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अदालत में दिल्ली पुलिस: हम काग़ज़ नहीं दिखाएंगे
ट्रम्प के दौरे के दौरान हिंसा भड़काने के सिलसिले में पुलिस की तरफ़ से "साज़िश" रचने को लेकर दायर की गई भारी भरकम चार्जशीट की वजह से इंसाफ़ में दो बार देरी हुई है।
प्रज्ञा सिंह
06 Jan 2021
Delhi riots

उन सोलह लोगों के लिए इंसाफ़ के पहिए बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं, जिन्होंने दिल्ली पुलिस के मुताबिक़ फ़रवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा फ़ैलाने की साज़िश रची थी। इस कथित साज़िश से जुड़े आरोप पत्र की फोटोकॉपियों पर एक बेतुकी लड़ाई के चलते उनके मुकदमे में अनावश्यक देरी हो रही है। इस मामले में दिल्ली पुलिस को एफ़आईआर नंबर 59/2020 दर्ज किए हुए नौ महीने बीत चुके हैं। क़रीब चार महीने पहले,17 सितंबर को एक विशेष अदालत ने पुलिस की ओर से तैयार की गयी चार्जशीट का संज्ञान लिया था।

आमतौर पर जब कोई चार्जशीट अदालत में पहुंचती है, तो यह जांच-पड़ताल के निष्कर्ष पर पहुंचने और मुकदमे की शुरुआत का प्रतीक होता है। विडंबना यह है कि इस मामले में चार्जशीट ही मुकदमे के शुरु होने में देरी का कारण बन गयी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दिल्ली पुलिस दावा कर रही है कि उसका 18, 325 पेज का आरोपपत्र डॉ.बीआर अंबेडकर द्वारा लिखित भारत के मूल संविधान की 52 प्रतियों के बराबर, इतना भारी भरकम है कि सरकारी ख़ज़ाना हर एक अभियुक्त को दिए जाने वाले फ़ोटोकॉपी ख़र्च नहीं वहन कर सकता।

एक मोटा-मोटी अनुमान के मुताबिक़ 18,325 शीट की फ़ोटोकॉपी के लिए काग़ज़ की लागत 16 गुना (प्रति पृष्ठ1रुपये) 2.93 लाख रुपए बैठती है। दिल्ली पुलिस इस मामूली पैसे को ख़र्च करने से इनकार कर रही है, भले ही इस मामले को एक हिंसक प्रकरण को उकसाकर भारत को बदनाम करने की एक ऐसी बड़ी साज़िश के रूप में चित्रित किया गया है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका के (पूर्व) राष्ट्रपति, डोनाल्ड ट्रम्प के भारत दौरे के दौरान पचास लोगों की मौत हो गयी थी।

लगता है कि आरोपी पर मुकदमे चलाने की शुरुआत का इंतज़ार बहुत ही लम्बा खिंचने वाला है, क्योंकि दिल्ली पुलिस ने अपनी प्राथमिकी और आरोपपत्र में भारतीय दंड संहिता, यूएपीए और अन्य क़ानूनों के उन कड़े प्रावधानों को लागू किया है, जो ज़मानत को तक़रीबन नामुमिकन बना देते हैं। मसलन, एक आरोपी, इशरत जहां ने इस बात की शिकायत की थी कि जेल में गिरने के बाद उसकी पीठ चोटिल हो गयी है, लेकिन उसे ज़मानत नहीं दी गयी। इसलिए, तीन को छोड़कर बाक़ी को ज़मानत मिल गयी है, बल्कि इस मामले में उन्हें क़ैद होने को लेकर अव्यवस्था का सामना करना पड़ रहा है, हालांकि उनका मुकदमा नहीं चल पा रहा है।

क़ानूनी तौर पर सभी आरोपियों को अपने-अपने मामले को लेकर तय किए गये आरोप पत्र की एक-एक प्रति पाने का हक़ है। उन्हे उस समय इसे हासिल करना होता है, जब इसे दाखिल करते समय पुलिस के सम्मन पर अदालत के सामने वे पेश होते हैं। लेकिन, पूरे एक महीने यानी 21 सितंबर से लेकर 21 अक्टूबर तक पुलिस इसके ख़िलाफ़ तर्क-वितर्क करती रही। शुरुआत में इसने विशेष अदालत से 15 दिनों में फ़ोटोकॉपी के लिए "पैसों की मंज़ूरी" हासिल कर लेने की बात कही थी। लेकिन, मामले की सुनवाई करने वाले सत्र न्यायाधीश इस तर्क से "प्रभावित" नहीं हुए थे। इसके बाद पुलिस ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वह पेन ड्राइव, जिसमें चार्जशीट है, उसे उसने हर एक आरोपी (या उनके वकील) को दिया है, तो फिर पेपर की क्या ज़रूरत है। इन सबों के बीच आरोपियों के वकील आरोपपत्र की हार्ड कॉपी के लिए अदालत में अपील करते रहे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जेल के क़ैदियों को कंप्यूटर चलाने की अनुमति नहीं है और इसलिए वे यह नहीं देख सकते कि आख़िर उनके ख़िलाफ़ आरोप क्या-क्या हैं।

इससे पहले ही आरोपियों और उनकी नुमाइंदगी करने वालों के लिए मुश्किलें पैदा हो गई हैं। मिसाल के तौर पर आरोप पत्र दायर किए जाने के तीन महीने बाद क्रिसमस की पूर्व संध्या पर अदालत की सुनवाई में एक आरोपी, उमर ख़ालिद ने कहा कि उन्होंने आरोप पत्र कभी देखा ही नहीं। उन्होंने बताया, "मुझे तो समाचार पत्रों के ज़रिए ही आरोप-पत्र के कुछ-कुछ अंश मिल पा रहे हैं।" उनके वकील, त्रिदीप पाइस ने अदालत से कहा, "माननीय महोदय, मैं उन्हें जेल में सॉफ़्ट कॉपी नहीं दे सकता।" उन्होंने कहा, "उन्हें (अभियुक्त) नुकसान उठाना पड़ा है। वे हिरासत में हैं, उन्हें चार्जशीट की कोई प्रति नहीं मिली है, और इससे उनकी सुनवाई नहीं हो पा रही है।"

घटनाक्रम

21 सितंबर को सत्र न्यायाधीश ने फ़ैसला सुनाया था कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 207 के मुताबिक़,पुलिस द्वारा बनाए गए आरोपियों को आरोपपत्र और दूसरे दस्तावेज़ों की एक-एक हार्ड कॉपी, न कि (सिर्फ़) सॉफ़्ट कॉपी "दी जानी है"। बाद की सुनवाइयों में इसके पालन किए जाने पर ज़ोर था। आरोपपत्र पेश किए जाने के एक महीने बाद, यानी 21 अक्टूबर को अदालत ने आदेश दिया, "क़ानूनन एक-एक हार्ड कॉपी दिया जाना अनिवार्य है", इसलिए हर एक आरोपी को अगली तारीख़ तक "बिना किसी हीले हवाली" के हार्ड कॉपी मिलनी ही चाहिए। दिल्ली पुलिस की कंपकंपी छूट गई थी। इसके बावजूद, मामला नवंबर तक खिंच गया।

3 नवंबर को सुबह 10.09 बजे, इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण सुनवाई से पहले, बचाव पक्ष के वकीलों को राज्य की नुमाइंदगी करने वाले अधिवक्ता या अभियोजन पक्ष के वक़ील, विशेष लोक अभियोजक, अमित प्रसाद का ई-मेल मिला। इस ई-मेल का विषय था-"प्रस्ताव-सूचना"(Notice of Motion) और अंदर एक ताज़ा याचिका की प्रति थी: पुलिस ने फोटोकॉपी के इस मुद्दे को दिल्ली उच्च न्यायालय में बढ़ा दिया था, जहां उसने 4 नवंबर को कहा था कि विशेष अदालत के हार्ड कॉपी वाले आदेश को "रद्द" किया जाना चाहिए। इस मामले में सुनवाई 11 नवंबर को शुरू हुई।

इस मामले में विरोधाभास यह है कि पुलिस सिर्फ़ इस बात को दबाने के लिए अदालत की फ़ीस, वकीलों के पेश होने की फ़ीस और अपनी नई याचिका के प्रिंट-आउट पर अपने कथित संसाधनों को ख़र्च कर रही है कि राज्य अपने मौजूदा काग़ज़ी कार्रवाई की फोटोकॉपी नहीं दे सकता है।

जब हाईकोर्ट को पता चला कि आरोपियों को उनकी चार्जशीट की प्रतियां नहीं मिली हैं, तो उन्होंने सुनवाई रोक दी। सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता, संजय हेगड़े कहते हैं, 'यह रोक उच्च न्यायालय ने इसलिए लगाई होगी, क्योंकि आरोपपत्र के बिना आरोपियों को यह पता ही नहीं चल पाता कि उनके ख़िलाफ़ आख़िर मामला है क्या । इसके बिना, किसी आरोपी की रिहाई या उसके निर्दोष होने के दावे का मामला गंभीर नहीं बन सकता।” वह कहते हैं, "इसीलिए, चार्जशीट की सॉफ़्ट और हार्ड कॉपी के इस मामले को क़ानूनी अदालत में निपटाए जाने की ज़रूरत है।"

इस स्टे का नतीजा यह हुआ है कि बचाव पक्ष के वकील अपने मुवक्किलों की ओर से विशेष अदालत में नियमित मामलों को आगे बढ़ाने, ज़मानत पाने, जेल में उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़े आवेदन देने, पठन सामग्री हासिल करने या परिवारों से बातचीत की अनुमति आदि पाने के लिए स्वतंत्र होते है। लेकिन, वास्तविक सुनवाई के लिए आरोपों का तय किया जाना, किसी भी साज़िश में अभियुक्त की भूमिका को साबित या बाधित कर सकने वाली गवाहों से ज़िरह है, जिसमें से कुछ भी नहीं चल रहा है।

आमतौर पर जब मुकदमे की सुनवाई होती है और एक बार चार्जशीट के साथ सबूत रख दिया जाता है, तो उस मामले के सिलसिले में जेल में बंद हर कोई ज़मानत हासिल करने की कोशिश कर सकता है। लेकिन, चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी एक आरोपी, नताशा नरवाल को ज़मानत नहीं दी गयी। इसके पीछे की वजह कई प्राथमिकी में उनके और दूसरों के ख़िलाफ़ लगाए गये गंभीर आरोप हैं, लेकिन इस मामले में एक अतिरिक्त बाधा है और वह बाधा है-दिल्ली पुलिस की तरफ़ से अब भी एक कथित साज़िश की जांच को जारी रखा जाना और एक पूरक आरोप पत्र का दायर किया जाना। जैसा कि विशेष अदालत ने पहले ही फ़ैसला सुना दिया है कि सभी आरोपियों को चार्जशीट की हार्ड कॉपी मिलनी चाहिए, इससे साफ़ हो जाता है कि पूरक आरोप पत्र पर भी उसका रुख़ वही होगा।

सत्र न्यायाधीश, अमिताभ रावत ने दिसंबर में एक सुनवाई के दौरान ज़ोर देकर कहा, “अभियोजन पक्ष इस बिंदु पर उच्च न्यायालय में गया है और अब उच्च न्यायालय ने इस बिंदु पर सुनवाई पर रोक लगा दी है। मुझे पूरक चार्जशीट पर एक आदेश पारित करना होगा, जो मुख्य चार्जशीट का एक हिस्सा है। इसलिए, मुझे इस बात को लेकर यक़ीन नहीं है कि आपको एक प्रति कैसे दी जाएगी।” वह बचाव पक्ष के वकीलों के उस सवाल का जवाब दे रहे थे, जिसमें उन्होंने पूछा था कि क्या उन्हें नई चार्जशीट या नई पेन ड्राइव की हार्ड कॉपी मिलेगी या नहीं। कुछ आगे-पीछे करने के बाद, एक तरह से तय हुआ कि हाई कोर्ट ने मुकदमे पर रोक लगा दे और फ़ोटोकॉपी के मुद्दे पर अभी फ़ैसला नहीं किया गया है, लेकिन किसी भी स्थिति में वकीलों को अनुपूरक आरोप पत्र की सॉफ़्ट कॉपी पाने से नहीं रोका जा सकता।

बचाव पक्ष के वकीलों में से एक, रितेश धर दुबे कहते हैं, “सही बात तो यह है कि यह सुनवाई सबसे ज़्यादा जांच-पड़ताल वाली क़ानूनी लड़ाइयों में से एक होगी। हो सकता है कि पुलिस को लगता होगा कि उन्होंने पर्याप्त जांच पड़ताल नहीं की है और इसलिए कार्यवाही में देरी करना चाहती है। फ़ोटोकॉपी तो सुनवाई को टालने का एक बहाना है। या शायद वास्तविक सुनवाई के दौरान अपनी साख़ को होने वाले नुकसान से बचने के लिए पुलिस अपनी जांच की ख़ामियों को दूर करना चाहती हो।”

फ़िलहाल, अदालतें नहीं चल रही हैं। जब उच्च न्यायालय में सुनवाई फिर से शुरू होगी, तो दोनों पक्ष फ़ोटोकॉपी के मुद्दे पर अपनी-अपनी दलीलें पेश करेंगे। यह कहना मुमकिन नहीं है कि यह मामला कब ख़त्म होगा और स्टे कब हटाया जाएगा।

जो कुछ मायने रखता है, वह यह कि पुलिस की तरफ़ से दायर किए गए एक भारी भरकम आरोप पत्र के चलते इसमें महज़ क़ानूनी उलझनें ही नहीं आ रही हैं, इसके अलावे भी बहुत कुछ है। दिल्ली पुलिस ने बचाव पक्ष के वकीलों को जो मूल चार्जशीट वाली पेन ड्राइव दी थी, उसने कई सप्ताह के बाद उनसे वापस मांग ली थी। माना गया कि उसमें गड़बड़ी है और इस आरोप पत्र पर आरोप लगाते हुए बुनियादी दलील दी गयी कि यह दस्तावेज़ इतना "ज़्यादा लंबा, भारी भरकम और बड़ा" है कि हम इसमें सुरक्षा के लिहाज़ से गवाहों की उनकी पहचान और उनके खुलासे को हटाना ही छोड़ दिया गया है।

ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के सामने दिल्ली पुलिस की दलील

सितंबर में दिल्ली पुलिस ने विशेष अदालत में दावा किया था कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 कुछ इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को "दस्तावेज़" के तौर पर मान्यता देता है, जबकि इस प्रावधान को सीआरपीसी नहीं मानता है। विशेष अदालत ने इस बात से असहमति जताई, और धारा 207 की शर्तों के आधार पर फ़ैसला सुनाया, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई दस्तावेज़ बहुत भारी-भरकम है, तो अभियुक्त या उनके वकीलों को निजी तौर पर इसके "मुआयने" की अनुमति है। न्यायाधीश ने कहा कि यह "मुआयना" शब्द,केवल किसी स्थूल या हार्ड कॉपी पर लागू हो सकता है, किसी पेन ड्राइव में रखी जानकारी पर लागू नहीं होता है। उन्होंने कहा, "इस तरह, जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) हार्ड कॉपी की आपूर्ति करने के लिए बाध्य है, क्योंकि हर आरोपी सॉफ़्ट कॉपी के साथ सहज नहीं होता।" दरअसल, इस मामले के कुछ आरोपी की आर्थिक पृष्ठभूमि अच्छी नहीं है, मसलन, आसिफ तन्हा ने अपनी पढ़ाई का ख़र्चा निकालने के लिए किसी चाय दुकान पर काम किया है।

इसके अलावा, जैसा कि हेगड़े कहते हैं, "आरोपपत्र की एक भौतिक प्रति(हार्ड कॉपी) हासिल करना एक अभियुक्त के अधिकारों का मामला है।"

दिल्ली के उच्च न्यायालय के सामने पुलिस ने ज़ोर देते हुए कहा कि फ़ोटोकॉपी मशीनों के बाज़ार में आने से 61 साल पहले 1898 में सीआरपीसी लागू किया गया था। इसलिए, (सीआरपीसी में उल्लेखित) कॉपी शब्द को "फोटोकॉपी के बराबर मान लेना सरासर ग़लत है।" कहा गया कि अभियोजन पक्ष नहीं, बल्कि मजिस्ट्रेट चार्जशीट की प्रतियां उपलब्ध कराने के फ़र्ज़ से बंधे हुए हैं, लेकिन सवाल यहां यह पैदा होता है कि दिल्ली पुलिस ने पहली बार बचाव पक्ष के वकीलों को पेन ड्राइव उपलब्ध कराने की जहमत क्यों उठायी। पुलिस की शिकायत थी कि ट्रायल कोर्ट ने इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया कि उनकी चार्जशीट "इतनी भारी भरकम" हैं, जिससे कि इसका फ़ोटोकॉपी कराने से "राज्य के ख़ज़ाने पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ" पड़ेगा।

इसके बाद अजीब तरह से पुलिस की ओर से यह दलील दी गई कि "आम क़ानून" के सुनिश्चित सिद्धांत के साथ इस बात को लेकर "कोई विवाद या झगड़ा नहीं है" कि "हार्ड कॉपी आरोपियों को उपलब्ध कराई जाए"। हालांकि, धारा 207 की शर्त "एक अपवाद" है। इसलिए, अगर दस्तावेज़ भारी भरकम हैं, तो कोई अभियुक्त महज़ मुआयना कर सकता है। संक्षेप में, दिल्ली पुलिस प्रत्येक आपराधिक मुकदमें में नहीं, बल्कि इस मामले में फ़ोटोकॉपी दिए जाने से छूट चाहती है। फ़िलहाल यह एक अजीब-ओ-ग़रीब स्थिति है, अभियुक्तों को जेल में कंप्यूटर के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है, जबकि कुछ वकील, जिन्होंने इंटरनेट से कनेक्ट नहीं होने वाले कंप्यूटर पर चार्जशीट देखने की अनुमति के लिए जेल अधीक्षकों से दरख़्वास्त किया था”, लगता है कि उसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।

यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि दिल्ली पुलिस ख़ज़ाने पर पड़ने वाले 3.29 लाख रुपये का बोझ नहीं उठाना चाहती। एक आम चार्जशीट कुछ सौ पृष्ठों की होती है, यहां तो यह एक लम्बी-चौड़ी रिपोर्ट है। हैरत की बात नहीं कि बचाव पक्ष के कुछ वकील इस आरोपपत्र के आकार को इस लिहाज़ से देखते हैं कि इसमें आरोपियों पर तमाम मुमकिन आरोप इस उम्मीद लगा दिए गए हों कि कुछ न कुछ आरोप तो अदालत में ठहर पाएंगे।

कुछ आरोपियों की तरफ़ से पेश होने वाले वकील, महमूद प्राचा कहते हैं, “अब तक पूरे भारत में पुलिस ने अपनी चार्जशीट की हार्ड कॉपी ही दी है। यह पहला मामला है, जिसमें पुलिस कर रही है कि वह ऐसा नहीं कर सकती।” वह बताते हैं, “असल में, इस आरोप पत्र में लगाए गए आरोपों के पक्ष में जुटाए गए साक्ष्यों में वज़न ही नहीं है और मुझे लगता है कि आख़िरकार पुलिस कहेगी कि उनके संरक्षित गवाहों को लीक कर दिया गया है, और इसी चलते उनका मामला टिक नहीं पाया।”

एक समय ऐसा भी आया, जब उच्च न्यायालय में दिल्ली पुलिस ने यह प्रस्ताव दिया कि बचाव पक्ष के वकील एक निर्दिष्ट फोटोकॉपी की दुकान से इस आरोपपत्र की फ़ोटोकॉपी ले सकते हैं, और वह भुगतान कर देगी। प्राचा कहते हैं,“हम कुछ फ़ोटोकॉपी की दुकान से जो प्रतियां लेंगे, उसकी प्रामाणिकता की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? हमारे पास स्थापित प्रक्रिया के तहत पुलिस से इसकी मांग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।”

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