NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
सरकारी आंकड़ों में महंगाई हो गई कम, ग़रीब जनता को एहसास भी नहीं हुआ! 
आख़िर क्या वजह है कि कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स के आंकड़ों में कमी आने के बाद भी आम आदमी इस पर भरोसा नहीं कर पाता।
अजय कुमार
23 Oct 2021
inflation
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

मौजूदा वक्त में घर चलाने वालों से अगर कह दिया जाए कि महंगाई कम हो गई है तो वह पलट कर कहेंगे कि जिंदगी में कभी आटे दाल का दाम पता किया नहीं और महंगाई का हिसाब किताब हमें बता रहे हो। तब आप कहेंगे कि यह मैं नहीं कह रहा बल्कि सितंबर महीने के महंगाई के आंकड़े कह रहे हैं कि खुदरा महंगाई की दर पिछले 8 महीने में सबसे कम होकर 4.35 फ़ीसदी हो चुकी है। यह बताने के बाद भी घर चलाने वाले कहेंगे कि सरकारी आंकड़ों पर उन्हें यकीन नहीं। पता नहीं वह कैसे हिसाब-किताब करते हैं.

यही सवाल है कि आखिरकर यह कैसे संभव है कि सरकारी आंकड़े कहें कि महंगाई पिछले 8 महीने में कम हो गई है और जनता को अपने रोज़मर्रा के जीवन में महंगाई में होने वाली इस कमी का एहसास भी ना हो।

सामान और सेवाओं की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी महंगाई कहलाती है। इसे कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के जरिए मापा जाता है। महंगाई मापने का तरीका यह है कि कुछ ऐसे सामान और सेवाओं का बास्केट यह मानकर बनाया जाता है कि इसका उपभोग हर कोई करता होगा। इस बास्केट में मौजूद सामान और सेवाओं की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव के आधार पर कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स का आकलन किया जाता है।

इसलिए यहां यह महत्वपूर्ण है कि खुदरा महंगाई यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मापने के लिए किन सामानों और सेवाओं को लिया लिया जा रहा है और उन्हें कितना भार दिया जा रहा है। अगर अधिक भार उन सामान और सेवाओं को मिल जाए जिनकी कीमतों में उतार चढ़ाव का असर आम लोगों पर इतना नहीं पड़ता जितना दूसरे सामान और सेवाओं का पड़ता है तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के जरिए मिलने वाले आंकड़े वैसे होंगे जिन पर लोगों का भरोसा नहीं पैदा हो पाएगा।

ये भी पढ़ें: ...बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई

भारत में खुदरा महंगाई सूचकांक के फार्मूले में दो बड़े भार वाले हिस्से होते हैं। पहला कोर महांगाई यानी बुनियादी महंगाई जिसे 54.1 फ़ीसदी भार मिला है, दूसरा गैर बुनियादी महंगाई जिसे 45.9 फ़ीसदी भार मिला है। मौसमी अनाज और ईंधन को छोड़कर खुदरा मूल्य सूचकांक के अंदर जिन सामान और सेवाओं को शामिल किया जाता है वह बुनियादी महंगाई वाले भार में आते है। बुनियादी महंगाई लंबे समय से स्थाई दशा में मौजूद है। फैक्ट्री से निकलने वाले उत्पाद और स्कूल, परिवहन, अस्पताल, मनोरंजन टेलिफोन जैसी सेवाओं की कीमतों में कोई कमी नहीं हुई है। कोरोना काल के बाद मोबाइल और लैपटॉप जैसे साधनों के चलते स्कूल की पढ़ाई लिखाई की कीमत जरूर बड़ी होगी। उपभोग खर्च में दवा-इलाज पर खर्च का हिस्सा 3 से बढ़कर 11 फीसद हो गया है। कोविड में इलाज पर लोगों ने 66,000 करोड़ रुपए ज्यादा खर्च किए. 

इसलिए अब भी बुनियादी महंगाई दर रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित महंगाई के अधिकतम दर 6 फ़ीसदी के आसपास मौजूद है। महंगाई की दर में कमी होने के बावजूद भी महंगाई का एहसास लोगों को नहीं हो पाने के पीछे यह एक बड़ा कारण है

गैर बुनियादी महंगाई में मौसमी खाद्य पदार्थ और ईधन शामिल किए जाते हैं। मौसमी खाद्य पदार्थ की कीमतों में मौसम बदलने के साथ-साथ उतार-चढ़ाव होता रहता है। ईंधन सरकारी हिसाब किताब की दया पर निर्भर रहता है। ईंधन की दरों में तो कोई कमी नहीं हुई है। पेट्रोल और डीजल की दरों में तो कोई कमी नहीं हुई है यह बढ़ती जा रही है। लेकिन मौसम बदलने के साथ-साथ फल सब्जी की दरों में कमी आई है। यही कमी महंगाई की दर में कमी के तौर पर दिख रही है। फिर भी कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है जिस तरह से बुनियादी महंगाई की दर स्थाई तौर पर बनी हुई है और पेट्रोल डीजल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं उससे यह तय है कि आने वाले दौर में स्थिति बुरी ही होगी। भले उसे आंकड़े दिखाएं या ना दिखा पाएँ।

महंगाई के आंकड़ों में कमी होने के बावजूद भी महंगाई की कमी का एहसास ना होने से जुड़ी इस तकनीकी मत के अलावा अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार दूसरा मत भी प्रस्तुत करते हैं। द हिंदू अखबार के अपने लेख में प्रोफेसर अरुण कुमार राय रखते है कि खुदरा महंगाई दर की गणना में खामी है। यह कैसे संभव है कि पिछले कुछ महीने से थोक मूल्य सूचकांक की दर 10 फ़ीसदी के आसपास बनी हुई है, बेरोजगारी बढ़ रही है, मांग की कमी है और खुदरा महंगाई दर के आंकड़े बिल्कुल ऐसी स्थितियों के उलट दिखें। सब की सब एक ही तरह के लोग नहीं होते हैं। आर्थिक आधार पर सब अलग-अलग है। कोई गरीब है, कोई कम गरीब है, तो कोई अमीर है। सब की जरूरतें अलग हैं। इसलिए महंगाई का वैसा कोई भी आकलन सही वस्तुस्थिति नहीं बता सकता जहां पर महंगाई का आकलन करने के लिए सबके लिए एक ही तरह के सामान और सेवाओं की कीमत में उतार-चढ़ाव का आकलन किया जाए।

ये भी पढ़ें: महंगाई की मार सरकारी नीतियों के कोड़े से निकलती है

अलबत्ता बात तो यह है कि भारत में महंगाई की दर कम दिखाई जाए या अधिक भारत का आम आदमी हर वक्त महंगाई की मार झेलता रहता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि महंगाई के हिसाब से भारत की बहुत बड़ी आबादी की आमदनी नहीं बढ़ती। वह जस का तस ही रहती है। ऐसे में अगर महंगाई के सही आंकड़े ना दिखें तब तो मार भी भयंकर पड़ेगी और सरकार किसी तरह का इलाज करने के लिए भी तैयार नहीं होगी। यही वजह है कि कमाई की कमी और महंगाई के बीच के अंतर की वजह से भारत की 97 फ़ीसदी आबादी गरीबी के गर्त में चली गई। किसी को पता भी नहीं चला। 

भारत में तकरीबन 94 फ़ीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। अगर सरकारी आंकड़ों में महंगाई 4 फ़ीसदी दिखे और हकीकत में वह 10 फ़ीसदी से ऊपर हो, तब सोचिए कितनी खतरनाक परेशानी से आम आदमी गुजर रहा होगा। 

ये भी पढ़ें: महंगाई और बेरोज़गारी के बीच अर्थव्यवस्था में उछाल का दावा सरकार का एक और पाखंड है

Inflation
inflation rate
WPI
CPI
wholesale price index
Consumer Price Index
retail price index
drawback in inflation rate
flawed calculation of inflation
महंगाई
महंगाई दर
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया
RBI

Related Stories

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

आर्थिक रिकवरी के वहम का शिकार है मोदी सरकार

क्या जानबूझकर महंगाई पर चर्चा से आम आदमी से जुड़े मुद्दे बाहर रखे जाते हैं?

मोदी@8: भाजपा की 'कल्याण' और 'सेवा' की बात

गतिरोध से जूझ रही अर्थव्यवस्था: आपूर्ति में सुधार और मांग को बनाये रखने की ज़रूरत

मोदी के आठ साल: सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा पर क्यों नहीं टूटती चुप्पी?

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

वाम दलों का महंगाई और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ कल से 31 मई तक देशव्यापी आंदोलन का आह्वान

महंगाई की मार मजदूरी कर पेट भरने वालों पर सबसे ज्यादा 

सारे सुख़न हमारे : भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी की शायरी


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License