NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
स्वास्थ्य
भारत
ग्रामीण भारत में कोरोना-22: लॉकडाउन का तमिलनाडु के गड़रिया समुदाय पर पड़ता असर
कोनार समुदाय के कुछ सदस्य खेतीबाड़ी से भी जुड़े हैं, इस समाज के कुछ लोग तमिलनाडु में और अन्य दक्षिणी राज्यों में भेड़ और भेड़ों के लीद बेचने के धंधों से जुड़े हैं।
मुथुनीला मुथुकुमार
26 Apr 2020
ग्रामीण भारत

यह इस श्रृंखला की 22वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों के प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में दक्षिणी तमिलनाडु के गड़रिया (कोनार) समुदाय पर देशव्यापी लॉकडाउन से पड़ रहे असर का वर्णन किया गया है। बिना किसी योजना के लॉकडाउन की घोषणा और अचानक से परिवहन और आवाजाही पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिए जाने से इस समुदाय पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है। यह रिपोर्ट 14 अप्रैल से 17 अप्रैल के बीच चार लोगों से टेलीफोन के माध्यम से हुई बातचीत और एक व्यक्ति से मुलाक़ात के आधार पर तैयार की गई है। ये सभी व्यक्ति कोनार समुदाय के हैं।

दक्षिणी तमिलनाडु के कोनार समुदाय के लोगों की आय का मुख्य स्रोत भेड़ पालन और प्रजनन है, यह उनके पारंपरिक जातिगत व्यवसाय से जुड़ा है। जबकि भेड़ें इनके परिवार के झुंड का प्रमुख हिस्सा होती हैं, पर कभी-कभार ये लोग कुछ बकरी और गाय पालन करते भी पाए जाते हैं। ये परिवार आम तौर पर खुद को दो समूहों में बांट लेते हैं: इनमें से एक समूह खानाबदोश की ज़िंदगी जीते हैं, झुंड के साथ इधर से उधर जहां कहीं उन्हें चारे का बेहतर जुगाड़ दिखता है, वहां पर खेत मालिकों से इजाज़त लेकर टेंट या झोपड़ी बनाकर अस्थाई तौर पर रुक जाते हैं। परिवार का दूसरे समूह (अक्सर परिवार के बुजुर्ग) अपने पैतृक गांव में ही रहता है और खेतीबाड़ी सहित परिवार के बच्चों की देखभाल का काम करते हैं।

ये खानाबदोश समूह आमतौर पर एक जगह से दूसरे जगह पर अपने पशुओं के लिए चारे वाले स्थानों की तलाश में जाते रहते हैं। एक जगह पर उनका ठिकाना कम से कम दो या तीन दिन तक का रहता है और कहीं कहीं दो महीने तक टिक जाते हैं। किन स्थानों पर वे कितना दिन टिकेंगे यह सब मौसम और चराई के अवसरों के आधार पर तय होता है। चूंकि ये गड़रिये अपने जानवरों का चारा खुद से नहीं खरीदते, इसलिए साझी ज़मीन या खेतिहर ज़मीनों पर अपने झुंड को चराने पर निर्भर रहते हैं, जैसा कि फरवरी माह के अंत तक चने की फसल काट दिए जाने के बाद ऐसे खेत चराई के लिए खाली पड़े होते हैं। कभी-कभार ये घुमंतू समूह अपने साथ अस्थायी तौर पर गैर-पारिवारिक सदस्यों को भी शामिल कर लेते हैं, ताकि पशुओं के झुंड की निगरानी में उनकी मदद हो सके।

समुदाय के सदस्य कभी-कभी कृषि के काम में भी शामिल होते हैं और भेड़ और भेड़ों के लीद की बिक्री तमिलनाडु के भीतर और अन्य दक्षिणी राज्यों को भी करते हैं।

आर्थिक गतिविधि पर असर

एक परिवार के पास 75 से लेकर 500 तक भेड़ों का झुंड का हो सकता है। कुछ परिवार खास तौर पर इसलिए इन जानवरों को पालते हैं ताकि उन्हें चिथिरई और वैगासी (मध्य अप्रैल से मध्य जून) के तमिज़ह महीनों में बेच सकें, क्योंकि यह वह समय होता है जिसमें आम तौर पर त्योहार और शादियां होती हैं और इसकी काफी मांग रहती है, साथ में दाम भी काफी अच्छा मिल जाता है। सात से दस महीने की एक भेड़ की कीमत आमतौर पर 4,000 रुपये से 4,500 रुपये के बीच होती है, वहीँ इन त्योहारों के सीजन में 6,000 रुपये तक की क़ीमत आसानी से मिल जाती है। इन दिनों इतनी मांग रहती है कि भारी संख्या में इन पशुओं की बिक्री में कोई दिक़्क़त नहीं होती।

जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तो कराईकुडी के एक व्यक्ति उस समय पझाकुरिची (नागपट्टिनम ज़िले) में ही फंस गए थे। नतीजे के तौर पर इनको वहीँ पर रुकने के लिए मजबूर होना पड़ा, और ख़रीदार उनके पास नहीं पहुंच सके क्योंकि लॉकडाउन के चलते यातायात का कोई साधन उपलब्ध नहीं था। उनका का कहना था कि: “यह लॉकडाउन हमारे हित में नहीं किया गया है, यातायात का साधन न होने के कारण हमारे ख़रीदार हम तक भेड़ [खरीदने] के लिए नहीं पहुंच सके.....”।

लॉकडाउन के कारण मटन की कमी हो गई है, ख़ासकर चेन्नई और मदुरै जैसे बड़े शहरों में। अलंगुड़ी (पुदुक्कोत्तई ज़िले) के एक व्यक्ति जिन्हें थिरुवुरुर ज़िले के थिरुकादिवसाल में ही रुके रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है, वे कम उम्र की भेड़ों को बेच देते है, क्योंकि इनकी अच्छी क़ीमत मिल जाती है। इस प्रकार से कम उम्र की भेड़ों को पालने और बेचने में लागत भी कम बैठती है और दाम भी अपेक्षाकृत अच्छे मिल जाते हैं। लॉकडाउन लागू होने के कारण अब युवा भेड़ नहीं बेचे जा सके और उन्हें अब बड़े होने तक पालना होगा। इनको पालने और विपणन की लागत को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति का अनुमान है कि इस झुंड को लंबे समय तक रखने और अच्छी क़ीमत पर बेच पाने में असमर्थता के चलते उसे क़रीब 2 लाख रुपये का नुकसान हो सकता है।

आय का एक अन्य प्रमुख स्रोत भेड़ के लीद की बिक्री है, जो एक पारंपरिक विधि के अनुसार भूमि को खाद-पानी देने के रूप में उपयोग में लाया जाता है। दक्षिणी तमिलनाडु के गांवों में इस पद्धति को 'केदई पोदुथल' कहा जाता है, और इसमें खेतों में भेड़ों के झुंड को एक से दो रातों के लिए छुट्टा घुमने फिरने के लिए छोड़ दिया जाता है, ताकि उनके लीद का उपयोग खाद के रूप में खेत की उर्वरा शक्ति बढाने के लिए किया जा सके। इस प्रकार चरवाहे परिवार अपनी यात्रा के दौरान होने वाले दैनिक ख़र्चों को पूरा करने के लिए केदई पोदुथल से होने वाली कमाई पर निर्भर रहते हैं। एक व्यक्ति के अनुसार लॉकडाउन के दौरान, केदई पोदुथल से होने वाली आमदनी 300 रुपये प्रति रात से घटकर 200 रुपये प्रति रात के आस-पास हो गई हैं।

डिंडीगुल के एक व्यक्ति के अनुसार, केरल से कई लोग भेड़ की लीद खरीदने के लिए आते हैं ताकि इसे अपने केले और सुपारी की पौधे में खाद के रूप में इस्तेमाल में ला सके। एक बोरा लीद (साठ किलो) आम तौर पर नब्बे रुपये में बेचा जाता है। अभी फिलहाल दूसरे राज्यों के ख़रीदारों को लीद की बिक्री कर पाना संभव नहीं है।

कराईकुडी से एक व्यक्ति के अनुसार लॉकडाउन ने इस समुदाय के इधर उधर आने जाने को प्रभावित किया है। प्रत्येक चरवाहे परिवार के पास आमतौर पर इधर-उधर आने-जाने के लिए एक दो पहिया वाहन मोटरसाइकिल तो होते ही हैं। ये दोपहिया वाहन उनके गृह ज़िले में पंजीकृत होते हैं, लेकिन वे जहां भी जाते हैं एक बाइक उनके साथ होती ही है। आम दिनों में जब ये लोग इस पर सवार होकर अन्य ज़िलों के कस्बों से होकर गुज़रते हैं तो इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। लेकिन लॉकडाउन के दौरान, किसी अन्य ज़िले की नंबर प्लेट का पंजीकरण, इस समुदाय के लिए जो राज्य के तमाम हिस्सों में बिखरा हुआ है किसी मुसीबत से कम नहीं है। स्थानीय पुलिस उन्हें परेशान करती है और आरोप मढ़ती है कि वे राज्य भर में घूम रहे हैं, जबकि ऐसा कहना सही नहीं है।

खेती पर असर

एक व्यक्ति ने बताया कि उसके पास सात एकड़ कृषि भूमि है, जिसमें वे कपास और हरी मिर्च की खेती करते हैं। जब लॉकडाउन की घोषणा हुई थी, उस समय खेतों को मिर्च की फसल की बुवाई के लिए तैयार किया जा रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि उस खेत में काम नहीं हो सका और फिलहाल खेत परती पड़ा है। मई की शुरुआत में कपास की फसल की तैयारी शुरू होनी है। उन्हें उम्मीद है कि तब तक लॉकडाउन ख़त्म हो जाएगा और उनका परिवार कपास की फसल बो सकेगा।

अब जैसा कि यह समुदाय खानाबदोश जीवन शैली का आदी है, इसलिए इनके पास हमेशा ही स्टॉक में किराने का सामान इकठ्ठा करके रखने की परम्परा है। उनका यह स्टॉक उन्हें लॉकडाउन के दूसरे सप्ताह के अंत तक तो काम आ गया लेकिन इसके बाद से उन्हें किराने का सामान मिल पाने में मुश्किलें हो रही हैं। इसी तरह थिरुवरुर में अटके पड़े दो चरवाहे परिवारों ने 13 अप्रैल को ज़िला कलेक्टर से संपर्क किया ताकि वे उन्हें उनके गांव लौटने में मदद कर सकें। 15 अप्रैल को उन्हें राहत सामग्री के तौर पर चावल, दाल और मसाले मिल गए थे (इससे पहले उन्हें ग्रामीणों से भी कुछ मदद मिली थी, जहां वे फंसे पड़े थे)।

हालांकि सभी लोगों का कहना था कि गांवों के भीतर जहां पर वे हैं, उनके इधर-उधर आने-जाने पर कोई सख्त पहरा नहीं है। और चारागाहों में चराने को लेकर भी कोई रोक टोक नहीं है। डिंडीगुल ज़िले के एक व्यक्ति ने बताया है कि उसे लॉकडाउन का एहसास हो गया था, इसलिए उसने लॉकडाउन शुरू होने से ठीक एक दिन पहले ही अपने बिक्री लायक भेड़ों का झुंड गाड़ी का बंदोबस्त कर मदुरै शहर भिजवा दिया था। उसका कहना था कि वह अपनी पंद्रह भेड़ें आम तौर पर बाज़ार भाव से 500 रूपये ज्यादा में बेचने में कामयाब रहा था।

लेखिका चेन्नई स्थित मद्रास स्कूल ऑफ सोशल वर्क से एमए (विकास और प्रबंधन) कर कर रही हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 In Rural India-XXII: Impact of Lockdown on Shepherd Community in Tamil Nadu

tamil nadu
novel coronavirus
COVID-19 lockdown
Konal Community
Chennai
Madurai
COVID-19 in Rural India

Related Stories

कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 58,077 नए मामले, 657 मरीज़ों की मौत

कोरोना काल में भी वेतन के लिए जूझते रहे डॉक्टरों ने चेन्नई में किया विरोध प्रदर्शन

कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटे में 13,451 नए मामले, 585 मरीज़ों की मौत

कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 34,457 नए मामले, 375 मरीज़ों की मौत

कोविड-19: आईएमए ने केंद्र द्वारा आयुष उपचार को बढ़ावा देने पर उठाए सवाल

कोरोना अपडेट: देश में पिछले 24 घंटो में आए कोरोना के रिकॉर्ड 97 हज़ार से ज़्यादा नए मामले

उत्तराखंड: सरकारी अस्पताल से कोरोना-मुक्त होने के ‘फ़र्ज़ी’ प्रमाणपत्र जारी

कोविड-19 से बेहाल मछुआरों को अब राष्ट्रीय मत्स्य नीति से लड़ने के लिए कमर कसनी पड़ेगी

ग्रामीण भारत में कोरोना-41: डूबते दामों से पश्चिम बंगाल के खौचंदपारा में किसानों की बर्बादी का सिलसिला जारी !

भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करती बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ बढ़ता प्रतिरोध


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License