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हाथरस, कठुआ, खैरलांजी, कुनन पोशपोरा और...
दलित व मुस्लिम महिलाओं पर होने वाली ख़ौफ़नाक यौन हिंसा को सामान्य चलन बना दिया गया है और उसे सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति दिला दी गयी है।
अजय सिंह
31 Oct 2020
हाथरस
Image courtesy: Twitter

अंगरेज़ी उपन्यासकार और कवि मीना कंदासामी ने हाथरस सामूहिक बलात्कार की घटना से क्षुब्ध होकर जब ‘रेप नेशन’ (बलात्कार राष्ट्र) शीर्षक कविता लिखी, तो उसमें उन्होंने यही कहना चाहा कि भारत ख़ासकर दलित महिलाओं के साथ बलात्कार को संरक्षण देने वाला और उसे जायज ठहराने वला देश बन गया है। उन्होंने लिखा कि हमारे देश में हमेशा बलात्कार की पीड़ित को ही दोषी ठहराया जाता है, बलात्कारियों को पुलिस व राजनीतिक सत्ता की शह मिलती है, प्रेस जाति के ज़हर को अनदेखा करता रहता है, और ‘यह पहले भी हुआ है, यह आगे भी होगा।’

अब अगर आप हाथरस (सितंबर 2020), कठुआ (जनवरी 2018), खैरलांजी (सितंबर 2006) और कुनन पोशपोरा (फ़रवरी 1991) में सामूहिक बलात्कार-हत्या-बर्बर अत्याचार की घटनाओं को देखें, तो लगेगा कि मीना कंदासामी की यह कविता पंक्ति—‘यह पहले भी हुआ है, यह आगे भी होगा’—जैसे ख़ून से सनी सच्चाई को हमारे सामने रख रही हैं।

ख़ासकर दलित व मुस्लिम महिलाओं पर होने वाली ख़ौफ़नाक यौन हिंसा को सामान्य चलन बना दिया गया है और उसे सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति दिला दी गयी है। यही नहीं, यौन हिंसा की शिकार महिलाओं को ही—अगर वे ग़रीब व वंचित तबकों से आती हैं या दलित-मुस्लिम पृष्ठभूमि से हैं—दोषी ठहराने का रिवाज चल पड़ा है। यह एक प्रकार से शासन का क़ानून (लॉ ऑफ रूल) बन गया है। मौजूदा हिंदुत्व फ़ासीवादी निज़ाम में यही देखने को मिल रहा है।

अब बलात्कारियों के समर्थन में खुलेआम तिरंगा झंडा यात्राएं निकाली जाती हैं, जिनमें सरकार के मंत्री व राजनीतिक नेता शिरकत करते हैं। बलात्कारियों का बचाव करने के लिए कमेटियां बनती हैं, पंचायतें व सभाएं की जाती हैं, और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं व उनके परिवारों को झूठा साबित करने, नीचा दिखाने, अपमानित करने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया जाता है। यह सब सरकार व पुलिस की शह पर, उसकी देखरेख में होता है।

राजनीतिक ढांचा ऊंचे/प्रभावशाली जाति समूहों और वर्ग समूहों के पक्ष में खड़ा रहता है। इस राजनीतिक ढांचे के अंदर निचली/दलित जातियों और मुसलमानों के प्रति गहरी नफ़रत भरी हुई है। इसकी फ़ितरत में महिला-द्वेष समाया हुआ है। यह ढांचा अंदर से हिंदू राष्ट्र सिद्धांत से संचालित होता है, और मनुस्मृति इसका दार्शनिक आधार है। दिखावा करने के लिए ज़रूर वह भारत के संविधान के नाम पर शपथ लेता है।

हाथरस (उत्तर प्रदेश) में 19 साल की एक दलित लड़की के साथ ऊंची जाति के चार लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया, बर्बर तरीके से उसका अंगभंग किया, जिससे बाद मे लड़की की मौत हो गयी। कठुआ (जम्मू-कश्मीर) में आठ साल की एक मुस्लिम बच्ची के साथ दबंग जातियों के कई लोगों ने एक मंदिर में कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया और बाद में वीभत्स तरीक़े से उसकी हत्या कर दी। खैरलांजी (महाराष्ट्र) में एक दलित महिला और उसकी नौजवान बेटी को एक ताक़तवर पिछड़ी जाति (ओबीसी) के लोगों ने गांव में नंगा कर घुमाया, उन दोनों के साथ खुलेआम सामूहिक बलात्कार किया गया, और बाद में बहुत बर्बर ढंग से दोनों की हत्या कर दी गयी। महिला के दोनों नौजवान बेटों को भी बड़ी निर्ममता से मार डाला गया।

कुनन पोशपोरा (कुपवाड़ा, जम्मू-कश्मीर) में भारतीय सेना की चौथी राजपुताना राइफ़ल्स की एक टुकड़ी ने, जिसमें क़रीब 300 फ़ौजी शामिल थे, कई मुस्लिम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। इन महिलाओं की संख्या 50 से 100 के बीच बतायी जाती है। इन महिलाओं के परिवारों के क़रीब 200 पुरुष सदस्यों को सेना ने अमानवीय यातनाएं दीं। यह भयानक अपराध करनेवाले फ़ौजियों को आज तक सज़ा नहीं हुई। क्योंकि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि उन्हें सज़ा मिले।

इन सभी घटनाओं में राजनीतिक सत्ता बलात्कारियों के पक्ष में किसी-न-किसी रूप में खड़ी दिखायी दी। वह या तो इन घटनाओं को नकारने/झुठलाने में लगी रही, या फिर महिलाओं और उनके परिवारवालों को ही इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार बताती रही। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक नज़रिया बलात्कार संस्कृति को वैधता प्रदान करने में लगा है। इसे राजनीतिक सत्ता का पूरा संरक्षण मिला हुआ है।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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