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कोविड-19 से लड़ाई में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं है
वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई में पवित्र गाय का कोई किरदार नहीं है।
राम पुनियानी
01 Apr 2020
Translated by महेश कुमार
कोविड-19

दुनिया नोवेल कोरोना वायरस महामारी से ग्रसित है, जो स्वास्थ्य का बहुत ही बड़ा संकट है। इसे थामने के लिए चिकित्सा और प्रशासनिक क़दम उठाए जा रहे हैं, लेकिन जिस बात ने इस महामारी से निपटना अधिक कठिन बना दिया है वह है आस्था-आधारित इलाज को बढ़ावा देना।

इसे सत्तारूढ़ पार्टी और उसके असंख्य अनुयाइयों/सहयोगियों द्वारा किया जा रहा है, जिनके अनुसार प्राचीन भारतीय प्रथाओं में वे सभी तत्व मौजूद थे जो हमें मानव आपदाओं से निपटने में मदद करते थे। हाल के समय में हमारे सामाजिक जीवन का आधार बन चुकी अंधी प्रथाओं या अंध-विश्वासों में आई तेज़ी को समझने के लिए दो परेशान करने वाले उदाहरणों पर विचार करने की जरूरत है।

अभी ज़्यादा वक़्त नहीं बीता है जब आस्था-आधारित राजनीतिक विचारधारा, डॉ॰ नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्याओं का कारण बनी थी। वे अंध विश्वास को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ लड़ रहे थे। अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले तबकों को भारत में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के उदय ने प्रोत्साहन दिया है।

22 मार्च को, प्रधानमंत्री ने एक दिन के जनता कर्फ़्यू का आह्वान किया था और लोगों से कहा कि वे अपने बालकोनी में खड़े होकर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा किए जा रहे कार्यों की सराहना करने के लिए ताली बजाएं और बर्तनों को पीटें। जबकि ऐसा करने में कोई बुराई नहीं थी, लेकिन कई स्थानों पर इसने एक अलग ही मोड़ ले लिया। जगह-जगह पर जुलूस का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुआ, जो पूरी तरह से शारीरिक दूरी बनाए रखने के मानदंडों का उल्लंघन था।

वे हो-हल्ला मचाने के साथ-साथ शंख भी फूँक रहे थे। वे ऐसा क्यों कर रहे थे इसका कारण खोजना आसान है। महाराष्ट्र बीजेपी की नेता शाइना एनसी ने इस हो-हल्ला मचाने के आह्वान के लिए पीएम की सराहना करते हुए अपनी ट्वीट में कहा कि यह बैक्टीरिया और वायरस को मार देगा। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों को इस तरह की जानकारी का स्रोत बताया जा रहा है। बेशक, व्हाट्सएप संदेश के माध्यम से भी इसी तरह की सामग्री सोशल मीडिया पर बाढ़ की तरह आ रही थी।

दूसरी जो परेशान करने वाली बात है वह है स्वामी चक्रपाणि महाराज की हरकतें, जिन्होंने  गोमूत्र पीने वाली पार्टी का आयोजन किया, और कई लोगों ने इस समझ के साथ गौमूत्र पिया कि यह कोविड़-19 को रोकने और ठीक करने में मदद करेगा, जो कि नोवेल कोरोनावायरस की वजह से होने वाली बीमारी है। एक अन्य भाजपा नेता ने भी इसी तरह का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें मूत्र पीने वाले लोगों में से एक बीमार पड़ गया।

भाजपा के एक अन्य योग्य नेता, असम के विधायक, सुमन हरिप्रिया ने गाय के गोबर की महिमा का जिक्र किया।

इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि ज़्यादातर गौमूत्र और गोबर का प्रचार भाजपा और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों की तरफ से आया। पिछले कुछ दशकों में गोमूत्र बहुत अधिक चर्चा में रहा है, खासकर जबसे 1998 में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सत्ता में आई थी। गुजरात से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद करीबी लोगों में से एक, शंकर भाई वेगड़, का दावा है कि वे गोमूत्र पीने की वजह से 76 वर्ष के होने के बावजूद काफ़ी स्वस्थ हैं।

इस तरह के दावों को आधार भोपाल की मौजूदा भाजपा संसद सदस्य साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और मालेगांव आतंकवादी विस्फोट की आरोपी से भी मिला, क्योंकि उन्हौने दावा किया था कि गोमूत्र के सेवन से उनका स्तन कैंसर ठीक हो गया है। काफी विनम्रता से उसका इलाज करने वाले सर्जन ने सच बताया और कहा कि उनकी बीमारी के इलाज़ के लिए उन्हौने उनकी तीन सर्जरी की थी।

हम कैसे विश्वास करें या उस दावे को खारिज करें कि गोमूत्र हर कल्पनीय विकार के इलाज की जादूई औषधि है? जबकि यह सवाल हवा में घूम रहा है, सत्तारूढ़ सरकार गोमूत्र, पंचगव्य (गाय के गोबर, गोमूत्र, दूध, दही और घी का मिश्रण) पर तथाकथित अनुसंधान के लिए भारी धन आवंटित कर रही है। केंद्रीय अनुसंधान एजेंसियां को गाय के उत्पादों पर शोध करने के लिए बुलाया जा रहा है, जिसमें भारतीय गायों की विशिष्टताएं भी शामिल हैं।

चिकित्सा विज्ञान में, बायोकेमिकल अध्ययन, प्री-क्लिनिकल परीक्षण- प्लेसबो के साथ डबल ब्लाइंड परीक्षण और उसके जारी होने के बाद के मूल्यांकन किया जाता है फिर उस दवा की शुरूआत होती है। जबकि इन गाय उत्पादों के मामले में, इन्हे बनाने की विभिन्न प्रक्रियाओं का  माध्यम सिर्फ शुद्ध आस्था है। जहां तक गोमूत्र का संबंध है, हम सब जानते हैं कि अन्य जानवरों के मूत्र की तरह, यह शरीर से त्यागने वाले पदार्थों का एक संयोजन है। इसमें 90 प्रतिशत से अधिक पानी है; इसमें यूरिया, क्रिएटिनिन, सल्फेट्स, फॉस्फेट आदि हैं।

इन दावों का समर्थन करने के लिए कोई नैदानिक अध्ययन नहीं हुआ हैं। यह विशुद्ध रूप से एक वैचारिक झुकाव है जो कुछ तत्व गोमूत्र के मूल्य को लागू और प्रचारित कर रहे हैं।

यह हिंदू राष्ट्रवाद की बड़ी परियोजना का हिस्सा है, जो समाज में जाति और लिंग के जन्म-आधारित पदानुक्रम के प्राचीन मूल्यों को लागू करना चाहता है। इसलिए एक समानांतर ट्रैक पर, वे इस आस्था या भ्रम को फैलाना चाहता है कि प्राचीन भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में पहले ही उपलब्धियां हासिल कर ली थी, चाहे वह  पुष्पक विमन, प्लास्टिक सर्जरी, जैव प्रौद्योगिकी, टेलीविजन और इंटरनेट हो। यह उनके व्यापक राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है, जहां एक पौराणिक स्वर्णकाल अतीत के नाम पर, आस्था-आधारित समझ को पेश किया जा रहा है और लोगों को उन्हें सम्मान देने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

यह कुलीन हिंदू पारंपरिक मूल्यों की श्रेष्ठता का प्रचार करने का एक प्रयास है। गायों से संबंधित मामलों में देखा जाए तो एक तरफ तो  गाय/गोमांस अभियानों के कारण निर्दोष लोगों की लिंचिंग हो रही है और दूसरी ओर गाय उत्पादों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस प्रचार के कारण बाबा रामदेव के पतंजलि उत्पादों और अन्य उत्पादों में गोमूत्र का व्यावसायिक या व्यापारिक  मुनाफा भी हुआ है।

कोविड-19 जैसी बड़ी महामारी से लड़ने के लिए सरकार और समाज की ओर से बड़े पैमाने पर प्रयासों की जरूरत है। भारत में, आरएसएस ने हिंदू राष्ट्रवाद के प्रसार के बढ़ते प्रभाव के माध्यम एक समझ फैला दी है जो पूरी तरह से विज्ञान और तर्क के खिलाफ है। आरएसएस ने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए विज्ञान भारती की स्थापना की, जो पुराणों आदि के अर्क को विज्ञान के रूप में सामने रखती है। इसके अलावा, नागपुर में इन समझ को फैलाने के लिए एक गो-विज्ञान केंद्र भी स्थापित किया गया है, जो न तो तार्किक है और न ही वे वैज्ञानिक पद्धति की जांच कर सकते हैं।

इस तरह के विचारों का प्रसार विकास को धीमा कर देगा। ये विचार पहले ही इस महामारी से लड़ने में बाधा पहुंचा हैं, क्योंकि अतार्किक चीजों को समाज की समझ में ड्रिल किया जा रहा  है। सत्ता में बैठे अफ़सरान/प्रशासन को आगे आना होगा और इन हानिकारक प्रथाओं को रोकना होगा।

लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Dealing with Covid-19: No Place For Blind Faith

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