पड़ा।

एड्स के विपरीत, जहां भारत एड्स दवाओं के वैश्विक आपूर्तिकर्ता के रूप में कार्य कर सकता था, क्या यह अब भी एक नयी COVID-19 दवा के लिए वैश्विक फार्मेसी के रूप में कार्य कर सकता है ?  रेमेडिसविर के लिए ऐसा क्या किया जा सकता है ?

इस सवाल का संक्षिप्त जवाब तो यही है कि यदि देश का स्वास्थ्य आपात स्थिति में हो, तो गिलियड पेटेंट को अनिवार्य रूप से एक संप्रभु अधिकार के तहत लाइसेंस देकर तोड़ना मुमकिन है। सौभाग्य से, भारत में अनिवार्य लाइसेंसिंग के लिए मज़बूत प्रावधान हैं, क्योंकि उस समय वाम दल इसे बनाए रखने में सक्षम थे, जब पेटेंट अधिनियम को TRIPS आवश्यकताओं के अनुरूप बदल दिया गया था। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को अपनी मांगों को स्वीकार करने को लेकर मजबूर कर देने वाले वाम दलों के पास उस समय संसद में पर्याप्त मत थे। हालांकि ग्लिवेक मामला, जिसमें नोवार्टिस को भारत में पेटेंट से वंचित कर दिया गया था,क्योंकि यह उस धारा 3 (d) के चंगुल में फंस गया था, जिसे पेटेंट की राह की सबसे बड़ी बाधा के रूप में जानी जाती है, इसके अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधान मौजूदा समय में विशेष रूप से उपयोगी हो सकते हैं।

इस प्रावधान का इस्तेमाल किसी भी घरेलू धारक को अनिवार्य लाइसेंस जारी करके, किसी भी पेटेंट धारक के खिलाफ उन्हें रॉयल्टी का भुगतान करते हुए किया जा सकता है। विश्व व्यापार संगठन, महामारी के तहत देशों को अनिवार्य लाइसेंस जारी करने की अनुमति देता है, और यहां तक कि अन्य देशों से ऐसी दवाओं के आयात की अनुमति भी देता है। इसलिए, जिन देशों को COVID-19 महामारी का सामना करना पड़ रहा है, और जिनके पास घरेलू विनिर्माण क्षमता की कमी हो सकती है, वे सभी देश भारत जैसे देशों से ऐसी दवाओं का आयात कर सकते हैं।

विगत में जब भी भारत ने उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस के इस्तेमाल पर विचार किया है, मसलन, जीवन रक्षक कैंसर दवाओं के लिए, तो यूएस ने यूएसटीआर 301 प्रावधान के तहत भारत को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दे डाली है। साल 2019 में भी यह यूएसआरटीआर द्वारा उल्लेखित अहम विवादास्पद विषयों में से एक था, जबकि भारत को प्राथमिकता निगरानी सूची में रखा गया था।

ब्राज़ील के सांसदों के एक समूह ने बोल्सनारो सरकार को अनिवार्य रूप से उन दवाओं को लाइसेंस देने को लेकर एक बिल पेश किया है, जो COVID-19 के ख़िलाफ़ असरदार हो सकती हैं। मोदी, जो ट्रम्प की धमकी के आगे अमेरिका में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को मुहैया कराने के लिए दौड़ पड़ते हैं, उन्हें भी अमेरिका के ख़िलाफ़ उठाये जाने वाले इस तरह के एक क़दम पर विचार करने के लिए तैयार रहना होगा।

और आख़िर में टीके की बात। छोटी से अविध के लिए तो ठीक है कि हमारे पास लॉकडाउन, फ़िजिकल डिस्टैंसिंग, कॉंटेक्स ट्रेसिंग और क्वारंटाइन जैसे अस्थायी उपाय हैं, लेकिन, दीर्घकालिक निवारक रणनीति तो टीका ही है। जैसा कि यूके के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन मानते हैं कि सामूहिक प्रतिरक्षा पूरी आबादी (या 70-80%) के वायरस से संक्रमित होने से नहीं होगी, बल्कि यह तो व्यापक टीकाकरण से ही मुमकिन है। कोई भी बड़ी संक्रामक वायरल बीमारी, चाहे वह छोटी चेचक, पोलियो या ख़सरा ही क्यों न रही हो, टीके के बिना उस पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है या उसका उन्मूलन भी नहीं किया जा सका है।

मगर, यहां तो टीकों के साथ ही असली समस्या है। जीनोम सिक्वेंस को देशों द्वारा सार्वजनिक डोमेन में डाला जाता है, निजी कंपनियां इन सिक्वेंस का उपयोग टीकों को विकसित करने के लिए करती हैं, और यदि सफल हो जाती हैं, तो वे उन्हीं लोगों और देशों से ही पैसे बनाना भी शुरू कर देती है। असल में फ़्लू वैक्सीन को लेकर असली लड़ाई ही यही है। जहां एक तरफ़ देशों की स्वास्थ्य प्रणालियां फ़्लू जीनोम को प्रस्तुत करती हैं और जो अपने देशों के सार्वजनिक फ़्लू डेटाबेस में एकत्रित हो रहे हैं, लेकिन ऐसा करने से इन देशों को कोई फ़ायदा नहीं मिलता है।

ऐसे में सवाल उठता है कि SARS-CoV-2 के ख़िलाफ़ वैक्सीन की दौड़ में कौन हैं ? डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ये पांच कंपनियां हैं, जिन्होंने चरण 1 के परीक्षणों में प्रवेश कर लिया है, और 71 ऐसी और भी कंपनियां हैं, जो विकास के अलग-अलग चरणों में है। हालांकि अधिकांश वैक्सीन का विकास या तो सार्वजनिक वित्त पोषित है या परोपकारी संस्थानों द्वारा वित्त पोषित है, लेकिन पेटेंट धारकों में ज़्यादातर ये ही कंपनियां हैं।

तो, क्या COVID-19 के टीके फ्लू वैक्सीन की तरह ही प्रति वैक्सीन 20 डॉलर में बिकेंगे ? तो क्या ऐसे में अपने देश के बचाव के लिए आगे आने वाले ग़रीब देशों का दिवाला नहीं निकलेगा ? या फिर हम पोलियो वैक्सीन के बारे में साल्क ने जो कुछ कहा है, उसे मानेंगे कि “यह तो लोगों का ही है ? लेकिन, इस मामले में अमेरिका की मान्यता साफ़ है, और वह यह कि टीके तो कंपनियों के अधीन ही होंगे, चाहे यह सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित ही क्यों न हो। और अगर हम डब्ल्यूटीओ-ट्रिप्स नियमों के महामारी अपवाद का इस्तेमाल करके इसे अनिवार्य रूप से लाइसेंस देना चाहते हैं, तो यूएसटीआर 301 और सुपर 301 प्रतिबंध अब भी भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा सकते हैं। और जैसा कि हम अमेरिकी प्रतिबंधों के इतिहास से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं कि अमेरिका इस बात में यक़ीन करता है कि उसे दुनिया के किसी भी देश पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, भले ही इस तरह के प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय मानवीय क़ानून का उल्लंघन ही क्यों न करते हों।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

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