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फ़ेसबुक/मेटा के भीतर गहरी सड़न: क्या कुछ किया जा सकता है?
क्या सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने के सिलसिले में सक्रिय रूप से उकसाने को लेकर फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ क़ानूनी और नियामक कार्रवाई की जा सकती है? हालांकि, अमेरिका में इसकी एक मिसाल मौजूद है, लेकिन भारत में इसे लागू करना एक चुनौती साबित होगी।
परंजॉय गुहा ठाकुरता
15 Nov 2021
Facebook

सवाल है कि व्हिसलब्लोअर फ़्रांसेस हॉगन के इस खुलासे को लेकर नया यह है कि कैसे इस समय बदले हुए फ़ेसबुक के शीर्ष अधिकारियों ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर आग लगाने, नफ़रत उगलने और झूठ फैलाने वाली सूचनाओं की तरफ़ से आंखें मूंद ली हैं। इस डिजिटल एकाधिकार वाली कंपनी ने किस तरह सुरक्षा के बनिस्पत फ़ायदे पर ध्यान दिया है। इसने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सहित दक्षिणपंथी नेताओं की किस तरह से सक्रिय रूप से मदद पहुंचायी है और भारत में इस्लामोफ़ोबिया के तेज़ी से प्रसार में किस तरह योगदान दिया है? इन सवालों के जवाब बहुत ज़्यादा नहीं हैं, लेकिन सवाल है कि क्या ऐसा ही है।

हालांकि, आपस में एक दूसरे को लिखे गये ई-मेल और मीटिंग की रिपोर्ट सहित भीतरी सूचनाओं के संग्रह को लीक करने का हॉगेन का फ़ैसला कई कारणों से अहम तो है। उनका फ़ैसला शायद संयुक्त राज्य अमेरिका में अब उस मेटा के रूप में जाने जाते फ़ेसबुक की गतिविधियों पर सख़्त क़ानूनी निगाह रखने को प्रेरित कर सकता है, जो 37 साल के मार्क जुकरबर्ग की अगुवाई में दुनिया के सबसे बड़े निजी स्वामित्व वाले कॉर्पोरेट समूह (जिसमें व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम शामिल हैं) में से एक है। ग़ौरतलब है क जुकरबर्ग दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं।

अगर सही में ऐसा होता है, तो यह एक स्वागत योग्य घटनाक्रम होगा। हालांकि, इसे लेकर ऐसा बहुत कम है, जिसकी इस समय जानकारी है, जिस बारे में पहले नहीं पता था, वह यह है कि फ़ेसबुक/मेटा प्लेटफ़ॉर्म का ग़लत इस्तेमाल किस तरह किया गया है। कंपनी के एक रिसर्चर के शब्दों का इस्तेमाल किया जाये, तो इसका दुरुपयोग "राष्ट्रवादी विषय-सामग्री, ग़लत सूचना, और हिंसा और ख़ून-ख़राबे के लिहाज़ से ध्रुवीकरण को लेकर तक़रीबन लगातार चलायी जा रही क़वायद" को फ़ैलाने में किया जाता रहा है।

ऐसी ही "विषय-सामग्री" की एक मिसाल पाकिस्तान के झंडे में लिपटे किसी व्यक्ति के कटे हुए सिर की तस्वीर थी। रिसर्चर ने एक आंतरिक ज्ञापन में लिखा: "इस यूज़र के न्यूज़ फ़ीड परीक्षण के बाद मैंने पिछले तीन हफ़्तों में जितने मृत लोगों की तस्वीर देखी हैं, उतना तो मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में नहीं देखी थी।"

भारत में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP),इसके वैचारिक जनक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और ख़ुद प्रधानमंत्री के समर्थकों ने फ़ेसबुक और व्हाट्सएप का जिस तरह से दुरुपयोग और दुष्प्रयोग किया है, उसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा इन्हीं को मिला है।

अमित मालवीय के नेतृत्व में पार्टी के सूचना प्रौद्योगिकी (IT) सेल ने सबसे पहले तो यह जाना कि कैसे और क्या किया जा सकता है और फिर राजनीतिक प्रचार, दुष्प्रचार और सामान्य रूप से अल्पसंख्यकों और ख़ासकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म बनाकर अपने राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों को बहुत पीछे छोड़ दिया है।

मौजूदा शासन को मदद पहुंचाने वाली इस ख़तरनाक़ क़वायद में ट्रोल और पीएम मोदी के कथित "अनुयायियों" ने भी बहुत मदद पहुंचायी है। प्रधान मंत्री मोदी ने उन्हें "अनफ़ॉलो" या "अनफ़्रेंड" करने से मज़बूती से इनकार कर दिया है, "अनफ़ॉलो" या "अनफ़्रेंड"- ये दोनों ऐसे शब्द हैं, जिन्हें जुकरबर्ग और उनके सहयोगियों ने अंग्रेज़ी शब्दकोष में जोड़ दिया है।

इस लेखक ने 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले किसी और लेखक के साथ मिलकर "द रियल फ़ेस ऑफ़ फ़ेसबुक इन इंडिया: हाउ सोशल मीडिया हैज़ बिकम अ प्रोपेगैंडा वेपन एंड डिसेमिनेटर ऑफ़ डिसइनफ़ॉर्मेशन एंड फ़ॉल्सहुड" नामक किताब लिखी थी और प्रकाशित करवाया था। इस किताब में हमने न सिर्फ़ भारत में फ़ेसबुक के सीनियर अधिकारियों और मोदी सरकार में भाजपा और आरएसएस के समर्थकों के बीच घनिष्ठ रिश्तों की चर्चा की थी, बल्कि हमने इस बात पर भी रौशनी डाली थी इस प्लेटफ़ॉर्म और व्हाट्सएप का इस्तेमाल अभूतपूर्व मात्रा में झूठी, नकली और घृणित जानकारी फ़ैलाने के लिए किया गया है और राजनीतिक नतीजों को प्रभावित करने के लिए इसे किस तरह "हथियार" की तरह इस्तेमाल किया जायेगा।

यह शायद ही संतोष या गर्व की बात हो कि हमने इसकी भविष्यवाणी कर दी थी और हमारी सबसे बुरी आशंकायें सच साबित हुईं। हॉगन के ख़ुलासे से पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनाव से पहले और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों और फिर मार्च 2020 में अचानक लगाये गये लॉकडाउन के दौरान भड़काऊ विषय-सामग्री में भारी और अचानक इज़ाफ़ा हुआ था।

बाद में वॉल स्ट्रीट जर्नल, टाइम, बज़फ़ीड, वाशिंगटन पोस्ट, रॉयटर्स और दूसरे मीडिया संगठनों की पड़ताल में अंखी दास (तत्कालीन फ़ेसबुक इंडिया के नीति प्रमुख) की ओर से निभायी गयी संदिग्ध भूमिका पर भी रौशनी डाली गयी।इस पड़ताल ने भारत के सत्तारूढ़ शासन और देश के दक्षिणपंथियों के साथ फ़ेसबुक की मिलीभगत की पुष्टि की थी। यह विषय-सामग्री साफ़ तौर पर फेसबुक के अपने ही "सामुदायिक मानकों" का उल्लंघन कर रही थी।

दास ने निजी कारणों से इस संगठन को छोड़ दिया था, लेकिन कुछ लोगों को मूर्ख बनाया गया। इसके बाद सोफ़ी झांग ने 6,600-शब्द के नोट को लीक कर दिया, जिन्होंने फ़ेसबुक के साथ डेटा वैज्ञानिक के रूप में काम किया था और जिन्होंने हॉगन से पहले कंपनी के इस भ्रष्टाचार या करतूतों को बेनकाब किया था। झांग ने अफसोस के साथ इस बात को क़ुबूल किया था कि उसके दामन पर भी इसके "दाग़” हैं। 

हॉगन के इस आंतरिक रिकॉर्ड के लीक होने का अप्रत्याशित रूप से विरोध हुआ है। उनके आलोचकों ने कहा है कि कैसे उन्हें ईबे के अरबपति संस्थापक और इंटरसेप्ट के प्रकाशक पियरे ओमिड्यार की ओर  से मदद पहुंचायी जा रही है, जो इस समय फ़ेसबुक जैसी बड़ी डेटा कंपनियों के ज़बरदस्त विरोधी हैं। अमेरिका में टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के द फ़्लेचर स्कूल में वैश्विक व्यापार के डीन, भास्कर चक्रवर्ती जैसे अन्य लोगों का कहना है कि " औपनिवेशिक शासन के ख़त्म हो जाने के बाद अपनी औपनिवेशिक रक्षक मानसिकता" और भारत में ग़ैर-अंग्रेज़ी मीडिया घराने के नहीं जुड़ पाने के चलते" पश्चिम में फ़ेसबुक के इन आलोचकों को “कुछ अता-पता ही नहीं” हैं।

हॉगन की इस ख़ुलासे ने एक तरह से उन बातों को स्थापित कर दिया है, जिन्हें हम में से कई लोगों पहले से समझते थे, यानी कि जहां तक हिंदी और बंगाली सहित ग़ैर-अंग्रेज़ी भारतीय भाषाओं में भड़काऊ विषय-सामग्री का पता लगाने और उसमें शामिल किये जाने की सवाल है, तो फ़ेसबुक के एल्गोरिदम, इसके कथित "मशीन-लर्निंग" के तौर-तरीक़े और आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल,सबके सब नाकाफ़ी हैं। मानवीय हस्तक्षेप के बिना ये सारी क़वायद बेकार होंगी।

अब तो हमें हॉगेन के हवाले से पता है कि फ़ेसबुक ने अपने वैश्विक बजट का 87% उत्तरी अमेरिका में ग़लत सूचनाओं को चिह्नित किये जाने पर ख़र्च किया था, बाक़ी रक़म उस शेष दुनिया के लिए थी, जिसमें भारत भी शामिल है, और जहां कंपनी के सबसे ज़्यादा यूज़र्स हैं।

अब तो हमें यह भी पता है कि उस कंपनी के भीतर कितनी गहराई तक सड़ांध पैदा हो गयी है, जिसका ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदे पहुंचाने वाला मॉडल इस बात की परवाह किये बिना वायरल हो रही सामग्री पर आधारित है कि आख़िर किस तरह की जानकारी ली और दी जा रही है, और सामाजिक सद्भाव के विघटन, राजनीतिक प्राथमिकताओं के ध्रुवीकरण और नफ़रत और हिंसा फैलाने के नतीजे क्या होगें। यही बातों में इन ख़ुलासों की अहमयित है।

अब सवाल है कि क्या फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई इसलिए की जा सकती है, क्योंकि इसने सांप्रदायिक रिश्तों को बिगाड़ने वाली घृणित जानकारी के फ़ैलाने में सक्रिय रूप से सहायता की है और बढ़ावा दिया है? अगर ऐसी जानकारियां भारत के क़ानूनों का उल्लंघन करती है, तो क्या इस देश में सरकारी निकायों सहित कोई भी अमेरिका स्थित इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर सकता है ? इन सवालों के जवाब बहुत हद तक साफ़ नहीं हैं।

इस समय भारत की एक संसदीय समिति और दिल्ली सरकार की ओर से गठित एक दूसरी समिति हिंसा भड़काने वाली जानकारी फ़ैलाने में फ़ेसबुक की भूमिका की जांच कर रही है। फ़ेसबुक के अधिकारियों ने इस कंपनी के ख़िलाफ़ की जाने वाली पूछताछ में बाधा डालने की कोशिश की है। भले ही ये इन समितियों के पास इस कंपनी और उसके प्रतिनिधियों को नुक़सान पहुँचाने वाली रिपोर्टें हों, लेकिन इतने से ही फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती है। तो फिर क्या किया जा सकता है? यह भी पता नहीं है।

ऐसा लगता है कि अमेरिका के तमाम राजनीतिक दलों के बीच इस बात को लेकर समर्थन बढ़ता जा रहा है कि फ़ेसबुक को उसके प्लेटफ़ॉर्म पर दिखायी देने वाली चीज़ों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। अमेरिकी कांग्रेस और सीनेट इस कंपनी को क़ाबू करने के लिए नियमों को सख़्त कर सकते हैं। सवाल यह भी है कि क्या इस क़वायद का असर भारत पर भी हो रहा है?

हम अनिश्चितता की हालत में हैं। व्हाट्सएप ने क़ानूनी तौर पर भारत सरकार के इन प्रयासों को इस आधार पर विषय-सामग्री को सबसे पहले डालने वालों को चिह्नित किये जाने को लेकर मजबूर करने की कोशिशों को यह कहकर चुनौती दी है कि यह "नामुमिकन" इसलिए है, क्योंकि यह एप्लिकेशन "एंड-टू-एंड एन्क्रिप्टेड" है।

ऐसे में जब व्हाट्सएप पर विषय-सामग्री को साझा किये जाने के बाद भी जघन्य अपराध होते हैं, जैसा कि हाल के दिनों में ऐसा कई बार हुआ है, तो कंपनी का दावा होगा कि वह अपने तकनीकी डिज़ाइन आर्किटेक्चर को पूरी तरह से बदल नहीं सकती है। निश्चित रूप से इस तरह की परस्पर विरोधी बातें अभी होती रहेंगी। लेकिन, सवाल है कि इसका आख़िरी नतीजा क्या होगा, चाहे जो भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि इस तरह की दलीलें आगे भी दी जाती रहेंगी।

लोगों को इस बात के लिए जागरूक करते रहने की ज़रूरत है कि ये सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म महज़ पारिवारिक तस्वीरों, छुट्टियों के अनुभवों को साझा करने और जन्मदिनों को याद करने के लिए ही नहीं है, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा यूज़र्स को यह महसूस करना चाहिए कि इन विशाल इज़ारेदारियों के काले, कुरूप, दुष्ट और घिनौने पहलू भी हैं।
 
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, प्रकाशक, डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माता और शिक्षक हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Deep Rot Within Facebook/Meta: What can be Done?

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