NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
SC ST OBC
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
छत्तीसगढ़: किसान आंदोलन के समर्थन में आए आदिवासी, बस्तर से शुरू हुईं पंचायतें
आदिवासी किसानों द्वारा छत्तीसगढ़ किसान सभा, छत्तीसगढ़ किसान आंदोलन और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन सहित लगभग दो दर्जन जन-संगठनों के नेतृत्व में जगह-जगह पंचायतों का आयोजन किया जा रहा है।
शिरीष खरे
27 Mar 2021
छत्तीसगढ़ में पहली किसान महापंचायत पिछली 15 मार्च को बस्तर जिले के दरभा में आयोजित हुई। फोटो साभार: छत्तीसगढ़ किसान सभा
छत्तीसगढ़ में पहली किसान महापंचायत पिछली 15 मार्च को बस्तर जिले के दरभा में आयोजित हुई। फोटो साभार: छत्तीसगढ़ किसान सभा

केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन को छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसानों का समर्थन मिल रहा है। यहां पिछले कुछ दिनों से आदिवासी किसानों द्वारा छत्तीसगढ़ किसान सभा, छत्तीसगढ़ किसान आंदोलन और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन सहित लगभग दो दर्जन जन-संगठनों के नेतृत्व में कृषि कानूनों को रद्द करने और किसानों को उनकी उपज पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की कानूनी गारंटी देने की मांग को लेकर जगह-जगह पंचायतों का आयोजन किया जा रहा है।

आदिवासी किसान पंचायतों की शुरुआत बीती 15 मार्च को राज्य के बस्तर जिले के दरभा में आयोजित पंचायत से हुई। इसके बाद 18 और 19 मार्च को क्रमशः जशपुर जिले के पत्थलगांव और कोरबा जिले के मड़वाढोढ़ा गांव में आदिवासी किसान पंचायतों का आयोजन किया गया। इसी क्रम में फिलहाल पहले चरण में किसान नेताओं द्वारा जो योजना बनाई गई है उसके मुताबिक छत्तीसगढ़ में अलग-अलग स्थानों पर बीस से अधिक आदिवासी किसान महापंचायतों का आयोजन किया जाएगा।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसान राष्ट्रपति को सामूहिक-पत्र लिखकर केंद्र के कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग करेंगे। फोटो साभार: छत्तीसगढ़ किसान सभा

छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य संयोजक संजय पराते ने इस बारे में बताते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या आदिवासी किसानों की है जो एक बड़े मैदानी और वनांचल में खेती कर रहे हैं और जिन्हें वनाधिकार कानून के तहत पिछले कई सालों में जमीन के पट्टे मिले हुए हैं।

संजय पराते के मुताबिक, "केंद्र के कृषि कानूनों के लागू होने पर उनका दुष्प्रभाव देश भर के किसानों पर ही पड़ेगा और राज्य के किसान भी इससे अछूते नहीं रह पाएंगे। आज भले ही छत्तीसगढ़ में किसानों से उनकी उपज की खरीदी एमएसपी पर की जा रही हो, लेकिन खुली बाजार व्यवस्था में यदि सरकारी संरक्षण हट गया तब कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में भी किसानों को उनकी उपज पर एमएसपी मिले ही।"

महापंचायतों की जगह छोटी पंचायतें क्यों?

कोरबा जिले के मड़वाढोढ़ा गांव के किसान जवाहर सिंह कंवर मानते हैं कि राज्य के परंपरागत किसानों की स्थिति अच्छी नहीं है और न ही यहां के किसानों को जानकारी है कि नए कानूनों से उन्हें क्या नुकसान होंगे। इसलिए यहां मौजूदा किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ा विरोध-प्रदर्शन नहीं हो पाया है।

जवाहर सिंह कंवर कहते हैं, "सबसे पहले तो गांव-गांव पहुंचकर किसानों को जागरूक बनाने की जरूरत है। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि नए कानून आए तो उनकी हालत और ज्यादा खराब होगी। इसलिए हर जिले को ध्यान में रखकर छोटी-छोटी पंचायतें की जानी चाहिए, जिसमें पांच से दस गांव के लोग जुट सकें। इससे स्थानीय स्तर पर किसान नेता लोगों तक सीधे पहुंचेंगे और उनसे सीधी बात हो सकेगी। तभी आगे जाकर किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ी रैली हो सकेगी।"

आदिवासी किसान पंचायतों के स्वरूप को लेकर छत्तीसगढ़ किसान आंदोलन के संयोजक सुदेश टीकम कहते हैं कि राज्य में बड़ी महापंचायत कराने से जुड़ी एक समस्या है कि यह पूरा क्षेत्र अभावग्रस्त है जहां किसानों के पास उतना पैसा नहीं है कि वे बड़े आयोजन करा सकें। फिर भी छोटी-छोटी लेकिन अधिक से अधिक पंचायतों को कराने की कोशिश की जा रही है।

सुदेश टीकम कहते हैं, "आने वाले दिनों में राजनांदगांव, रायपुर, धमतरी और बालौद से लेकर रायगढ़ आदि जिलों में बड़े स्तर पर किसान पंचायतों को कराने की तैयारी की जा रही है। इसके लिए किसानों के अलावा मजदूरों, छात्रों, छोटे व्यापारियों और कर्मचारियों से भी सहयोग मांगा जा रहा है। हम सार्वजनिक अपील करके आम लोगों को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चित तौर पर यह एक बड़ा आंदोलन बनेगा।"

संजय पराते भी सुदेश टीकम की बातों का समर्थन करते हुए यह मानते हैं कि आदिवासी किसान पंचायतों को धीरे-धीरे जनता की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी।

संजय पराते बताते हैं कि दरभा की पंचायत में महज सौ लोग आए थे, लेकिन पत्थलगांव की पंचायत में यह संख्या पांच सौ के पार हो गई और उसके बाद मड़वाढोढ़ा की पंचायत में यह संख्या सात सौ के भी पार हो गई। उनकी मानें तो, "जैसे-जैसे आयोजन होंगे वैसे-वैसे उनमें खासकर आदिवासी किसानों की भागीदारी बढ़ती जाएगी। हमारी नीति यह है कि जिस जन-संगठन का जहां ज्यादा वर्चस्व है वह अपनी जगह पर पंचायत करे और बाकी सभी जगहों से अन्य संगठनों के नेता किसानों के साथ उसमें शामिल हों और अपनी बातों को रखें।"

क्योंकि कॉर्पोरेट लूट का उदाहरण है बस्तर

अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव बादल सरोज के अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर राज और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के नेता आलोक शुक्ला की तरह कई स्थानीय नेता भी आदिवासी किसान पंचायतों को आयोजित कराने के लिए सहयोग कर रहे हैं।

बादल सरोज के मुताबिक बस्तर इस बात का उदाहरण है कि जब कॉर्पोरेट को खुली छूट दी जाती है तो किस तरह वे जनता के संसाधनों को लूटते हुए कहर बरपाती है। इसलिए बस्तर के लोग नए कृषि कानूनों से जुड़े खतरों को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। हालांकि, बस्तर में मौजूद हर तरह की सत्ता चाहती नहीं है कि यहां लोकतांत्रिक संभावनाएं बनें और इसलिए ऐसे इलाकों में साधारण पंचायतों को कराना भी बहुत चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।

बादल सरोज कहते हैं, "दरभा की पंचायत में फिर भी चार गांवों के सरपंच और आठ-दस गांवों के लोग जमा हुए ही थे। दरअसल, छत्तीसगढ़ में वनोपज पर एमएसपी को कानूनी गारंटी देने के मामले में वे गंभीर हैं और चाहते हैं कि इस मामले में उनके अधिकारों की अनदेखी न की जाए।"

बता दें कि वन अधिकार कानून पर गठित राष्ट्रीय समिति रिपोर्ट, 2010 के अनुसार देश में दस करोड़ लोग लघु वन उपज पर निर्भर हैं और ये अपनी आमदनी का 20 से 40 प्रतिशत हिस्सा वनोपज संग्रहण से कमाते हैं। मुख्य रुप से छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में वनोपज की खरीद की जाती है। छत्तीसगढ़ में अश्वगंधा, आंवला, गोंद, इमली, महुआ, बेलगुदा, शहद, हर्रा, चिरोंजी गुठली और कुसमी लाख प्रमुख वनोपज हैं। इसके अलावा राज्य में कुसुमी बीज (सूखा), रीठा फल (सूखा), शिकाकाई फल (सूखा), सतावर जड़ (सूखी) और पलाश फूल भी उगाया जाते हैं। 

बस्तर से शुरू हुईं आदिवासी पंचायतों को लेकर सोनी सोरी किसान आंदोलन के राष्ट्रीय नेताओं को संदेश देती हुईं कहती हैं कि बस्तर का संघर्ष कॉर्पोरेट के खिलाफ जनता का संघर्ष है और अब खेतीबाड़ी के क्षेत्र में पूरे देश के संसाधनों को कॉर्पोरेट की लूट के लिए खुला छोड़ा जा रहा है।

सोनी सोरी कहती हैं, "किसान आंदोलन आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई है। बस्तर के किसान इस आंदोलन के साथ हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि जिन कॉर्पोरेट ने बस्तर में लूट मचाई है यदि उन्हें ही मौका मिला तो वे एमपी, यूपी, हरियाणा और पंजाब में भी लूट मचाएंगे।"

दिल्ली दूर है तो क्या हुआ

संजय पराते बताते हैं कि छत्तीसगढ़ से दिल्ली से दूरी की वजह से लगता है कि यहां के किसान दिल्ली सीमा पर चल रहे संयुक्त किसान मोर्चा के विरोध में शामिल नहीं हैं। दिल्ली से उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य-प्रदेश नजदीक होने से वहां के किसान छत्तीसगढ़ के मुकाबले कहीं अधिक संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के धरना-स्थलों तक पहुंच सके।

संजय पराते बताते हैं, "हमारे लिए यह थोड़ा मुश्किल है कि हम बड़ी संख्या में आदिवासी और मजदूरों के साथ दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक ढेरा डाले बैठे रहें। फिर भी हम कुछ संख्या में दिल्ली जाने की भी योजना बना रहे हैं। लेकिन, हमारी पहली कोशिश यही है कि अपने-अपने क्षेत्रों में रहते हुए किसान आंदोलन का समर्थन करें और कृषि कानूनों पर किसानों को जितना हो सके उतना जागरूक बनाएं। इससे किसान आंदोलन का उद्देश्य पूरा होगा।"

इसी तरह, सुदेश टीकम के मुताबिक वे पिछले चार महीने से संयुक्त किसान मोर्चा के हर आह्वान का पालन कर रहे हैं। इसमें चाहे रेल रोकने की बात हो या भारत बंद कराने की बात हो।

सुदेश टीकम बताते हैं कि राज्य में धान के अलावा वनोपज पर एमएसपी किसानों की एक मुख्य मांग है। वे कहते हैं, "वनोपज पर एमएसपी सिर्फ घोषित न हो बल्कि साल-दर-साल उनकी एमएसपी पर खरीद सभी राज्यों में संभव भी हो और खरीद की पूरी व्यवस्था भी तैयार हो तभी आदिवासी किसानों को राहत मिल सकती है। लेकिन, जिस तरह से कृषि का बाजार कॉर्पोरेट के नियंत्रण में किया जा रहा है उससे छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्य की स्थितियां और ज्यादा खराब हो सकती हैं, क्योंकि यहां के गरीब किसान उपभोक्ता भी तो हैं और सरकारी संरक्षण हटा तो किसानों को अपनी उपज कम दाम पर बेचनी पड़ेगी और कॉर्पोरेट उपभोक्ता को वही चीजें कई गुना मंहगे दामों पर बेचेंगी। इसलिए हमारा आंदोलन भी छत्तीसगढ़ में तब तक चलेगा जब तक कि केंद्र सरकार किसान आंदोलन की सभी प्रमुख मांगों को मान नहीं लेती है।"

दूसरी तरफ, बादल सरोज बताते हैं कि भाजपा-संघ की कोशिश है किसी तरह इन कानूनों और किसान आंदोलन से ध्यान भटकाया जाए। इसके लिए वह फिर आदिवासियों को हिंदुत्व की ओर धकेलना चाहती है। लेकिन, छत्तीसगढ़ का युवा आदिवासी इन गतिविधियों से और अधिक चिढ़ सकता है। कारण यह है कि बस्तर जैसी जगहों में आदिवासी युवा संघ की हिदुत्व से जुड़े एजेंडे को लेकर असंतोष जताता रहा है।

अंत में बादल सरोज कहते हैं, "खेती का संकट तो छत्तीसगढ़ में भी है इसलिए आदिवासी किसान जानते हैं कि केंद्र सरकार सच नहीं बोल रही है। हमारी योजना है कि हम सभी पंचायतों में आए किसानों के साथ मिलकर एक सामूहिक पत्र तैयार करें और देश के राष्ट्रपति को वह पत्र देकर उन्हें बताएं कि कृषि विरोधी तीन कानूनों से क्यों आदिवासी किसान भी खुश नहीं है।"

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Chattisgarh
farmers protest
Farm Bills
Tribe community
Farmers Support
Chhattisgarh Kisan Sabha
Kisan Mahapanchayat
BJP

Related Stories

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

राम सेना और बजरंग दल को आतंकी संगठन घोषित करने की किसान संगठनों की मांग

सवर्णों के साथ मिलकर मलाई खाने की चाहत बहुजनों की राजनीति को खत्म कर देगी

जहांगीरपुरी— बुलडोज़र ने तो ज़िंदगी की पटरी ही ध्वस्त कर दी

अमित शाह का शाही दौरा और आदिवासी मुद्दे

रुड़की से ग्राउंड रिपोर्ट : डाडा जलालपुर में अभी भी तनाव, कई मुस्लिम परिवारों ने किया पलायन

यूपी चुनाव परिणाम: क्षेत्रीय OBC नेताओं पर भारी पड़ता केंद्रीय ओबीसी नेता? 

अनुसूचित जाति के छात्रों की छात्रवृत्ति और मकान किराए के 525 करोड़ रुपए दबाए बैठी है शिवराज सरकार: माकपा

सोनी सोरी और बेला भाटिया: संघर्ष-ग्रस्त बस्तर में आदिवासियों-महिलाओं के लिए मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली योद्धा

यूपी चुनाव में दलित-पिछड़ों की ‘घर वापसी’, क्या भाजपा को देगी झटका?


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License