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भारत
राजनीति
अभी तक कोई एफ़आईआर नहीं, चरमरा रही हैं सरकारी संस्थायें : शाहिद तांत्रे
उत्तरी पूर्वी दिल्ली के सुभाष मोहल्ले में हिंसक भीड़ की तरफ़ से दो सहयोगियों के साथ कारवां के रिपोर्टर पर हमला किया गया। रिपोर्टर का मानना है कि ये हमले ज़्यादा ख़तरनाक इसलिए हैं, क्योंकि ये अचानक नहीं होते, ये कुछ हद तक नियोजित होते हैं।
सुमेधा पाल
19 Aug 2020
शाहिद तांत्रे

11 अगस्त को उत्तरी पूर्वी दिल्ली के सुभाष मोहल्ले में कारवां पत्रिका के तीन पत्रकारों पर एक हिंसक भीड़ ने उस समय हमला कर दिया था, जब वे इस साल की शुरुआत में इस क्षेत्र में हुए सांप्रदायिक तनाव की रिपोर्टों का फ़ॉलो-अप कर रहे थे। भजनपुरा का यह क्षेत्र फ़रवरी में हुई सांप्रदायिक हिंसा का गवाह बना था और प्रधानमंत्री मोदी के हाथों 5 अगस्त को अयोध्या में हुए राम मंदिर के शिलान्यास समारोह के बाद यहां कथित तौर पर सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था।

राम मंदिर समारोह के बाद कथित तौर पर भगवा झंडे मुस्लिम पड़ोसियों के दरवाज़ों पर लगा दिये गये थे। इलाक़े की महिलाओं ने भी उस समय छेड़छाड़ का आरोप लगाया था, जब उन्होंने स्थानीय थाने में इन मामलों की रिपोर्ट दर्ज कराने की कोशिश की थी।

कारवां के पत्रकारों में से एक, शाहिद तांत्रे ने न्यूज़क्लिक के साथ हुए अपने ईमेल साक्षात्कार में बताया कि इस इलाक़े के हिंदू बहुल वाले हिस्से में उनके साथ बार-बार भीड़ ने मारपीट की।उन्होंने पत्रकारों पर बढ़ते हमलों के बीच प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चिंता जतायी है।

क्या इस इलाक़े में आपको किसी तरह का सांप्रदायिक तनाव दिखा? वे कौन सी स्टोरी थीं, जिन पर आप काम कर रहे थे?

भारत में सांप्रदायिक तनाव लंबे समय से रहा है, लेकिन इसे नियंत्रित कर पाना अब सत्तारूढ़ शासन के बस की बात नहीं रह गयी है। 5 अगस्त को राम जन्मभूमि पर शिलापूजन समारोह के दिन मुस्लिम पड़ोसियों के कुछ दरवाज़ों पर भगवा झंडे लगा दिया गये थे। हमने 8 अगस्त को इल इलाक़े में सांप्रदायिक तनाव को सामने लाते हुए एक रिपोर्ट की थी।

लेकिन,हम पर हुए हमले (11 अगस्त) से पहले हम सुभाष मोहल्ले में एक रिपोर्ट को कवर कर रहे थे, जहां इलाक़े की मुस्लिम महिलाओं ने आरोप लगाया था कि उनकी शिकायत पुलिस स्टेशन में दर्ज नहीं की गयी थी और इसके बजाय उनके साथ छेड़छाड़ की गयी। इस स्टोरी के फ़ॉलो-अप करने के दौरान हम मुस्लिम पड़ोसियों से बात कर रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस मामले में हिंदू नज़रियों का पता भी चल पायेगा।

उस दोपहर को इस इलाक़ेके लेन नंबर 2 में प्रवेश करते ही हमारा सामना एक ऐसे शख़्स से हो गया,जिसने ख़ुद को भारतीय जनता पार्टी का महासचिव बताया। जब हम झंडे के शॉट ले रहे थे, तो उसने हमें रोक दिया, और हमसे पूछा कि हम क्या कर रहे हैं। उसने कहा: "क्या यह पाकिस्तान है, हम क्या यहां भगवा झंडे नहीं लगा सकते ?"

हमने उस शख़्स से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन हमने अब तक जो फुटेज लिये थे, उसे डिलीट करने के लिए हमें मजबूर कर दिया गया। मुझे अपना आईडी कार्ड दिखाने के लिए भी मजबूर किया गया।आईडी कार्ड देखने के बाद भीड़ को काफ़ी ग़ुस्सा आ गया,क्योंकि मेरी पहचान बौतर मुस्लिम उनके सामने थी। मुझे सांप्रदायिक बताते हुए निशाना बनाया गया और इसके बाद बतौर एक पत्रकार मेरी पहचान का कोई मायने नहीं रह गया था।

इसके बाद, इस इलाक़े के 100 से ज़्यादा लोग इकट्ठे हो गये और गलियों के दरवाज़े बंद कर दिये गये। जिस शख़्स ने खुद को भाजपा का महासचिव बताया था,उसे मुझ पर हमला करने के लिए महिलाओं को उकसाते हुए देखा गया।

इस तरह,आपसे एक पत्रकार के तौर पर आपकी पहचान छीन ली गयी और आपकी पहचान धार्मिक होने तक सिमट गयी।

आज हम जो कुछ देख रहे हैं,वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत की एक-एक सरकारें इसके लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं। ईसाइयों (ओडिशा) के ख़िलाफ़ कंधमाल में हुई हिंसा से लेकर 1984 के सिख विरोधी दंगों (दिल्ली) तक सांप्रदायिक घृणा फ़ैलाने का एक लंबा इतिहास रहा है। लोगों की इस मानसिकता को गढ़ने में राज्य ने एक बड़ी भूमिका निभायी है। इस समय,सत्तारूढ़ भाजपा शासन खुले तौर पर ऐसा कर रहा है।

5 अगस्त को प्रधानमंत्री पद को धर्म के साथ मिलाते हुए प्रधान मंत्री ने आगे बढ़कर राम मंदिर के शिलान्यास समारोह में भाग लिया था। सवाल तो बनता है कि क्या मोदी किसी मस्जिद या चर्च के उद्घाटन के लिए भी ऐसे ही कहीं जायेंगे ? मुझे ऐसा नहीं लगता। जब उन्हें कभी गोल टोपी पहनने के लिए दी गयी थी,तो उन्होंने उसे पहनने से इनकार कर दिया था। ये तो महज़ मिसाल हैं।

इसलिए, भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने से रोकने के लिए यह ज़रूरी है कि लोग यह समझें कि यह सब धर्म की आड़ में किस तरह से चल रहा है।

इसमें पुलिस की क्या भूमिका थी? अब आपकी शिकायत की स्थिति क्या है?

शुरुआत में तो दो पुलिसकर्मी वहां मौजूद थे, उनमें से एक हिंदू कांस्टेबल था और दूसरा एएसआई (सहायक उप निरीक्षक), जो कि मुस्लिम था। एएसआई को अपनी नेम प्लेट को छुपाना पड़ा था, जो स्थिति को लेकर बहुत कुछ बताता है कि पहचान की राजनीति की समस्या कितनी गहरी है। भीड़ के सामने पुलिसकर्मी भी बेबस थे, जिस समय यह सब चल रहा था और हम पीटे जा रहे थे,उस दरम्यान और पुलिसकर्मी बुला लिये गये थे।

जिस समय हम अपनी शिकायत दर्ज करने की कोशिश कर रहे थे, उस दरम्यान एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि 1947 में हमें जो कुछ मिला था,वह आज़ादी नहीं था, असली आज़ादी तो अब है। जब मैंने उनसे पूछा कि उनके कहने का क्या मतलब है, तो उन्होंने कहा कि अब लोग आख़िरकार वह सबकुछ कर सकते हैं,जो वे चाहते हैं।

पुलिस इस समय सरकार की एक एजेंसी है, सरकार की प्रवक्ता है, सभी संस्थायें चरमरा रही हैं।

क्या पुलिस सिर्फ़ सत्तारूढ़ सोच की हुक़्म बजा रही है?

आपको इसकी एक मिसाल देता हूं, हमने एक लड़के को लेकर एक स्टोरी की थी, उस लड़के ने हिंदू की तरफ़ से दिल्ली हिंसा में भाग लिया था। उसने और अन्य लोग,जिन्होंने मुस्लिम विरोधी हिंसा में हिस्सा लिया था,हमें बार-बार बताते रहे कि पुलिस लगातार उनके साथ थी। इसका मक़सद मुसलमानों की आवाज़ को दबाना था और दंगाइयों ने माना कि वे ऐसा करने में कामयाब रहे। युवाओं से राष्ट्रगान गाने के लिए कहते पुलिसकर्मियों की एक वीडियो व्यापक रूप से वायरल हुई है। इसलिए, कोई यह देख सकता है कि राज्य संस्थानों पर सत्तारूढ़ सोच का (विचारधारा का) कितना व्यापक असर है।

हमारी शिकायत दर्ज कराये हुए पांच दिन बीत चुके हैं,लेकिन अभी तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी है। अगर यह किसी साधन संपन्न किसी पत्रकार की हालत है, तो सोच सकते हैं कि आम लोगों के लिए कैसी स्थिति है। हमें तो पत्रकारों, वक़ीलों और नागरिक समाज का समर्थन हासिल है। ज़रा उन लोगों के बारे में सोचिए,जो अकेले इस हिंसा के ख़िलाफ़ संघर्ष और मोर्चा ले रहे हैं ?

पत्रकार तेज़ी से इस तरह की हिंसा का निशाना बन रहे हैं। बेंगलुरु में इंडिया टुडे, द न्यूज़ मिनट और सुवर्णा न्यूज़ 24X7 के पांच पत्रकारों पर उसी हफ़्ते भीड़ की तरफ़ से हमले हुए थे,जिस समय आप पर हमला हुआ था। आख़िर, इस सबके बीच प्रेस की आज़ादी है कहां?

असल में मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफ़ॉर्म अब निष्पक्ष नहीं रहा। अब सिर्फ़ कुछ मुट्ठी भर संस्थान ही रह गये हैं,जो सच्चाई को सामने लाने का काम कर रहे हैं। इनमें कारवां, न्यूज़क्लिक, द वायर, स्क्रॉल डॉट इन जैसे संस्थान शामिल हैं।

ये हमले भयानक और ख़तरनाक हैं, क्योंकि ये अचानक किये जाने वाले हमले नहीं हैं, इसकी कुछ हद तक अपनी योजना होती है और इनके पीछे एक विचार है। इन लोगों का मानना है कि वे हमें डरा-धमकाकर चुप करा देंगे। मैं व्यक्तिगत रूप से कहू सकता हूं कि वे मुझे चुप नहीं करा पायेंगे। हम पेशेवर तरीक़े से सच को लोगों के सामने लाते रहेंगे।

हैरत तो इस बात की है कि हम पर हुए हमले को मुख्यधारा की मीडिया ने अपनी रिपोर्ट में जगह तक नहीं दी है। जो लोग सोचते हैं कि वे इन सबके बीच चुप रह सकते हैं, तो मैं बस उन्हें इतना ही कहना चाहता हूं कि वे इत्मिनान में नहीं रहें,क्योंकि यह आग उनके दामन तक भी पहुंचेगी। जहां तक हमारा सवाल है,तो हम अपनी पत्रकारिता के प्रति सच्चे बने रहेंगे।

यह इंटरव्यू सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिये।

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