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बीएचयू में कौन खड़ा कर रहा शायर अल्लामा इक़बाल के पोस्टर पर बितंडा?
प्रसिद्ध शायर अल्लामा इक़बाल भारत में पैदा हुए, उनकी मौत भी इसी सरजमीं पर हुई थी। आज़ादी और विभाजन से पहले ही साल 1938 में अविभाजित भारत के लाहौर में उनका इंतकाल हुआ था। ऐसे में वह पाकिस्तानी कैसे हो गए?
विजय विनीत
10 Nov 2021
BHU Iqbal

उत्तर प्रदेश के बनारस स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने दुनिया के जाने-माने शायर मोहम्मद इक़बाल, जिन्हें अल्लामा इक़बाल कहा जाता है, के ई-पोस्टर को लेकर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। बीएचयू के उर्दू विभाग में नौ नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय उर्दू दिवस के मौके पर वेबिनार का आयोजन किया गया था। गुनाह यह हो गया कि वेबिनार के बाबत तैयार कराए गए ई-पोस्टर में शायर इक़बाल की तस्वीर चस्पा कर दी। ई-पोस्टर उर्दू विभाग के छात्रों ने तैयार किया था। दरअसल नौ नंवबर को शायर इक़बाल का जन्मदिन भी था। इनके जन्मदिन पर ही दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय उर्दू दिवस मनाया जाता है।

बीएचयू में ई-पोस्टर को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को आपत्ति है। एबीवीपी से जुड़े छात्रों का आरोप है कि कार्यक्रम की सूचना विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से जारी नहीं की गई। साथ ही बीएचयू की वेबसाइट पर भी इसे नहीं डाला गया। उर्दू विभाग के अध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद ने ई-पोस्टर बनवाया और मनमाने ढंग वेबिनार का प्रचार-प्रसार शुरू करा दिया।

ई-पोस्टर विवाद ने तूल पकड़ा तो बीएचयू प्रशासन की ओर से ट्विटर पर माफी मांगते हुए भूल सुधार कर नया पोस्टर जारी किया गया। उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद आफ़ाक़ी को ओर से बयान आया, " वेबिनार का जो पोस्टर सोशल मीडिया पर वायरल किया गया था, वह भूलवश तैयार हो गया था। इसकी जगह दूसरा पोस्टर तैयार करा लिया गया है। नए पोस्टर में सिर्फ महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की तस्वीर लगाई है। त्रुटि के वह माफी मांगते हैं। "

विवाद ने क्यों पकड़ा तूल?

उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद आफ़ाक़ी के माफ़ीनामे के बाद भी मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। इस विवाद ने इतना तूल पकड़ लिया है कि ई-पोस्टर मामले की जांच के लिए बीएचयू प्रशासन को एक तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाना पड़ी है। जांच कमेटी में अंग्रेजी विभाग के प्रमुख प्रो. केएम पांडेय को अध्यक्ष नामित किया गया है। इनके अलावा पाली एवं बौद्ध अध्ययन विभाग के प्रो. विमलेंद्र कुमार सदस्य बनाए गए हैं। कला संकाय के सहायक कुलसचिव को सदस्य सचिव नामित किया गया है। कमेटी ने इस मामले की जांच-पड़ताल शुरू कर दी है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पब्लिक रिलेशन अधिकार राजेश सिंह बताते हैं, " उर्दू विभाग के अध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद आफ़ाक़ी के फेसबुक पर लगे ई-पोस्टर का स्क्रीन शॉट लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े किसी छात्र ने ट्विटर पर पोस्ट कर दिया था। देखते ही देखते वह ट्विटर पर ट्रैंड करने लगा। बीएचयू प्रशासन जब तक एक्शन में आता तब तक डेढ़ लाख लोग इस पोस्ट को देख चुके थे और हजारों लोग अनाप-शानाप टिप्पणियां भी लिख चुके थे। शिकायत उर्दू विभाग के अध्यक्ष तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत ई-पोस्टर को बदलवा दिया। हालांकि उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. अहमद ने माफ़ी मांगते हुए स्पष्ट कर दिया है कि उनका मकसद किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं था। अब यह मामला शांत हो चुका है। कुछ अराजकतत्व इस मुद्दे को बेवजह तूल देने की कोशिश कर रहे हैं।"

बीएचयू में वेबिनार से पहले महामना मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते विभागाध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद आफ़ाक़ी
पीआरओ राजेश सिंह यह भी कहते हैं, " उर्दू विभाग के अध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद ने जानबूझकर ई-पोस्टर नहीं तैयार कराया था। उनकी गलती सिर्फ इतनी है कि पोस्टर जारी करने से पहले उन्हें बीएचयू प्रशासन की संस्तुति लेनी चाहिए थी। हालांकि उर्दू दिवस के मौके पर आयोजित वेबिनार शुरू होने से पहले विभाग के छात्रों ने विश्वविद्यालय की परंपरा के अनुसार कुलगीत भी गाया। जांच कमेटी तीन दिन में अपनी रिपोर्ट विश्वविद्यालय प्रशासन को सौंपेगी।"

 

बीएचयू में उर्दू दिवस पर आयोजित वेबिनार में कुलगीत गातीं छात्राएं

भारत में पैदा हुए, भारत में मरे शायर इक़बाल

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में वेबिनार के बाबत ई-पोस्टर के मामले को तूल दिए जाने से विभागाध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद बेहद आहत हैं। वह मीडिया से बात नहीं करना चाहते हैं, लेकिन वह अपने पक्ष में पुख्ता तर्क जरूर देते हैं। वह कहते हैं, "अंतरराष्ट्रीय उर्दू दिवस के दिन दुनिया के जाने-माने शायर अल्लामा इक़बाल का जन्म (9 नवंबर 1877) हुआ था। उनके जन्मदिन को ही उर्दू दिवस के रूप में मनाया जाता है। वह अपना पक्ष जांच कमेटी के सामने रखेंगे। वह बीएचयू में काम करते हैं। अगर उनसे कोई गुनाह भी हुआ है तो फैसला विश्वविद्यालय प्रशासन करेगा। किसी तीसरे पक्ष को इस मामले को तूल देने की जरूरत नहीं है।"

शायर अल्लामा इक़बाल के ई-पोस्टर के मामले में विवाद क्यों हो रहा है?  इस पर प्रो. आफ़ताब अहमद कहते हैं, "इक़बाल साहब भारत में पैदा हुए थे। उनकी मौत भी भारत की सरजमीं पर ही हुई थी। आजादी और विभाजन से पहले ही साल 1938 में अविभाजित भारत के लाहौर में उनका इंतकाल हुआ था। ऐसे में वह पाकिस्तानी कैसे हो गए? आखिर यह बात किसी की समझ में क्यों नहीं आ रही है। कार्यक्रम ऑनलाइन था और इक़बाल के जन्मदिन  पर आयोजित किया गया था। छात्रों ने भूलवश पोस्टर में इक़बाल की तस्वीर लगा दी। यदि ऑफलाइन प्रोग्राम होता तो हम जरूर पोस्टर देखते और सुधारने के बाद ही उसे लगवाते।"

शायर अल्लामा इक़बाल। फोटो : सोशल मीडिया से साभार

जहां ढूंढेंगे वहीं मिलेंगे इक़बाल

प्रो. अहमद कहते हैं, "मध्य प्रदेश की सरकार हर साल साहित्य के क्षेत्र में बड़ा योगदान देने वाले साहित्यकारों को अल्लामा इक़बाल सम्मान देती है। भोपाल में इक़बाल स्पोर्ट्स एकेडमी है। आजादी के आंदोलन में इक़बाल ने सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... जो तराना लिखा था उसे समूचे भारतवासियों ने गया। इक़बाल ने देशभक्ति की न जाने कितनी नज्में लिखी हैं। हम इक़बाल को सिलेबस में भी पढ़ाते हैं। हिंदी में उर्दू साहित्य के इतिहास में इक़बाल हैं। आखिर हम अल्लामा इक़बाल को कहां-कहां से निकालेंगे। बीएचयू दुनिया की जानी-मानी शैक्षणिक सस्था है। यहां हमें खुले मन से सोचना चाहिए। किसी कवि और शायर को धर्म अथवा आस्था की चौहद्दी में नहीं कैद किया जाना चाहिए।”

"यह सोचना गलत है कि गालिब मुसलमान हैं और कालीदास हिन्दू।  बनारस ने कभी सूर, कबीर, अमीर खुसरो, रहीम, गालिब, तुलसीदास को अलग नहीं माना। नजीर बनारसी की नज्में आज भी समूचे बनारस के लोगों के दिलों में समाई हुई हैं। ये सभी शायर और कवि भारत के हैं और भारतीय हैं।"

 

मालवीय जी थे उर्दू ज़ुबान के हिमायती

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाने वाला एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय के संस्थापक भारतरत्न पंडित मदन मोहन मालवीय कई मामलों में एक महान दूरदर्शी व्यक्तित्व थे। साल 1916 में, बीएचयू की स्थापना हुई और एक साल बाद 1917 में यहां उर्दू के अलावा अरबी, फारसी विभाग खोल दिया गया। मालवीय जी इन तीनों भाषाओं (अरबी, फारसी, उर्दू) के अच्छा जानकार थे। उन्होंने अपने समय के एक महान कवि, मिर्ज़ा मोहम्मद फ़ैज़ बनारसी को इस संयुक्त विभाग के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था।

मिर्जा मोहम्मद फ़ैज़ बनारसी के निधन के बाद मौलवी अबुल हसन को विभाग में नियुक्त किया गया था। उन्होंने विभाग में मौलवी महेश प्रसाद के साथ पढ़ाया और काम किया। 30 जून, 1951 को मौलवी महेश प्रसाद के सेवानिवृत्त होने के बाद, मौलवी अबुल हसन ने विभाग में पढ़ाया। डॉ. बदर-उल-हसन आब्दी को 15 जुलाई, 1958 को विभाग में नियुक्त किया गया था। तब सैयद सुलेमान अब्बास रिज़वी को मौलवी अबुलान के सेवानिवृत्त होने के बाद 23 जुलाई 1959 को विभाग में व्याख्याता नियुक्त किया गया था। और जल्द ही डॉ. हुकुम चंद नय्यर को 3 अक्टूबर, 1960 को विभाग में उर्दू व्याख्याता नियुक्त किया गया। 9 जुलाई, 1964 को डॉ. अमृत लाल इशरत को विभाग में व्याख्याता के रूप में नियुक्त किए जाने पर विभाग में संकाय सदस्यों की संख्या बढ़ गई। साल 1965 में  सेंट्रल हिंदू कॉलेज (सीएचएस) कला संकाय बन गया। जब यूजीसी ने वैकल्पिक विषय के उर्दू के शिक्षण को मंजूरी दी तो साल 1972 में  यह एक स्वतंत्र विभाग बन गया।

कई बार गरमा चुका है बीएचयू

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उर्दू और इस्लाम के सवाल पर पहले भी कई मर्तबा विवाद हो चुके हैं। कुछ ही साल पहले संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर फिरोज खान की नियुक्ति को लेकर खूब हंगामा मचा था। बीएचयू के स्टूडेंट्स का एक तबका फिरोज खान की नियुक्ति को रद्द करने की मांग कर रहा था। दीगर बात है कि बीएचयू के उर्दू विभाग छात्रों की इस भाषा की तालीम देने वाले डॉ. ऋषि शर्मा कि नियुक्ति पर कभी किसी ने सवाल नहीं खड़ा किया।

उर्दू के शायर अल्लामा इक़बाल को लेकर नया बखेड़ा करने वाले एबीवीपी से जुड़े छात्रों का कहना है कि आमंत्रण पर जो तस्वीर लगी थी उन्हें उसी पर आपत्ति थी। जिस जगह इक़बाल की तस्वीर लगी थी वहां महामना की लगाई जानी चाहिए थी। जब तक दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई नहीं होगी, तब तक उनका विरोध जारी रहेगा। 

बीएचयू बन रही आरएसएस की पाठशाला

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "बीएचयू की लंपटीकरण करके इसे आरएसएस की पाठशाला बनाने की कवायद चल रही है। दुनिया के प्रसिद्ध शायर अल्लामा इक़बाल ने उर्दू साहित्य के उत्थान के लिए जो योगदान है उसे कैसे झुठलाया जा सकता है? उर्दू तो हिन्दी की सगी बहन है। साहित्य सेवा को मुल्क और मजहब की चौहद्दी में कैद करना कहां तक उचित है। गुलामी के दौर में भारत में बहुत से उर्दू के साहित्यकार हुए। अंग्रेजी के कई कवि भी पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाते हैं। अगर हम इक़बाल को छोड़ दें तो तो हमें शेक्सपियर को भी पढ़ना छोड़ना होगा। ई-पोस्टर के बहाने जो लोग अल्लामा इक़बाल का विरोध कर रहे हैं वो निहायत संकीर्ण मानसिकता वाले हैं। ऐसे लोग किसी भी साहित्य और भाषा के दोस्त नहीं, सिर्फ दुश्मन हो सकते हैं। जब उर्दू भारतीय भाषाओं की सूची में शामिल तो उसे पढ़ने और बोलने से भला कौन रोक सकता है? शायर इक़बाल का विरोध वही लोग कर रहे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि आजादी के आंदोलन के उनके सभी तराने देश में गाए जाते थे।"  

शायर अल्लामा इक़बाल के विरोध में बनारस में बितंडा थमता नजर नहीं आ रहा है। सोशल मीडिया पर विरोध और समर्थन के स्वर गूंज  रहे हैं। भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम) से जुड़े अनुपम कुमार (डीके) अपने फेसबुक वाल पर लिखते हैं, "बीएचयू में एक नफरती गैंग है। वास्तविक मुद्दों से उसका कोई सरोकार नहीं है। इनका काम होता है भावनाओं को भड़काना और फर्जी मुद्दों को हवा देना। यह नफरती गैंग हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जमकर हमले करते हैं और शाखाओं से मिले नफरती ट्रेनिंग को आगे बढ़ाते हैं। ताजा मुद्दा नफरत की इसी पाठशाला की उपज है। बेरोजगारी के इस दौर में इस गैंग को उर्दू विभाग से जुड़ा नया मुद्दा मिल गया है। क्या मालवीय जी की तस्वीर न लगने से संस्थापक से उनका नाम हट जाएगा? क्या बीएचयू का इतिहास बदल जाएगा? सच यह है कि नफरती गैंग अपनी हवस और स्वार्थ में नवप्रवेशी छात्र-छात्राओं दिमाग और चेतना को कुंद करने में जुटा है। जाति-धर्म की चौहद्दी में बांटकर नफरत फैलाने के बजाय, बीएचयू में प्यार व  संवेदना की सुगंध फैलाने और नफरती गैंग का तिरस्कार करने की जरूरत है।"

 

(लेखक विजय विनीत बनारस स्थिति वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

 

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