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रुख़ से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है
बीजेपी अपनी केंद्र सरकार और गोदी मीडिया के सहयोग से ऐसा भ्रम रच सकती है जिसमें गैर बीजपी शासित राज्य में एक गाय या हथिनी की मौत भी राष्ट्रीय दुख बन सकती है और बीजेपी शासित राज्य में सरकारी गौशाला में सैकड़ों गायों की मौत, सड़क चलते निर्दोष इंसानों की मॉब लिंचिंग तक हेडलाइन ख़बर नहीं बनती।
मुकुल सरल
10 Sep 2020
Kurukshetra
केंद्र सरकार के  कृषि अध्यादेशों के ख़िलाफ़ कुरुक्षेत्र में सड़क पर उतरे किसान

ये कितना दुखद है कि आज जब हमें कोरोना के प्रतिदिन एक लाख के करीब पहुंच रहे नये मामलों पर चिंता और चर्चा करनी चाहिए, जीडीपी में करीब 24 फीसदी की गिरावट और बेरोज़गारी के संकट पर बात करनी चाहिए, हमारा तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया सत्ता के इशारे पर कभी सुशांत-रिया मामले को न केवल प्राइम टाइम न्यूज़ बनाता है, बल्कि 24 घंटे उसका प्रसारण करता है और कभी कंगना रनौत को लेकर हाय-हल्ला मचाता है। और हमें भी न चाहते हुए उस पर प्रतिक्रिया देनी पड़ती है।

कल, 9 सितंबर को जिस समय टेलीविज़न चैनल कंगना अब यहां से चलीं, अब वहां से चलीं, अब मंदिर में गईं, अब विमान में बैठीं, अब विमान से उतरी ख़बरों का लाइव प्रसारण कर रहे थे, उसी समय केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय अपने आंकड़े जारी कर बता रहा था कि पिछले 24 घंटों में कोरोना के 89,706 नए मामले सामने आए हैं। आज गुरुवार, 10 सितंबर को भी जब कंगना ही कंगना टेलीविज़न पर छाईं थीं, तब भारत ने पिछले 24 घंटो में कोरोना के अब तक के रिकॉर्ड 95,735 नए मामले दर्ज कर लिए थे। इसके अलावा एक दिन में 1,172 मरीज़ों की मौत हो गई थी। देश भर में अब सक्रिय मामलों की संख्या बढ़कर 9 लाख 19 हज़ार 18 हो गयी है और कुल मामलों की संख्या 44 लाख 65 हज़ार 863.

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बीजेपी और उसके आलाकमान मोदी-शाह की दो स्पष्ट नीतियां है कि कभी मुद्दे की बात मत करो और जहां उनकी सरकार नहीं है वहां उसे अस्थिर करके अपनी सरकार बना लो। इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसके लिए वे सत्ता और सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग और गोदी मीडिया के सहयोग से ऐसा भ्रम रच सकते हैं जिसमें गैर बीजपी शासित राज्य में एक गाय या हथिनी की मौत भी राष्ट्रीय दुख बन सकती है और बीजेपी शासित राज्य में सरकारी गौशाला में सैकड़ों गायों की मौत, सड़क चलते निर्दोष इंसानों की मॉब लिंचिंग तक हेडलाइन ख़बर नहीं बनती। एक अभिनेता की आत्महत्या राष्ट्रीय बहस का हिस्सा और देश की टॉप जांच एजेंसियों की पहली चिंता बन सकती है, लेकिन रोज़ी-रोटी से मोहताज़ होकर महानगरों से गांव-घर लौटते मज़दूर-कामगारों की सड़क और रेल लाइनों पर मारे जाने की ख़बर का भी किसी पर असर नहीं पड़ता। ऐसे मज़दूरों के परिवार प्रधानमंत्री के एक ट्वीट को तरस जाते हैं।

इसे पढ़ें :  क्या आज बेरोज़गारी पर बात न करना देश के 135 करोड़ लोगों की अवमानना नहीं है!

यही अभिनेत्री कंगना के मामले में हो रहा है। उनके दफ़्तर को तोड़ा जाना तो राष्ट्रीय ख़बर से भी आगे लगभग राष्ट्रीय संकट बना दिया गया है लेकिन दिल्ली में 48 हज़ार झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़े जाने के आदेश से कोई चिंतित या द्रवित नहीं। किसी की आंख गीली नहीं।

इंसाफ़ का तक़ाज़ा तो ये है कि हम हर उस ग़लत बात की आलोचना करें जो हमारे लोकतंत्र और संविधान को कमज़ोर करे। इसलिए किसी भी सरकार द्वारा नियम-कानून को ताक पर रखकर किसी के भी ख़िलाफ़ बदले की मंशा से कार्रवाई करने के तो हम विरोधी हैं और इसी वास्ते कंगना के भी अधिकार की वकालत करेंगे। जैसे हम रिया की मीडिया लिंचिंग के ख़िलाफ़ हैं, उसी तरह कंगना के ख़िलाफ़ इस तरह की मनमानी कार्रवाई पर हमें आपत्ति है, इसके लिए हम सरकार को संविधान में दायरे में रहने और किसी के भी ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई न करने की नसीहत देंगे, लेकिन इसके बरअक्स हम कंगना को न तो स्त्री होने का अतिरिक्त लाभ देंगे और न उनकी अमर्यादित भाषा-शैली और अलोकतांत्रिक कोशिशों का बचाव करेंगे।

इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि वे बीजेपी का एक मोहरा हैं और केंद्र की बीजेपी सरकार की ओर से महाराष्ट्र की शिवसेना के नेतृत्व की महा विकास अघाड़ी सरकार को अस्थिर करने की मुहिम का एक हिस्सा। बिल्कुल उसी तरह जैसे सुशांत-रिया केस बीजेपी के लिए बिहार चुनाव प्रभावित करने का एक अभियान है जिसमें रिया को शिकार बनाया गया है। बिहार में बीजेपी के चुनाव अभियान का एक पोस्टर ही उसकी मंशा को साफ़ कर देता है।

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यहां यह समझना बहुत ज़रूरी है कि राजनीति की बिसात पर कंगना एक मोहरा हैं और रिया एक शिकार। मोहरे और शिकार का फ़र्क़ जानना इस पूरी राजनीति को समझने के लिए बेहद ज़रूरी है।

कंगना सत्ता के एक अनैतिक खेल का हिस्सा हैं इसलिए उसका खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना होगा। और सिर्फ़ इतना ही नहीं उनकी भाषा और शैली भी घोर आपत्तिजनक है। जिस तरह के शब्दों और प्रतीकों का वह इस्तेमाल कर रही हैं वो हमारे संविधान के विरुद्ध और देश को उसी नफ़रत की आग में और झुलसाने की कोशिश है जिसमें वह पहले से ही झुलस रहा है।

लेकिन ये भी दिलचस्प है कि जो शिवसेना हमेशा बीजेपी से बढ़कर राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का चैंपियन होने का दावा करती रही है। और इससे पहले बीजेपी से गलबहियां किए हर दूसरे आदमी को राष्ट्रविरोधी और हिन्दू विरोधी होने का सार्टिफिकेट बांटती फिरती थी आज वही बीजेपी और उसके खेमे के हिन्दुत्ववादियों के निशाने पर है। कंगना उसे उन्हीं प्रतीकों के माध्यम से परास्त करने की कोशिश कर रही हैं जो वे दूसरे के लिए खुलेआम प्रयोग करते रहे हैं। कंगना शिवसेना प्रमुख को बाबर और अपने घर-दफ़्तर को राम मंदिर बता रहीं हैं। देश की जनता को बिन मांगे अयोध्या के साथ कश्मीर पर फ़िल्म बनाने का वचन दे रहीं हैं। कोई शिवसैनिक कभी सोच भी नहीं सकता था कि कोई उन्हें उन्हीं के हथियारों से ज़ख़्मी करेगा।

ख़ैर सत्ता के सारे भेद जनता के सामने धीरे-धीरे खुल ही जाएंगे। सारे तिलिस्म एक-एक कर टूट जाएंगे। और टूट भी रहे हैं, तभी तो जनता अब सत्ता को उसी की भाषा और उसी के औज़ारों/हथियारों से जवाब दे रही है। आपको मालूम ही है कि अभी हमारे ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री के ‘अति लोकप्रिय’ ‘मन की बात’ कार्यक्रम का क्या हश्र हुआ। हर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर उसे लाइक से ज़्यादा डिस्लाइक मिले। लोगों ने पसंद से ज़्यादा नापसंदगी ज़ाहिर की और तीखे कमेंट्स किए। इसी तरह नीतीश कुमार की पहली वर्चुअल रैली के साथ भी हुआ।

यही नहीं देश के युवाओं ने अभी 5 सितंबर को ताली-थाली बजाकर बेरोज़गारी को लेकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की और रोज़गार की मांग की। इसी तरह 9 सितंबर को रात 9 बजे 9 मिनट के लिए घर की बत्ती बंद कर दिया-बाती की रौशनी करके युवाओं ने अपना विरोध जताया।

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इसे पढ़ें : बेरोजगारी के खिलाफ #9बजे9मिनट कैंपेन को मिला व्यापक जनसमर्थन

इसी तरह 5 सितंबर को ही देशभर में 500 से ज़्यादा महिला और मानवाधिकार संगठनों ने ‘हम अगर उट्ठे नहीं’ के नारे के साथ सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी मुहिम छेड़ी। इसी तरह किसानों, मज़दूरों और कर्मचारियों के भी आंदोलन हो रहे हैं। जो सरकार की नीतियों के चलते आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर और तेज़ होंगे। इसका उदाहरण आज कुरुक्षेत्र में किसानों का आंदोलन है। कें‍द्र सरकार के तीन कृषि अध्यादेशों के ख़िलाफ़ हरियाणा के कुरुक्षेत्र में हज़ारों किसान आज, गुरुवार, 10 सितंबर को सड़कों पर उतर आए। भारतीय किसान संघ और अन्य किसान संगठनों ने कुरुक्षेत्र के पिपली में राष्ट्रीय राजमार्ग को जाम कर दिया। ख़बर है कि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज भी किया।

इस सबसे इतना तो उम्मीद बंधती है कि सत्ता+मीडिया+आईटी सेल की इतनी कोशिशों-साज़िशों के बावजूद अवाम पूरी तरह बेज़ार नहीं हुआ है। लोग खासकर छात्र, युवा, किसान, मज़दूर, महिलाएं अब प्रधानमंत्री मोदी को ये बताने और जताने की लगातार कोशिश कर रहे हैं कि वे अब चुप नहीं बैठेंगे और न अब किसी और ‘अच्छे दिन’ के जुमले के झांसे में आएंगे।

शायद इसी संदर्भ में कभी जनकवि गोरख पांडेय ने लिखा था कि

रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है

रुख़ से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है

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