हालांकि मुझे बिजनेस से लेकर राजनीति और खेल तक, हर तरह की न्यूज़ स्टोरी कवर करना पसंद है, लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है, किसी ब्रेकिंग स्टोरी का मानवीय चेहरा खींचने में। मुझे वास्तव में उन मुद्दों को कवर करना पसंद आता है जिनमें जंग, लड़ाइयों व टकरावों की वजह से लोगों की ज़िंदगियों पर असर पड़ता है – दानिश सिद्दीक़ी ( फ़ोटो-पत्रकार, रायटर)
फ़ोटो को देखते हुए, फ़ोटो को खींचने वाली की पूरी शख्सियत, उनकी चिंताएं, उनका फोकस सब खुलकर सामने आ जाते है। कम से कम दानिश सिद्दीक़ी की फ़ोटो देखकर बिल्कुल ऐसा ही आभास जेहन में आता है। उनका फ्रेम, उनकी विषय वस्तु सीधे मौजूदा हालात का आईना पेश करता है। यह तभी संभव है कि फ़ोटो खींचने वाले का सीधा जुड़ाव अपने सब्जेक्ट (विषय) से हो और उसकी स्थिति-उसके दर्द को वह महसूस कर पा रहा हो। दानिश सिद्दीक़ी की तमाम फ़ोटो इस कसौटी पर बिल्कुल ख़री उतरती हैं। पुल्तिजर पुरस्कार से सम्मानित इस फ़ोटो-पत्रकार ने रोहिंग्या विस्थापितों के अपनी मिट्टी से बिलगाव की हूक को जिस मार्मिक ढंग से कैमरे में कैद किया, पानी में विस्थापित महिला के हाथ, पीछे नाव—एक अमिट लकीर खींच देते हैं और ज़ुल्म की अनकही कहानियों को बिना एक शब्द के चीरकर दुनिया के सामने रख देते हैं।

ये ताक़त बहुत कम उम्र में हासिल कर ली दानिश ने, 18 मई 1980 में जन्मे इस शख़्स ने फ़ोटोग्राफी को पूरे जुनून तक जिआ। महज़ 41 साल उम्र में मानवता पर हो रहे चौतरफा हमलों को जिस मुस्तैदी और कमिटमेंट के साथ कैमरे से, कैमरे में दर्ज किया—वह अपने आप में एक मिसाल है। उनकी फ़ोटो देखते हुए मैं सोच रही थी कि वह मौजूदा दौर की हर नाज़ुक मोड़-संकट में बिल्कुल सही जगह मौजूद थे। यह उनकी नेकनीयत तरबियत का ही सिला रहा होगा कि उनके कैमरे से ये महत्वपूर्ण शार्ट्स मिस नहीं हुए। अब देखिये न इस फ़ोटो को, जिसमें जामिया पर चल रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन के ऊपर गोली चलाने वाला रामभक्त गोपाल जब बंदूक तानता है, तो उसे बिल्कुल सही एंगिल से कैप्चर करने के लिए दानिश का कैमरा वहां मौजूद रहता है। दानिश की हर ज़रूरी जगह पर मौजूदगी ही उनके अपने पेशे और मानवता के प्रति प्रतिबद्धता की गवाही देती है। उनमें छुपा हुआ न्यूज एंगल, बड़े-बड़े संपादकों, चीखते-चिल्लाते टीवी एंकरों की छुट्टी कर देता है।

दानिश सिद्दीक़ी को लेकर मैं यहां सारी बात वर्तमान काल ( present tense ) में कह रही हूं, भूतकाल (past tense) में नहीं। इसकी ठोस वजह है। हम सब जानते हैं कि रायटर समाचार एजेंसी के लिए काम करने वाले फ़ोटो-पत्रकार दानिश सिद्दीक़ी पिछले कुछ दिनों से अफ़ग़ानिस्तान में थे। वहां अमेरिकी सेना की 20 साल के बाद अफ़ग़ानिस्तान से वापसी हो रही है और तालिबान सत्ता पर काबिज होने के लिए भीषण संघर्ष छेड़े हुए है। इस मुश्किल स्थिति में लोगों औऱ अफ़ग़ानिस्तान के हालात को कैमरे में कैद करने के लिए यह नौजवान फ़ोटो पत्रकार वहां पहुंच गये और लगातार ग्राउंड से फ़ोटो भेज रहे थे। वह 16 जुलाई 2021 को कंधार के स्पिन बोल्डक जिले में तालिबान के हमले का शिकार हो गये।

पाकिस्तान से सटे इस इलाके में तालिबान और अफगान सैना में भीषण संघर्ष छिड़ा हुआ है। इससे ठीक दो दिन पहले यानी 13 जुलाई 2021 को वह अफगान सैन्य बल के साथ जिस वाहन में सफर कर रहे थे, उस पर राकेट का हमला हुआ, जिसे बहुत बहादुरी और संयम के साथ दानिश ने अपने कैमरे में कैद किया। इसके बाद भी 16 जुलाई को उनके हाथ में फिर चोट लगी, लेकिन उन्होंने काम नहीं रोका औऱ कंधार में चल रहे युद्ध जैसी स्थिति को कवर करने निकल पड़े और हिंसा-नफ़रत-युद्ध के हाथों जान गवां बैठे—शहीद हो गये।
दिल्ली के रहने वाले और यहीं के जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाई करने वाले दानिश ने इसी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री हासिल की। पत्रकारिता विभाग की निदेशक प्रो. शोहिनी घोष ने बताया कि दानिश जामिया मिलिया इस्लामिया में 2005-07 बैच के छात्र थे और सबको पता था कि दानिश को कैमरा से बहुत मोहब्बत है। बाद में पुलित्जर पुरस्कार मिलने के बाद भी वह उसी तरह से बेहद विनम्र और मृदु बने रहे और जामिया में छात्रों के साथ ऑनलाइन सत्र भी लेते रहे। दानिश तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े थे और उनके दो छोटे बच्चे हैं। निजामुद्दीन में रहने वाले दानिश को इस इलाके और दिल्ली से गहरा लगाव था। उन्होंने जामिया से ही अर्थशास्त्र में स्नातक किया औऱ फिर पत्रकारिता की पढ़ाई। इसके बाद वह टीवी पत्रकार बने-कई जगह काम किया, फिर फ़ोटो-पत्रकार बनने की उनकी तलब उन्हें रायटर समाचार एजेंसी में ले गई। यहां उन्होंने बिल्कुल जीरो से शुरुआत की और अभी वह चीफ फ़ोटोग्राफर बन चुके थे। वह भारत के गिने-चुने पत्रकारों में से एक थे, जिन्हें युद्ध, सैन्य संघर्ष के दौरान रिपोर्टिंग फ़ोटो खींचने की बकायदा ट्रेनिंग मिली थी। यानी वह पूरी तरह से प्रशिक्षित फ़ोटो पत्रकार थे, जिन्हें भारत ने खो दिया।
दानिश की मौत से पूरी दुनिया में मातम छाया, अंतर्ऱाष्ट्रीय मंचों से दानिश की मौत पर शोक संदेश आ गये। अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने भी गहरा दुख जताया। अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र एसिसंटेस मिशन (यूएनएएमए) ने भी दानिश की मौत पर गहरा दुख जताते हुए कहा कि इससे पता चलता है कि किस तरह के ख़तरों से अफ़ग़ानिस्तान में मीडिया जूझ रहा है। लेकिन दानिश जिस मुल्क का वासी था, वहां सत्ता में बैठे लोगों ने एक ट्वीट करना भी ज़रूरी नहीं समझा। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो बात-बात पर ट्वीट करने के लिए मशहूर है, उन्हें भारत के इस दिलेर फ़ोटो-पत्रकार की शहादत मौत ने ज़रा भी नहीं कचोटा—ख़बर लिखे जाने तक कोई ट्वीट भी नहीं आया।
मामला इस अनदेखी तक रुक जाता तो भी समझ आता। दानिश की मौत-शहादत पर जिसतरह का जश्न मनाया गया, वह समाज की, नफ़रत पर टिकी राजनीति की ख़ौफ़नाक तस्वीर को बेपर्दा करता है। खुद को उग्र हिंदूवादी कहने वाली जमात—मां-बहन की गालियां देते हुए दानिश सिद्दीक़ी की मौत पर खुशी ज़ाहिर करती नज़र आई। इन तमाम ज़हर उगलने वालों की दुखती नब्ज़ यह थी कि दानिश के कैमरे ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ प्रदर्शनों, देश की राजधानी में हुए प्रायोजित दंगों, लॉकडाउन में लाखों भारतीय नागरिकों के पलायन—दुख-दर्द, किसान आंदोलन की ऐतिहासिक लामबंदी, कोरोना की दूसरी लहर में मरघट में तब्दील हुए देश की जो हृदय विदारक तस्वीरें खींची, उसने मोदी सरकार के तमाम झूठों को बेपर्दा ही नहीं किया, उनके खिलाफ मजबूत साक्ष्य मुहैया कराया। इस उन्मादी-हिंसक ब्रिगेड को इस बात की भी दुख है कि दानिश की फ़ोटो को उनकी वाट्सऐप यूनिवर्सिटी झुठला नहीं पाई—अंतर्राष्ट्रीय अख़बारों में वे प्रमुखता से छपीं।
क्या विडंबना है कि दानिश सिद्दीक़ी को मुसलमान फ़ोटो पत्रकार मानने वाले हिंदू तालिबानी उन्हें गालियां दे रहे हैं और दानिश तालिबान के हमले का शिकार होकर शहीद होते हैं।
हर झूठ को बेपर्दा करता दानिश का कैमरा


दानिश की याद में...
दिल्ली स्थित दानिश का घर


दिल्ली से लेकर कोलकाता तक दानिश को कुछ इस तरह याद किया गया--




(सभी फ़ोटो, साभार: सोशल मीडिया)
(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)