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भारत
राजनीति
2024 में बीजेपी को हराने के लिए उसके पाले में खेलने के बजाए विपक्ष को रणनीति बनानी होगी
विपक्षी एकता के बारे में चल रही नए सिरे की बातचीत के बीच, ग़ैर-भाजपा दलों को आवश्यक सामाजिक और आर्थिक मांगों को पूरा करने के वादों के साथ उसे सांस्कृतिक प्रतीकवाद से जोड़ना होगा।
अजय गुदावर्ती
04 Aug 2021
Translated by महेश कुमार
2024 में बीजेपी को हराने के लिए उसके पाले में खेलने के बजाए  विपक्ष को रणनीति बनानी होगी

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों को एक साथ लाने का बीड़ा उठा लिया है। वे मोदी-शाह की जोड़ी से निपटने के अपने पहले अनुभव के साथ 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्षी रणनीति को बदलने के लिए दृढ़ नज़र आ रही हैं, जो अपने विरोधी दलों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि वे दुश्मन हैं जिन्हें परास्त होना ही चाहिए। उनकी ऊर्जावान राजनीति पर पुनर्विचार शुरू करने की यह सही जगह है। हालांकि, विपक्षी दलों को अब अधिक ठोस खाका की बनाने की जरूरत है ताकि वे तीन लक्ष्यों को पूरा करने में सक्षम हो सके: जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत का आकलन करना, उनकी कमजोरियों पर स्पष्टता नज़रिया अपनाना और एक प्रभावी विकल्प पेश करना। 

विपक्ष जो विकल्प पेश करेगा, उसमें प्रतीकात्मक अपील और जन संपर्क बनाने की क्षमता होनी चाहिए। साथ ही, इसके माध्यम से एक भावनात्मक उत्साह पैदा करना चाहिए, सांस्कृतिक जुड़ाव की भावना पैदा होनी चाहिए और एक व्यवहारिक आर्थिक कार्यक्रम पेश किया जाना चाहिए। इसके बाद विपक्ष को इन सभी मुद्दों को जमीनी स्तर प्रभावी ढंग से पेश कर उसके सार और ग्लैमर के साथ जनता से संवाद करना होगा। विपक्षी दलों को एक ऐसे प्रभावी अभियान की जरूरत है जो आम पुरुष या महिला को यह विश्वास दिला सके कि भले ही वे मोदी की आलोचना नहीं करना चाहे लेकिन सत्ता में बदलाव की बहुत जरूरत है। अगला चुनाव मोदी बनाम बाकी नहीं होना चाहिए बल्कि जोर मोदी के बावजूद बदलाव की जरूरत पर केन्द्रित  होना चाहिए। एक अभियान जो ऐसा कर सकता है वह सकारात्मक होना चाहिए और आशावादी भी होना चाहिए। चिली के निर्देशक पाब्लो लारेन 2012 की फिल्म नो को याद करें, जो यह तय करने के लिए मतदान करने को कहती कि क्या तानाशाह पिनोशे को आठ और वर्षों तक सत्ता में रहना चाहिए। एक युवा जो विज्ञापन की दुनिया से जुड़े हैं, का सुझाव था कि विपक्षी अभियान पिनोशे के अत्याचारों की तुलना में भविष्य पर अधिक केंद्रित होना चाहिए, जिसकी चर्चा लोग करते-करते थक चुके हैं।

भारतीय भी जानते हैं कि वर्तमान शासन कहां गलत है। फिर भी, उन्हें लगता है कि विपक्षी दल भी बेहतर स्थिति में नहीं हैं। वे जानते हैं कि मोदी को खारिज करने का मतलब धर्म, राष्ट्र, परिवार और क्षेत्र के संदर्भ में खास किस्म के अपनेपन को खारिज करना हो सकता है, जिसकी उन्होंने पिछले सात वर्षों में कल्पना की थी। इसलिए विपक्ष को अपनेपन की भावना को खोए बिना लोगों को मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए जनता को मनाने की जरूरत है। मोदी फिर से शक्तिशाली कॉकटेल बनाएंगे, जिसमें अपनापन और विकास दोनों का घालमेल करने की कोशिश करेंगे और इस कॉकटेल को विफल करना विपक्ष का महत्वपूर्ण काम बन जाता है।

विपक्ष का शुरुआती बिंदु यह होना चाहिए कि वह मोदी से बेहतर प्रदर्शन करेगा, और बताए कि मोदी ने जो वादे किए थे, यहां तक ​​कि कोरी बयानबाजी के रूप में किए गए कोई भी वादे पूरा करने में वे विफल रहे। उदाहरण के लिए, मोदी अपनेपन की भावना का वादा करते हैं, लेकिन खुद जनता से दूर रहते हैं। इस अत्यधिक शक्तिहीन वास्तविकता को उजागर करना होगा, और लोगों तक पहुंचने का यही एकमात्र तरीका है। शायद विपक्षी खेमे के नेताओं को पंजाब से कन्याकुमारी तक पदयात्रा [मार्च] की योजना बनाने की जरूरत है, क्योंकि पंजाब ग्रामीण राष्ट्रवाद का प्रतीक है। विपक्ष को पंजाब के किसानों को एक साथ लाने और ग्रामीण इलाकों में कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के मुद्दों के बारे में एक श्वेत पत्र जारी करने की जरूरत है। इस बार के विपक्षी अभियान को राजनीतिक दलों, छात्रों, किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जाना चाहिए।

यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है कि उनके अभियान की एक तय संरचना है जिसे सार्वभौमिक और विशिष्ट दोनों स्वरों में सुना जाता है। दूसरे तरीके से कहा जाए तो विपक्ष को लोगों को ठोस सार्वभौमिक जरूरतों और एक साझा सांस्कृतिक लोकाचार का वादा करने की जरूरत है, लेकिन इसके साथ जनता की खास मांगों और उनके संघर्ष के संभावित बिंदुओं को समायोजित करने की जरूरत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। मोदी को हिंदू पहचान को हथियाने का फायदा मिला है। इसके जरिए वे समय की जरूरत के मुताबिक विभिन्न समूहों और पहचानों को शामिल करते या उन्हे दूर करते रहते हैं। हमने देखा है कि किस तरह उन्होंने कैबिनेट मंत्रियों को हटा दिया और वादे पूरे नहीं किए और फिर भी अपनी वैधता बरकरार रखी है। विपक्षी दलों के लिए यह तय लाभ नहीं हो सकता है। विपक्षी खेमे में कई नेताओं ने अल्पसंख्यकों से खुद को दूर करने और हिंदू धार्मिकता को लागू कर इस पहेली से बाहर निकलने का रास्ता खोज लिया है। जैसे कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव के वक़्त हनुमान चालीसा पढ़ी, जबकि ममता बनर्जी ने देवी दुर्गा के सम्मान में भजन गाए और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कुछ मंदिरो का दौरा किया। इस प्रकार इस सवाल का कोई तय जवाब नहीं है कि हिंदू वर्चस्व की भाषा का कैसे मुकाबला किया जा सकता है।

विपक्ष भ्रम में है, क्योंकि वह हिंदू पहचान से दूरी बनाने और उसे विनियोजित करने के बीच झूल रहा है। इसे फिर से खुद को एक नए अंदाज़ में ढालने की जरूरत हो सकती है ताकि सांस्कृतिक प्रतीकवाद को सामाजिक और आर्थिक मांगों से जोड़ा जा सके। इसे एक क्रांतिकारी सामाजिक एजेंडे का वादा भी करना पड़ सकता है: जिसमें सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा, एक बुनियादी आय योजना, और इसी तरह के कुछ जन-मुद्दे जरुरी हैं। ये उस आशा और आशावाद को दोबारा ज़िंदा कर सकते हैं जिसे वर्तमान शासन ने लगभग भंग कर दिया है। सार्वभौमिक सरोकारों में अक्सर प्रतीकात्मक और भावनात्मक अपील का अभाव होता है, लेकिन फिर, यह विपक्ष का काम है कि वह ऐसी भाषा का आविष्कार करे जो एक खास स्थान और कल्पना को सार्वभौमिक अपेक्षाओं से जोड़ सके।

विपक्ष को हिंदुओं को दिखाए जाने वाले कथित खतरे के झांसा का पर्दाफाश करना पड़ सकता है और वर्तमान शासन के ट्रैक रिकॉर्ड जो विफलताओं से भरा है को मजबूती से पेश करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, वह इस बात पर ध्यान केंद्रित कर सकता है कि सरकार हिंदुओं को और अधिक सुरक्षित बनाने में कैसे विफल रही है। यह भी बताना कि बजाय अधिक सुरक्षा के कैसे बहुसंख्यक समुदाय अधिक असुरक्षा और दुख में डूब गया है। उसे बहुसंख्यक समुदाय को यह विश्वास दिलाना होगा कि यह मौका नहीं है बल्कि बहुसंख्यकवादी राजनीति की मजबूरियां ही जो उनकी बढ़ती असुरक्षा का सबसे बड़ा कारण हैं। यह भी कहना होगा कि पिछले लगभग एक दशक में वे यानि हिन्दू काफी कम भाग्यशाली रहे हैं और सभी महत्वपूर्ण संकेतकों पर नीचे फिसल गए हैं। इसे हिंदुओं को यह भी याद दिलाना पड़ सकता है कि देश 2004 से 2014 के बीच बेहतर प्रदर्शन कर रहा था। इस जटिल कथा को सरल और ठोस बनाना ही उनकी सफलता की कुंजी है।

मोदी-शाह के गठबंधन ने, आरएसएस के साथ मिलकर, मतदाताओं को कमजोर करने के ठोस प्रयास किए हैं ताकि वे मोदी पर निर्भर महसूस कर सके। देश का आत्मविश्वास अब तक के सबसे निचले स्तर पर है। मतदाता को फिर से सशक्त महसूस कराने, गरिमा और आत्म-सम्मान हासिल करने की जरूरत है। विपक्ष को मतदाताओं को शक्तिहीनता के घेरे से बाहर निकालने की जरूरत है, जो उनके साहसिक नेतृत्व का आगाज़ होगा। इस तरह के अभियान में ममता अपने आप में एक नए प्रतीकवाद का प्रतीक हैं। लेकिन विपक्षी खेमे को जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि मतदाताओं को इस अंतर्निहित भंवर में धकेल दिया गया है।

एक ठोस रणनीति की बारीकियों को अंजाम देने के बाद ही सूचना, डेटा और निर्वाचन क्षेत्र-वार विश्लेषण काम करेगा। इन सब में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण एक नए राजनीतिक गठबंधन की अपील है। ममता के चुनाव प्रचार से सुराग मिल रहा है; उन्होंने भाजपा द्वारा गढ़ी गई हर कहानी का जवाब दिया है, यहां तक कि जरा सी भी आलोचना या झूठे अभियान को नजरअंदाज नहीं किया। और इसने अंततः हाल के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उनके चुनावी लाभ को जरूरी गति दी थी। भाजपा की सत्तावादी राजनीति की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह इसका मुकाबला करने के लिए हर संभव आलोचना को गंभीरता से लेती है, जरूरी नहीं कि वह उसे संबोधित करे। प्रत्येक आलोचना मतदाता को एक सुविधाजनक बिंदु प्रदान करती है जहां से शेष अभियान की कल्पना और समझ बन सकती है। मुद्दों को वास्तविकता से जोड़कर फ्रेम करने की जरूरत है।

चूंकि 2024, अब तक का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव होगा, इन सभी कारकों को सर-अंजाम देने के लिए जल्दी शुरुआत करना विपक्ष का अपरिहार्य कदम होगा। 

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

Mamata Bannerjee
2024 Lok Sabha election
Narendra modi
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