NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
आलोचना राजद्रोह नहीं हो सकती
हमें अपने असहमति के अधिकार की उतनी ही खुलकर रक्षा करनी होगी, जिस तरह हम अपनी जिंदगी की करते हैं। अगर हम ऐसा करने में नाकामयाब रहे, तो एक गर्व करने वाले लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर हमारा अस्तित्व खतरे में आ जाएगा।
एपी शाह
07 Oct 2019
FIR against Celebs
Image courtesy: Global Village Space

हाल ही में 49 विख्यात व्यक्तियों के खिलाफ बिहार के एक कोर्ट का एफआईआर करने का आदेश झकझोरने वाला, निराशाजनक और कानून के वास्तविक अर्थ को गलत ठहराने वाला है। इन 49 लोगों ने प्रधानमंत्री को मॉब लिंचिंग पर एक खत लिखा था।
 
राजद्रोह, सार्वजनिक उपद्रव, धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने और शांति भंग करने से संबंधित आरोपों पर आईपीसी की कई धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई है। लेकिन ज्यादातर लोग सहमत होंगे कि खत लिखने वालों का उद्देश्य वही था, जो एक लोकतंत्र में आदर्श नागरिक का होना चाहिए, मतलब सवाल उठाना, वाद-विवाद, असहमति और राष्ट्र के मुद्दों पर सत्ता को चुनौती।

यह साफ है कि अगर आप पूरे खत को देखते हैं तो राजद्रोह तो दूर, कोई आपराधिक मामला तक नहीं बनता। कोर्ट के इस आदेश के बाद राजद्रोह के कानून को खत्म करने पर एक आपातकालीन और नई चर्चा शुरू होगी। आखिर एक लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती।

राजद्रोह के कानून का इतिहास

एक सदी पहले, राजद्रोह के कानून पर चर्चा होती थी कि कैसे इसका इस्तेमाल अंग्रेज आजादी के लिए लड़ने वालों को दोषी साबित करने के लिए करते थे। दुर्भाग्य से आज भी भारतीय इसी सवाल से जूझ रहे हैं।

फर्क बस इतना है कि विदेशी सरकार के बजाए खुद के संस्थान इस कानून का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। यह फैसला संयोग से महात्मा गांधी के जन्म की सालगिरह पर आया है। गांधी के विचार की आत्मा असहमति के अधिकार में निहित है, जिसे आज खत्म किया जा रहा है।

आज अगर कोई यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट या सिविल सोसायटी का एक्टिविस्ट एक बात भी आलोचना की करता है तो उसे निशाना बना लिया जाता है, लेकिन इस पर विचार नहीं किया जाता कि आखिर उसने आलोचना क्यों की।

राजद्रोह के कानून 17 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में उस वक्त बनाए गए जब विधान बनाने वालों को लगता था कि सरकार के बारे में सिर्फ अच्छे नजरिए ही होने चाहिए। बुरे नजरिए सरकार और राजशाही के लिए खतरा होते हैं।  इसी भावना को 1870 में आईपीसी में शामिल कर लिया गया।

यह कानून पहली बार बाल गंगाधर को सजा देने के लिए 1897 में इस्तेमाल किया गया था। इस केस में आईपीसी की धारा 124A (राजद्रोह से संबंधित) को संशोधित किया गया। इसमें 'घृणा', 'अवमानना' और 'वैमनस्य' शामिल किए गए ताकि बेवफाई और 'दुश्मनी की भावना' को भी साथ लिया जा सके।  

1908 में जब राजद्रोह के एक दूसरे केस में बाल गंगाधर तिलक को दोषी साबित किया गया तो उन्होंने कहा, 'सरकार ने पूरे देश को एक जेल में बदल दिया है और हम सभी इसके बंदी हैं।' गांधी पर भी बाद में यंग इंडिया में लिखे गए आर्टिकल पर राजद्रोह का मामला चला और जैसा विख्यात है, उन्होंने साहस के साथ अपने 'अपराध' को माना।

संविधान सभा में कुछ लोगों ने राजद्रोह को स्वतंत्र अभिव्यक्ति को पर रोक लगाने का आधार बनाने की मांग की थी। लेकिन राजनीतिक असहमति को कुचलने में प्रयोग के डर से इस मांग का जबरदस्त और सफल विरोध हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने 1950 में ब्रिजभूषण बनाम दिल्ली राज्य और रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के केस में संविधान सभा में हुए तर्कों का जिक्र किया था। इस फैसले ने पहला संविधान संशोधन करने के लिए प्रेरित किया। यहां आर्टिकल 19(2) को दोबारा लिखा गया और उसमें जन व्यवस्था के हितों की बजाए 'राज्य की सुरक्षा' को जोड़ा गया।

हालांकि संसद में बोलते हुए जवाहर लाल नेहरू ने साफ कहा था कि 124A के प्रावधान 'बड़े पैमाने पर आपत्तिजनक और घृणित हैं। इनसे जितना जल्दी हो सके छुटकारा पाना होगा।'

1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदार सिंह बनाम बिहार राज्य में 124A की संवैधानिक वैधता की जांच की। इसमें संवैधानिकता तो बरकरार रखी गई, लेकिन इसके उपयोग पर कुछ सीमाएं भी लगा दीं, जैसे 'कार्रवाई में व्यवस्था को भंग करने की मंशा होनी चाहिए, या कानून-व्यवस्था में अशांति फैली हो, या हिंसा के लिए प्रेरित किया गया हो।' यह फैसला 'बेहद कठोर भाषण' या सरकार की आलोचना में कहे गए 'जोरदार शब्दों' को राजद्रोह से अलग करता है।

1995 में सुप्रीम कोर्ट ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य केस में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद एक सिनेमा हाल के बाहर 'खालिस्तान जिंदाबाद' और 'राज करेगा खालसा' जैसे नारे लगाने वालों को बरी कर दिया। शब्दों की अशांति फैलाने वाली प्रवृत्ति को देखने के बजाए, कोर्ट ने कहा कि केवल नारे लगा देने से, जिनसे किसी भी तरह की जनप्रतिक्रिया नहीं हुई, उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता। इसके लिए ज्यादा चीजें होना जरूरी है। आरोपियों की अशांति फैलाने की कोई मंशा नहीं थी, न ही किसी तरह से 'कानून-व्यवस्था में कोई व्यवधान' आया।
 
हाल में लिखे गए खत को भी इसी चश्मे से देखना होगा। कानून साफ तौर पर सरकार की 'कड़ी आलोचना' और 'हिंसा के लिए प्रेरणा' में अंतर करता है। अगर खत को नफरत भरा या सरकार की अवमानना वाला मान भी लिया जाए और अगर इससे हिंसा नहीं हुई, तो भी यह राजद्रोह नहीं है। दुर्भाग्य से भारतीय कोर्ट, खासकर हाल के दिनों में इस फर्क को ध्यान नहीं रख रहे हैं।

राजद्रोह का बड़े फलक पर यह मतलब हो सकता है कि राज्य इसका इस्तेमाल सत्ता को चुनौती देने वालों के खिलाफ कर सकता है। लेकिन असहमति और आलोचना के खिलाफ इसके इस्तेमाल से तो केवल डर ही पैदा होगा।

कानून को चुनौती

केवल राजद्रोह की धमकी से ही लोगों में खुद को सेंसर करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर बुरे प्रभाव डालता है। इसे जड़ से खत्म कर इसके गलत इस्तेमाल को रोकना होगा। जैसा ब्रिटेन में हो चुका है, इस कानून को खत्म होना ही होगा। कोई भी सरकार अपनी ताकत को आसानी से जाने नहीं देगी और तार्किक तौर पर किसी को मदद के लिए कोर्ट जाना होगा।

दुर्भाग्य से न्याय व्यवस्था हमारे अधिकारों की रक्षा करती हुई बहुत कम दिखाई दे रही है, हालांकि मैं भी इसका हिस्सा रहा हूं। पिछले कुछ वक्त में जनता की आजादी के कई मुद्दों पर निराशा मिली है। अब मैदान से ही आंदोलन शुरू करना होगा।

कहा नहीं जा सकता कि ऐसी सीधी चुनौती का कैसा स्वरूप होगा, लेकिन हमें अपने असहमति के अधिकार की उतनी ही खुलकर रक्षा करनी होगी, जिस तरह हम अपनी जिंदगी की करते हैं। अगर हम ऐसा करने में नाकामयाब रहे, तो एक गर्व करने वाले लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर हमारा अस्तित्व खतरे में आ जाएगा।

(एपी शाह दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस हैं। यह लेख दहिंदू में छपे अंग्रेजी आर्टिकल का हिंदी अनुवाद है।)

Criticism is not sedition
FIR against 49 celebrities
Democratic nation
freedom of speech
Treason
Hurt religious feelings
Challenge the law
BJP
Narendra modi
Amit Shah

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    किसान-योद्धा ग़ुलाम मोहम्मद जौला के निधन पर शोक
    16 May 2022
    गुलाम मोहम्मद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के साथ भारतीय किसान यूनियन की बुनियाद डालने वाले जुझारू किसान नेता थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे किसान आंदोलन में सक्रिय रहे।
  • abhisar sharma
    न्यूज़क्लिक टीम
    भाजपा से मुकाबला कर पाएगी कांग्रेस ?
    16 May 2022
    आज न्यूज़चक्र के इस एपिसोड में अभिसार शर्मा चर्चा कर रहे हैं कांग्रेस के चिंतन शिविर की। वे सवाल उठा रहे हैं कि क्या आने वाले चुनावों में कांग्रेस भाजपा को चुनौती दे पाएगी?
  • रवि शंकर दुबे
    विश्लेषण: कांग्रेस के ‘चिंतन शिविर’ से क्या निकला?
    16 May 2022
    राजस्थान के उदयपुर में आयोजित हुए कांग्रेस के तीन दिवसीय चिंतन शिविर में कई बड़े फ़ैसले लिए गए।
  • मुकुंद झा
    मुंडका अग्निकांड के लिए क्या भाजपा और आप दोनों ज़िम्मेदार नहीं?
    16 May 2022
    नगर निगम में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी(बीजेपी) इस घटना के लिए दिल्ली सरकार को ज़िम्मेदार बता रही है, जबकि दिल्ली सरकार में सत्तधारी आम आदमी पार्टी (आप) इसके लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार बता रही है।…
  • एम.ओबैद
    बिहार : सरकारी प्राइमरी स्कूलों के 1.10 करोड़ बच्चों के पास किताबें नहीं
    16 May 2022
    पहली से आठवीं तक के क़रीब 1 करोड़ 67 लाख बच्चों में से 1 करोड़ 10 लाख बच्चों के पास आज भी किताबें उपलब्ध नहीं हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License