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कृषि
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डीएपी की कमी बड़े खाद्य संकट का लक्षण है
तिलहन और सरसों के दाम पहले से ही ऊंचे चल रहे हैं। दामों के और अधिक बढ़ने से खाना पकाने की सभी वस्तुएं कई घरों की पहुंच से बाहर हो जाएंगी।
इंद्र शेखर सिंह
13 Nov 2021
Translated by महेश कुमार
DAP Shortage a Symptom of Larger Food Planning Crisis
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' फोटो साभार: Tribune India

जैसे-जैसे 15 नवंबर नज़दीक आ रहा है, देश भर में अधिकांश किसानों के लिए अपनी फसल बोने का समय समाप्त होता जा रहा है। यदि नवंबर के मध्य से पहले रबी की फसल नहीं बोई जाती है, तो अप्रैल में उनकी फसल के खराब होने के आसार बढ़ जाएंगे। लेकिन समस्या है क्या? किसान सर्दियों की फसल क्यों बो नहीं पा रहे हैं?

इसका उत्तर डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) में निहित है, इस रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल बुवाई के दौरान व्यापक रूप से किया जाता है। पूरे भारत से, खासकर पंजाब, राजस्थान और हरियाणा से रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि डीएपी की कमी बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, राजस्थान को नवंबर की शुरुआत तक अपने आवश्यक डीएपी का 50 प्रतिशत से भी कम मिला है। इससे किसान तनाव में हैं। उनमें से कई ने दीवाली की रात सहकारी समितियों के बाहर कतार में बिताई, जो डीएपी को खरीदने की कोशिश कर रहे थे। मध्य प्रदेश, जो एक भाजपा शासित राज्य है और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का गृह राज्य है, से भी खाद की कमी की सूचना मिली है। 

स्थिति हाथ से निकल रही है क्योंकि देश भर में किसान इस कमी के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। विभिन्न स्थानों पर पुलिस द्वारा हिंसक तरीके से हटाने की कोशिश के बाद, किसानों ने राज्य के कृषि मंत्री के आवासों का घेराव किया, सड़कों को अवरुद्ध किया और पथराव भी किया है। हरियाणा और मध्य प्रदेश से डीएपी लूटपाट के मामले भी सामने आए हैं। कमी होने पर स्टॉकिस्ट आपूर्ति रोक लेते हैं, और यही कारण है कि डीएपी आपूर्तिकर्ताओं पर छापे मारे गए हैं। इस महत्वपूर्ण रसायन की अनुपलब्धता के कारण किसानों ने आत्महत्या कर ली है या वे थकावट से मर गए हैं। एक किसान को तो दिल का दौरा पड़ा गया और डीएपी के लिए लाइन में इंतजार करते हुए उसकी मौत हो गई।

इन हालात ने एक ऐसे विक्रेता बाजार को जन्म दिया है, जहां किसानों के पास तय दर से अधिक का भुगतान करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। डीएपी की घटिया गुणवत्ता पर भी 1,200 एमआरपी वसूली जा रही है। कालाबाजारी और जमाखोरी भी शुरू हो गई है। विभिन्न सरकारी अधिकारियों ने अनुचित व्यवसाय प्रथाओं के खिलाफ चेतावनी दी है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि किसानों की परेशानी कम नहीं हुई है। किसानों ने डीएपी के बदले अधिक महंगे एनपीके उर्वरकों का उपयोग करने का भी सहारा लिया है, जिससे उनकी लागत लागत काफी बढ़ जाती है।

ये भी पढ़ें: खाद की किल्लत में कहीं सब्सिडी पर खेल न हो जाए?

राजनीतिक दलों ने किसानों को समर्थन दिया है और कुछ ने इस कमी को एक "साजिश" भी कहा है, डीएपी आपूर्ति को तुरंत जारी करने की मांग की है। बीकेयू के जोगिंदर सिंह उगराहन जैसे किसान नेताओं ने कीमतों में बढ़ोतरी को कॉरपोरेट हेरफेर का नतीजा बताते हुए सरकार और कॉरपोरेट को कोसा है। अन्य लोगों ने भी पंजाब और हरियाणा में कमी को राजनीति से प्रेरित बताया है।

सरकार की रणनीति छापेमारी, मजबूत मीडिया बयान और राज्य कोटे में अधिक आवंटन की रही है। लेकिन हम इस कमी में आए कैसे? हरित क्रांति के बाद से, डीएपी देश के लिए कच्चे तेल की तरह ही महत्वपूर्ण हो गई है, डीएपी के बिना, रासायनिक कृषि कुशलता से काम नहीं करती है।

वर्तमान में, हमारी सरकार की नीति सार्वजनिक और निजी दोनों कंपनियों को प्रति किलो सब्सिडी प्रदान करने की है।

खरीफ सीजन के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में डीएपी की कीमतें आसमान छू रही हैं। सितंबर 2021 में इसने 700 अमेरिकी डॉलर प्रति टन को छू लिया था, अगर हम इसकी तुलना सितंबर 2020 से करें, जब कीमत 434 डॉलर प्रति टन थी तो बढ़ोतरी बहुत अधिक है। भारत सरकार ने डीएपी को भारत में लाने वाली कंपनियों को समर्थन देने के लिए अतिरिक्त सब्सिडी की घोषणा की है, लेकिन लगातार कीमतों में उतार-चढ़ाव ने सरकार की योजना को बिगाड़ दिया है। यहां तक कि इफको जैसी बड़ी कंपनियों ने भी कीमतें बढ़ा दी हैं जिससे किसानों में काफी गुस्सा है। चीन के साथ भारत का तनाव देश के किसानों के लिए भी अच्छा नहीं है, क्योंकि व्यापार पर प्रतिबंध चीनी डीएपी को भारत पहुंचने से रोक रहा है। ध्यान रखें, चीन दुनिया में उर्वरक के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है।

लेकिन जिन गलतियों को रोका जा सकता था उन्हे भी रोका नहीं गया है। पहला, डीएपी, फॉस्फेट और फॉस्फोरिक एसिड पर सरकार से सरकार के व्यापार सौदों को शामिल करना है। सरकार इसके लिए जिम्मेदार है, और दोष का सबसे बड़ा हिस्सा उर्वरक मंत्रालय की नौकरशाही को जाता है। इस रणनीतिक रिजर्व के प्रबंधन को पहले की कार्य योजनाओं में मैप किया जाना चाहिए था। आज का परिदृश्य केवल खराब नीति नहीं बल्कि अक्षम योजना को दर्शाता है।

ये भी पढ़ें: मध्यप्रदेश में खाद की किल्लत: 11 अक्टूबर को प्रदेशभर में होगा किसान आंदोलन

यदि हम समाधान की बात करें तो द्विपक्षीय समझौते कंपनियों के साथ नहीं बल्कि कनाडा, रूस, चीन, अफ्रीका के कई देशों और इसी तरह की अन्य सरकारों के साथ उर्वरक या इसके कच्चे खनिजों की निर्बाध आपूर्ति के लिए किए जाने की जरूरत है। भारत पहले ही खाड़ी देशों से संपर्क कर चुका है और यूरिया आदि के उत्पादन में निवेश किया है। इस मॉडल को ठीक से लागू करने की जरूरत है क्योंकि रासायनिक कृषि में डीएपी का इस्तेमाल, परिवहन में ईंधन के बराबर है।

देश और विदेश में भी डीएपी संयंत्रों में रणनीतिक निवेश करने की जरूरत है। विशेषतः, इसे सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया जाना चाहिए, लेकिन अब, तात्कालिकता को ध्यान में रखते हुए, भारतीय निजी कंपनियों को भी निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। हमारी डीएपी जरूरतों का अनुमान लगाया जा सकता है, और इसलिए, विभिन्न संयंत्रों और आयातों को विशिष्ट क्षेत्रों के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें आकस्मिक योजनाएँ शामिल हों। भारत को जुआ खेलना होगा और संभावित भंडार वाले क्षेत्रों में खनिज सर्वेक्षण करना होगा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हमारी खाद्य संप्रभुता हिल न पाए। समय के साथ, हमें रासायनिक कृषि से बाहर निकलने की जरूरत है और पारिस्थितिक रूप से खेती के कम लागत वाले तरीकों और बीज किस्मों पर भरोसा करने की जरूरत है।

इस मुद्दे को जल्द से जल्द संबोधित करने की जरूरत है क्योंकि वर्तमान में, रॉक फॉस्फेट के केवल सीमित भंडार हैं, जिनके 2060 तक समाप्त होने की उम्मीद है। नए उर्वरक को खोजने की तत्काल जरूरत है, क्योंकि इस संसाधन के बिना डीएपी और एनपीके उर्वरकों का उत्पादन होना संभव नहीं है। तो, रासायनिक कृषि को जल्द से जल्द नवाचार की जरूरत पड़ सकती है।

इसमें किसानों की भी भूमिका है। उन्हें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि अधिक इस्तेमाल से उर्वरक बर्बाद न हों। भारत में सबसे अधिक असमान उर्वरक इस्तेमाल का अनुपात हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे हरित क्रांति क्षेत्रों में से कई में बड़े पैमाने पर उर्वरक इस्तेमाल की रिपोर्ट मिलती है। इस उर्वरक का अधिकांश भाग नदियों और भूजल में चला जाता है, क्योंकि मिट्टी अपनी धारण और उत्पादक क्षमता खो देती है। यदि अधिक से अधिक किसान जैविक या पारिस्थितिक खेती की ओर रुख करते हैं, तो हम इस समस्या को दूर करने में मदद कर सकते हैं।

क्या शहरी उपभोक्ताओं को इस बारे में चिंतित होना चाहिए कि ग्रामीण भारत में क्या उपद्रव मचा है? हां, क्योंकि अपर्याप्त डीएपी फसलों की पैदावार को प्रभावित करेगा। डीएपी का न मिलना, अपर्याप्त डीएपी, या निम्न गुणवत्ता वाली डीएपी कृषि उत्पादन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है। सरसों, आलू, गेहूं, फलियां आदि कुछ प्रमुख रबी फसलें हैं, और हम जल्द ही उनकी बढ़ती कीमतों को भी देख सकते हैं। तिलहन और सरसों की कीमतें पहले से ही बहुत अधिक बढ़ गई हैं, और आगे कोई भी वृद्धि स्वस्थ तेलों को कई घरों की पहुंच से बाहर कर देगी। गेहूं उत्पादक राज्य, पंजाब और हरियाणा भी बड़ी मात्रा में डीएपी का इस्तेमाल करते हैं। जितनी देरी होगी, किसानों को उतना ही अधिक नुकसान होगा, क्योंकि बुवाई में देरी से श्रम की लागत भी बढ़ जाती है। और याद रखें, जब किसान पीड़ित होते हैंतो पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

लेखक, स्वतंत्र नीति विश्लेषक और कृषि और पर्यावरण पर लिखते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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