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कोरोना संकट : क्या यह वक़्त आलोचना का नहीं है?, बिल्कुल है, यही वक़्त है सही आलोचना का
वे लोग कह सकते हैं और कहेंगे भी कि आपको राजनीति करनी है तो आप क्यों सहमत होंगे! मानो जब वे कह रहे हैं कि यह वक़्त आलोचना और राजनीति का नहीं, बल्कि एकताबद्ध होकर लड़ने का है तो वे राजनीति नहीं कर रहे हैं!
राजीव कुंवर
30 Mar 2020
कोरोना संकट
Image courtesy: The Indian Express

एक बात लगातार कही जा रही है कि "यह वक़्त आलोचना का नहीं है। अभी तो सबको एक होकर कोरोना से लड़ने की जरूरत है।" क्या इससे सहमत हुआ जा सकता है ? 

मेरा जवाब नहीं होगा। 

वे लोग कह सकते हैं और कहेंगे भी कि आपको राजनीति करनी है तो आप क्यों सहमत होंगे!

मानो जब वे कह रहे हैं कि यह वक़्त आलोचना और राजनीति का नहीं, बल्कि एकताबद्ध होकर लड़ने का है तो वे राजनीति नहीं कर रहे हैं!

तानाशाह आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकता। पिछले दो-तीन दशकों से एक बात सुनायी देती रही है कि इस देश में जो अराजकता है उसे कोई तानाशाह ही ठीक कर सकता है। कभी वही अंग्रेजों की तारीफ करते मिल सकते थे तो कभी इंदिरा गांधी के इमरजेंसी की तारीफ़ - चुस्त दुरुस्त प्रशासनिक व्यवस्था के लिए। अर्थात नागरिक कानून को स्थगित कर सत्ता-शासन के बंदूक की नोक पर व्यवस्था। नागरिक चेतना के निर्माण और नागरिक समाज बनाने की जगह फ़ॉलोअर्स तैयार करने की जो मनोवृत्ति तैयार की गई उसी की फसल आज पक चुकी है। 

आलोचनात्मक विवेक की बात आज 'राजनीति' के नकारात्मक चेतना का प्रतीक है।

आखिर जनवरी से ही जब विपक्ष द्वारा दुनिया भर में फैल रहे कोरोना के खतरे से सचेत किया जा रहा था, तो इसे भी अराजकता फैलाने की राजनीति ही कहा गया। अर्थव्यवस्था को पूरी तरह सुरक्षित बताया गया। विपक्ष पर ही हमला किया गया। क्या इसकी वजह आलोचनात्मक विवेक को समाज में तवज्जो देने की कमी नहीं? आलोचनात्मक विवेक अगर मीडिया में होता, मंत्रियों में होता, समाज में होता तो क्या सरकार का फैसला वही होता? क्या मोदी वैसे ही पप्पू कहकर इतने बड़े खतरे को नजरअंदाज कर पाते? केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जो खुद डॉक्टर हैं उन्होंने भी दिग्भ्रमित करने का काम ही किया। आखिर क्यों ?

आज जो करोड़ों दिहाड़ी मजदूर सड़कों पर देशभर में बेचैनी के साथ घर जाना चाहते हैं - उसे विपक्ष की घटिया राजनीति कौन बता रहा है? क्या यह दिल्ली मात्र की समस्या है? अब सोचिए अगर अभी भी आलोचनात्मक विवेक के साथ आप नहीं होंगे तो आपको भी मुंबई, लखनऊ, गुजरात, मध्यप्रदेश, आदि के बजाय मात्र केजरीवाल और दिल्ली का आनंद विहार ही दिखेगा। 

औचक घरबंदी का फैसला लेना इसकी वजह नहीं है क्या? तब जिम्मेदारी तो मोदी सरकार के फैसले की होगी न! लेकिन जब इसे कहेंगे तो यह राजनीति कहा जाएगा। समझिए कि कौन लोग हैं जो ये कह रहे हैं!

अगर मोदी सरकार की जिम्मेदारी तय नहीं होगी तो अब भी बड़े पैमाने पर जाँच की बात को स्वीकार करने एवं इस दिशा में सरकार की भूमिका निभाने के फैसले में और भी देरी होगी। सोचिए अगर विदेशों से कुछ लाख लोगों द्वारा आया कोरोना वायरस आज पूरे देश में कैसे फैल गया ? क्या इसके लिए चीन जिम्मेदार है ? इसके लिए मोदी सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है कि उसने विदेश से लौटे लोगों को आइसोलेशन में रखने, उनकी जाँच करने, उनका इलाज करने की उसने कोई तैयारी नहीं की। गौ मूत्र और गोबर से कोरोना वायरस से रक्षा का राग केंद्रीय मंत्रियों द्वारा कहा जाता रहा। अदूरदर्शिता का परिणाम है कि जब यह वायरस देश के कई राज्यों में फैल गया तो अब राज्य सरकारों को उन्हें खोजने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। क्या यह राजनीति नहीं है ?

वेंटिलेटर, जाँच के किट और सुरक्षा के इंतजाम, आदि पर अभी भी सरकार कितनी गंभीर है यह कहना मुश्किल है। भूख से मरना या कोरोना से मरना - क्या यही दो विकल्प है उन दिहाड़ी मजदूर के लिए? तब वे क्या चुनेंगे इनमें से - इसे आप सड़कों पर पैदल चलते उन मजदूरों के इंटरव्यू से जान सकते हैं।

इसलिए एकजुटता से लड़ने के लिए भी आलोचनात्मक विवेक की सख्त जरूरत है। इसके बिना सत्ता को आप तानाशाह बनाने में अपनी बौद्धिक आहुति दे रहे हैं। हाँ आपको तानाशाह ही चाहिए तो अंग्रेजों को भगाने के लिए जो स्वाधीनता आंदोलन का संघर्ष चला जिसमें चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, भगत सिंह आदि को फांसी की सज़ा मिली - उसकी आपको निरर्थकता लगेगी ही। आपको गांधी, नेहरू, पटेल, अम्बेडकर, आदि के द्वारा संविधान निर्माण के द्वारा जनतान्त्रिक प्रक्रिया परेशान करती ही होगी। 

अंतिम बात सुन लीजिए - कोरोना वायरस से तो दुनिया लड़ रही है, हम भी लड़ रहे हैं, मौत भी होगी, पर अंततः विश्व-मानव उसे जीत ही लेंगे। लेकिन अगर आलोचनात्मक विवेक को हमने 'राजनीति' के नकारात्मक अर्थ में ले लिया तो तानाशाह की फ़ौज ही तैयार होगी, जिसमें जनतंत्र का दम घुटकर सदियों के लिए दफ़न हो जाएगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़े : कोरोना : संकट के समय ही प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी सोच का अंतर साफ़ होता है

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