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कोविड-19
नज़रिया
कोरोना का दर्शन शास्त्र
कोरोना ने जीवन को कई स्तर पर प्रभावित किया है। विचारों की दुनिया भी फिर से खुद की पड़ताल करने की मांग कर रही है।
सिद्धेश्वर शुक्ला
05 May 2021
कोरोना
Image courtesy : The Quint

प्रबोधन काल एवं वैज्ञानिक क्रांति के बाद संभवत: तर्क पद्धति और विज्ञान को सबसे बड़ी चुनौती कोरोना ने ही दी है। दुनिया के पैमाने पर 145 मिलियन लोगों के संक्रमित होने एवं 3.07 मिलियन मौत के मंजरों ने हमारी आधुनिकता की तमाम परिभाषाओं को पुनः परिभाषा गढ़ने के लिए बाध्य कर दिया है। 

डेकार्ट्स का कौजिरो ( कौजिटो अर्गोसम) या 'मैं' सोचता हूं भी 'हम' सोचते है में तब्दील हुआ जबकि विज्ञान ने लगातार " एकांतपन ( आइसोलेशन) को प्रोत्साहित किया है। संचार- सूचना एवं सूचना वित्त प्रबंधन ने निश्चित छलांग लगाई है। सूचना क्रांति का मोबाइल विस्फोटन हुआ है। इसमें जनसंख्या के ग़रीब, मजदूर , महिलाओं, वंचितों एवं प्रभावग्रस्त लोगों को पूरी तरह से मुख्यधारा से पीछे छूट जाने का खतरा भी एतिहासिक रुप से सबसे ज्यादा है। तकनीकी इच्छुक एवं तकनीकी अनिच्छुक लोगों की खाई गहरी हुई है। कोरोना इतिहास में व्यजिंत सभी महामारियों से प्रभावित लोगों की संख्या, ब्लैक डेथ (75-200 मिलियन), स्पेनिश फ्लू(17-100 मिलियन), जस्टिनीयन प्लेग (15-100 मिलियन), एचआईवी( 35 मिलियन) को पहले ही पीछे छोड़ चूका है।

 इस काल को अस्तित्ववाद का स्वर्ण युग मानना चाहिए। जीवन को संरचनात्मक तरीके से जीने की प्रबल तर्कों को विज्ञान प्रसारित कर रहा है। डब्लूएचओ की सारी गाइडलाइंस कम से कम इसी ओर इशारा करती हैं। महामारी में सांस चलने की जद्दोजेहद शायद ही इतिहास में कभी इतनी प्रबल दिखाई दी हो । हेडगेवार, किंकेगार्ड, कामू ,काफ्का की तस्वीरें बार- बार प्रकट हो रही है। इसी दौर में उपयोगितावाद भी पुनः प्रकट हुआ है । दूसरों की अच्छाई के साथ अपने लिए अच्छाई करना जरूरी है। पैसों के अभाव में भूखे रह रहे और हजारों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर मजदूरों के लिए श्रम के मूल्य का अधिकतम एहसास होना कोई अस्वभाविक बात नहीं है, परन्तु पूंजीवाद ने सबसे ज्यादा उपयोगितावाद के अर्थ को समझा है।

ज्यादा से ज्यादा मशीनीकृत एवं इंटरनेट पर आधारित "वर्क फ्राॅम होम" की अवधारणा के विकास ने पूंजीवादी उपयोगितावाद को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया है। इसे औद्योगिक क्रांति के बाद के सबसे प्रभावकारी बदलाव के रूप में समझना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्लासिकल यूरिलिटेरियन जेरेमी बेंथम एंव जाॅन स्टुअर्ट मिल खुशी के साथ अच्छे की पहचान करते है एवं मूल्यों के बारे में एथिकुरस की भांति एडोनिस हो गये। 

उन्होंने कहा कि "सबसे बड़ी संख्या के लिए अच्छी राशि लाना "। कई कंपनियों ने अपने एवं अपने एजेंटों के लिए अच्छी धनराशि बनाने में कामयाबी हासिल की है। निश्चित तौर पर ऐसा करने के लिए "मूल्य" कोई मायने नहीं रखते फलत: कालाबाजारी, भ्रष्टाचार तथा स्वयंसिद्धी की प्रवृत्ति बढ़ी है। अपने मरीजों को ऑक्सीजन मिलते रहे इसके लिए अस्पताल का ऑक्सीजन चुरा लेने से बेहतर उदाहरण शाय़द असंभव है । जमाखोरी , कीमतों की अस्वभाविक बढ़ोतरी तो अपने चरमोत्कर्ष पर है। 

वास्तविक एवं वर्चुअल का अंतर घटा है । ऐसे दौर में विचार के अलावा किसी और चीज़ को वास्तविक जगत में देखना मुश्किल हुआ है । "विचार ही वास्तविकता है' को ही तो आईडियालिज्म कहते है। आमतौर पर ऐसी ही स्थितियों में ही प्रागमेंटिज्म का विकास होता है। जो सबसे ज्यादा सामने है वहीं ज़रुरी है और उसे किसी प्रकार हासिल किया जाना चाहिए। कोरोना की दवा का देशी संस्करण पतंजलि के प्रचार एवं सभी नीमी- हकीमी एक प्रकार का प्रागमैटिज्म ही तो है। हर व्यक्ति रोज कुछ टोटके लेकर आता है क्योंकि दवांए लगातार ग़रीबों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। वास्तविकतावाद मानता है कि वास्तविकता मानव मस्तिष्क से बाहर होती है। जब वास्तविकता हजारों सोच के दायरे से बाहर हो जाता है तो हम किसी भी चीज़ को अपनी नियति मानने के लिए तैयार हो जाते है। लागातार ऐसे ही हालात बनते जा रहे है।

 कोरोना ने जेंडर को कमजोर किया है। कोरोना के चलते महिलाओं में नौकरी खोना पुरुषों की तुलना में 1.8 प्रतिशत ज्यादा है। घर में बीमारों, बुजुर्गों एवं बच्चों को पालने का बोझ बढ़ा है। भारत में पहले से ज्यादा जिम्मेदारी निभाने को बाधित महिलाओं की स्थिति और खराब हो गई है । 

मैकिनले मानता है चूंकि महिलाएं और पुरुष अलग-अलग किस्म के काम करते है इसमें महिलाओं वाले हिस्से की स्थिति ज्यादा ख़राब है। विश्व इकोनोमिक फ़ोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 इस बढ़ती खाई को महिलाओं की गुणवत्ता विकास एवं प्रतियोगिकता करने की क्षमता पर बुरा असर डालने वाला माना है ,यह रिपोर्ट  भी बताती है कि देशों के जेंडर गैप को इतना बढ़ा दिया है कि इसे सामान्य स्तर पर लाने में 99.5 वर्ष लगेंगे। भारत का जेंडर गैप पहले से ही ख़राब हालात में था जो महिलाओं के घरों में बंद होने से और विपरीत असर डालने वाला साबित हुआ है। 

एन्टोनियो गटरेम ने "यूनियन कमीशन ऑन स्टेटस ऑफ वुमन" में इस ख़तरे की तरफ इशारा करता है। कहीं पुरातनपंथी, कट्टरतावादी, धार्मिकतावादी एवं सामंतवादी, पुनरुत्थानवादी शक्तियां जेंडर को जकड़न में न डाल दें। परिवारों के आर्थिक आय की गिरावट का असर स्त्रीधन- सोना, जेवरात व पैसे के खर्चे में देखा जा सकता है। 

पुरी दुनिया के पैमाने पर शोध प्रकाशन इस विषय पर अनवरत जारी है। घरेलू हिंसा के मामलो में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। तीसरे जेंडर की चर्चा तो सभी चिंतनों में हाशिए पर ही है कहा जा सकता है कि कोरोना ने तीसरे जेंडर को नरकीय स्थिति से एक पायदान नीचे पहुंचा दिया है जिसकी कल्पना मात्र मन को झकझोर देने में सक्षम है।

यदि पर्यावरण दर्शन के नजरिए से सोचा जाए तो सर्वाधिक संतोष प्रदान‌ करता है । कोरोना ने धरती को ठीक से सांस लेने की मोहलत दी है । मनुष्य की कैद ने प्रकृति को प्रदूषण से आजादी प्रदान की है। नदी, झरने, मानसून, तापमान, जंगल,बर्फ सबमें नये जीवन का संचार हुआ है। धुल और धुएं की घुटन से भरे शहरों को नमी प्राप्त हुई है। 

ध्वनि प्रदूषण का स्तर कमतर हुआ है ।‌ कार्बन-डाई-ऑक्साइड (Co2), सल्फर डाइऑक्साइड (So2), नाइट्रोजन डाइऑक्साइड(No2) शहरों में निम्न स्तर पर पहुंचा है। गंगा का पानी पीने योग्य हो पाया है। पुरी दुनिया में होने वाले मृत्यु का 8 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषण के चलते ही होता था उसमें कमी आई है। पृथ्वी वैज्ञानिक ने अनुमान लगाया है कि नाईट्रोजन ऑक्साइड के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत की कटौती से दो महीने में 77,000 लोगों की जान बचाई जा सकती है। पर्यावरण संरक्षण के लिए यूरोपिय संघ का 7 साल के लिए 1 ट्रिलियन बजट तथा 'नेक्स्ट जेनेरेशन ईयू' बजट का 25% जलवायु-अनुकूल खर्च के लिए आरक्षित करना चाहते है। यूरोपिय ग्रीन डील,कार्बन आफसेटिंग, न्यूनीकरण योजना, सालाना लाॅकडाउन, वाइरल लोड जैसे पर्यावर्जिय शब्दावली पहलीबार आमजन की शब्दावली का हिस्सा बना है। ज़्यादातर पर्यावरण दार्शनिक मानते हैं कि कोरोना पर्यावरणीय समस्या है और उसका समाधान भी उसके संरक्षण में ही अंतर्निहित है। उनकी सर्वमान्य अवधारणा यह भी है कि कोरोना के द्वारा सबसे पहले उन्ही जान को‌ लिया गया जिनको पहले से ही श्वास की समस्या थी और जाहिर तौर पर ऐसा दुषित वातावरण के चलते ही हुआ है ।

कोरोना का मार्क्सवाद अतिशय निम्नीकृत हुआ है। जहां उच्च एवं मध्यमवर्ग सामाजिक दूरी बना सकता है वहीं मजदूर काम के स्थलों, झुग्गी बस्तियों एवं पुनर्वास कालोनियों में ऐसा कर पाना संभव नहीं है। दुनिया के 213 देशों में जहां कोरोना फैला है सभी देशों में रोजगार प्रभावित हुआ है। उनके सामने समस्या भूख या महामारी में से चुनने की बनी हुई है। न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा किए गए स्मार्टफोन स्थान डाटा सर्वे मानता है कम आय वाले लोगों को अमेरिका के एक शहर से दूसरे शहर घूमते हुए देखा जा सकता है जबकि भारत में शहरों से गांवों में पलायन इसका दूसरा रूप है(सीएसआई रिपोर्ट) प्रवासी मजदूर तो सर्वहारा वर्ग का भी सर्वहारा बन गया है। जिन मजदूरों के पास 'वर्क फ्राॅम होम' का विकल्प नहीं है जैसे अमेजन, इस्कार्ट के कर्मचारी तथा संगठित एवं असंगठित मजदूर उनके लिए औद्योगिक क्रांति के बाद के सबसे अभावग्रस्त अवमूल्यन का समय है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक सौदेबाजी एतिहासिक रुप से कम हुआ है। लाॅकडाउन के समय तो 'डिलीवरी ब्याॅय ' के अतिरिक्त सारा मजदूर वर्ग पूंजीवाद के लिए अनुपयोगी ही रहा है। भारत में तो इन कार्यों की सैलरी का भुगतान सरकारी घोषणाओं के बावजूद बहुत ही कम पूंजीपतियों ने किया है। 

कामकाजी महिलाएं बुरी तरह प्रभावित हुई है। वर्ग विभाजन ज्यादा तीव्र हुआ साथ ही मजदूर वर्ग का स्तरीकरण भी उतना ही तेज़ है । सामाजिक एवं आर्थिक संबंधों में द्वंदात्मकत्ता बढ़ी है।अर्थ एवं अधिरचना का फर्क भी बढ़ा है। हालांकि राष्ट्रीय राज्यो ने "धार्मिक राष्ट्रवाद" को प्रायोजित किया है। लोकलुभावने नारे कमजोर पड़े हैं एवं  'करने को ही कहना'  माने जाने लगा है। मजदूरों के घटते आय उन्हें अपने स्वास्थ्य एवं बच्चों की शिक्षा संबंधी चेतनाओं के लिए नाकाबिल बना दिया है। पूरे विश्व में बेरोजगारी भत्ते की मांग, निशुल्क राशन वितरण, राज्य स्वास्थ्य सुविधा, इंसोरेंस, सामाजिक सुरक्षा, सरकारी शिक्षा व्यवस्था की मांग पुनः राज्य के हस्तक्षेप के सिद्धांत के पुनरागमन के लिए बाध्यकारी बना दिया है।

सारांशत: कोरोना काल सभी प्रकार के दार्शनिक सिद्धांतों के लिए उपयोगी औजार प्रदान करता है।उन सिद्धांतों का सुक्ष्मता से पुन:प्रतिपादित और उनका पुनःव्याख्यायित करने का अवसर भी प्रदान करता है। प्रबोधन काल से आज तक के सैद्धांतिकीय अवधारणाओं के बारे में नये सीरे से सोचने के लिए बाध्य करता है। चुनौतियां जितनी वैज्ञानिकों के समक्ष है , मानविकी के समक्ष क्या कम है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं। यह लेखक के निजी विचार है)

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