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नोटबन्दी और बैंकों द्वारा क़र्ज़ देने का सवाल
इस तथ्य को साबित करने वाले बेहद कम सबूत हैं कि बैंकों में आए अतिरिक्त नक़द पैसे से ऋण वृद्धि को बढ़ावा मिला।
प्रभात पटनायक
28 Dec 2019
Demonetisation and the Question

नवंबर 2016 में 500 और 1,000 रुपये मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों के विमुद्रीकरण (नोटबंदी) ने अचानक से बैंकों के ख़ज़ाने में अभूतपूर्व मात्रा में नक़दी जमा कराने का काम किया। अब चूँकि जिस धन को मजबूरीवश जनता द्वारा उनके यहाँ नकदी के तौर पर जमा करवाया गया था, लेकिन उस रकम पर बैंकों को ब्याज़ भी देना पड़ता, इसलिये उन्हें इस नकदी का इस तरह इस्तेमाल करना था जिससे कि उन्हें कुछ लाभ भी अर्जित हो सके, वरना यह उनके यहाँ बेकार पड़ा रहता और जब तक रहता उनके अर्जित लाभ में ही सेंध लगती रहती। यहाँ पर यह समझना बेहद शिक्षाप्रद रहेगा, कि बैंकों ने नकदी के रूप में आई इस अतिरिक्त तरलता का उपयोग किस प्रकार से किया, जो उनके पास अचानक से आ गई थी।

भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने हाल ही में एक विचार प्रतिपादित किया है कि बैंकों ने इस नकदी का उपयोग ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफ़सी)के माध्यम से रियल एस्टेट और अन्य क्षेत्रों को क़र्ज़ देने के लिए किया है। इसके चलते अर्थव्यस्था में उछाल देखने को मिला और जिसके बाद में धड़ाम से गिरने के मद्देनज़र, यह न केवल अर्थव्यवस्था में गिरावट का कारण बना, बल्कि जैसा कि वर्तमान में हम देख पा रहे हैं कि इसने नॉन-परफार्मिंग असेट्स(NPAs) की गंभीर समस्या को बढ़ा दिया है, जिसकी चपेट में अब बैंकिंग क्षेत्र और ख़ासतौर से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक प्रभावित हो रहे हैं।

हालाँकि इस दृष्टिकोण के पास अपने समर्थन के लिए तथ्यात्मक रूप से बेहद कम सबूत हैं। यदि बैंकों के पास भारी मात्रा में जमा हुई इस नकदी का उपयोग वास्तव में बैंक द्वारा और क़र्ज़ देने के लिए किया गया होता, चाहे वो एनबीएफ़सी और उनके माध्यम से रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों के लिए भी किया गया होता, तो कुछ समय की ही अवधि के दौरान जनता द्वारा मुद्रा-जमा के अनुपात में क्षणिक गिरावट से अधिक के रूप में एक महत्वपूर्ण घटना होनी चाहिए थी।

इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है। मान लीजिए कि लोग नए नोटों के लिए बैंकों में गए, और मान लीजिये कि अपने 100 रुपये के विमुद्रीकृत मुद्रा नोट के बदले में उन्हें 100 रुपये चाहिये थे, तो उन्हें आमतौर पर 100 रुपये के नए नोट के रूप में पूरी रकम तो नहीं दी जाती। बल्कि उन्हें बैंकों के पास 80 रुपये के रूप में बड़ा हिस्सा जमा रखना पड़ा था। और इस प्रकार बैंकों में जमा रह जाने वाला यह 80 रुपया बैंकों को रियल एस्टेट और अन्य क्षेत्रों में बड़ी राशि को क़र्ज़ पर देने का आधार प्रदान कर देता है। लेकिन यदि जैसे ही बैंकों में नई करेंसी उपलब्ध हुई, इस 80 रुपये को कुछ ही महीनों के भीतर नकद के रूप में वापस भुना लिया गया। और इसी के साथ ही जो संसाधन बैंकों के पास अचानक से प्राप्त हुए थे वे वैसे ही ग़ायब होकर नागरिकों के पास वापस चले गए जब ऐसे पुनःपरिवर्तन की प्रक्रिया हुई। ऐसी स्थिति में हम फिर से वहीं पहुँच गए, जहाँ से शुरुआत की थी, जिसमें किसी भी स्तर पर अधिक उधारी न दे पाने वाली बैंकों की शुरुआती पूर्व-विमुद्रीकरण स्थिति में पहुँच गए।

ऐसी एकमात्र स्थिति, जहाँ पर बैंकों के लिए यह संभव हो पाता कि वे अर्थव्यस्था में उछाल पैदा कर सकें, वह अधिकाधिक ऋण को मुहैय्या कराकर ही संभव था, जो उसके पास विमुद्रिकृत करेंसी की मुद्रा के रूप में काफी मात्रा में धनराशि जमा थी, लेकिन यह तभी संभव था यदि नागरिक पुराने नोटों के बदले नए नोट न निकालते और स्थायी आधार पर उसे बैंकों में जमा रखने को प्राथमिकता देते। अर्थात यदि नागरिकों की प्राथमिकता में एक ग़ैर-क्षणिक बदलाव आ सकता, जिसमें वे नकदी की जगह पर अपने धन को बैंकों में जमा रखने को प्राथमिकता देते। दूसरे शब्दों में कहें तो बैंकों में जमा होने वाली अधिक नकदी तभी उछाल पैदा कर सकती है जब आम जन के मुद्रा निकासी जमा अनुपात में ग़ैर-क्षणिक (स्थायित्व) बढ़त हुई हो।

हालाँकि इस प्रकार की कोई बढ़त देखने को नहीं मिली। न सिर्फ़ लोगों ने 99% से अधिक की विमुद्रीकृत हो चुकी मुद्रा बैंकों में जमा करा दी, जिसने सरकार की इस पूर्व-धारणा को ध्वस्त कर दिया कि विमुद्रीकरण के उसके इस क़दम से "काला धन" का खात्मा हो जाने वाला है, बल्कि उन्होंने बैंकों में अपने धन को जमा रहने देने के बजाय वे उस धन ओ मुद्रा के रूप में वापस लेने के लिए वापस भी आ गए।

जैसे-जैसे पुनर्मुद्रिकरण होना शुरू हुआ, वैसे वैसे मुद्रा पर उनकी पकड़ बढ़ती चली गई। वास्तविकता तो ये है कि विमुद्रीकरण के एक वर्ष के भीतर जनता का मुद्रा-जमा अनुपात कमोबेश पूर्व-विमुद्रीकरण वाले स्तर पर वापस आ चुका था। इस प्रकार, विमुद्रीकरण के उपरांत घटनाक्रमों पर यदि कोई विशेष नैरेटिव, जैसे कि इसने रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर ऋण देने का काम किया है, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से एनबीएफसी के माध्यम से ही दिया गया हो, और जिसके चलते इन क्षेत्रों में उछाल आ गया अपने आप में आधारहीन तथ्यों पर आधारित हैं।

हक़ीक़त यह है कि जिस समय बैंकों में नकदी भरी पड़ी थी, उस दौरान उन्होंने या तो “रिवर्स रेपो ऑपरेशन” कहे जाने वाली प्रक्रिया के तहत इस धन को रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास जमा करा दिया, या फिर इसका उपयोग खासतौर पर बनाए गए सरकारी बॉन्ड को ख़रीदने पर लगाया, जिनसे उन्हें ब्याज़ की प्राप्ति तो होती है लेकिन उससे होने वाली आय को सरकार अपनी मर्ज़ी से ख़र्च नहीं कर सकती (ऐसा करना राजकोषीय घाटे की सीमा का उल्लंघन करना होता, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी आमतौर पर सरकार से उसके पालन करने की उम्मीद रखती है)। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि असल में बैंकों में जो अतिरिक्त नकदी आई, उससे और उधार दे पाने के क्षमता में शायद ही कोई वृद्धि हो सकी हो।

मार्च 2016 और मार्च 2017 के बीच शेड्यूलड वाणिज्यिक बैंकों द्वारा ग़ैर-खाद्य श्रेणी में क़र्ज़ देने में वृद्धि दर वास्तव में एक साल पहले इसी अवधि की तुलना में कमज़ोर पड़ गई। यह 8.4% हो गई, जो पहले 9.1% थी। इस अवधि में "कृषि और सम्बन्धित गतिविधियों" के लिए क़र्ज़ की विकास दर 15.3% से घटकर 12.4% और "उद्योग" के लिए 2.7% से गिरकर 1.9% हो गई। यहां तक कि “प्राथमिकता क्षेत्र” तक में सम्पूर्णता में क़र्ज़ देने की रफ़्तार 10.7% से 9.4% तक धीमी हो गई।

हाँ, विमुद्रीकरण (नोटबंदी) को इस तौर पर याद किया जा सकता है कि इसने किसानों के हाथों में नकदी की भारी कमी का संकट उत्पन्न कर दिया था। अपनी तैयार फसल को को किसान बेच नहीं पा रहे थे, और हाथ में पैसा न होने के कारण नई फसल के लिए आवश्यक वस्तुओं की खरीद का संकट उनके सामने मुहँ बाए खड़ा था। ऐसे में, नई फसल पर निवेश के लिए उन्हें निजी साहूकारों से मनमानी दरों पर ऋण लेना पड़ा, जिससे उनके ऊपर क़र्ज़ का बोझ और अधिक बढ़ गया और वे पहले से कहीं अधिक संकट में घिर गए।

विमुद्रीकरण की यह एक महत्वपूर्ण चिरकाल तक रहने वाली ऐसी विरासत है, जिसने अर्थव्यवस्था पर कभी ख़त्म न होने वाला असर छोड़ दिया है, और जिसे तात्कालिक असुविधा जो पुनर्मुद्रीकरण के साथ साथ स्वतः ग़ायब हो जायेगी, के रूप में नहीं देख सकते। और फिर ठीक ऐसे दौर में हम पाते हैं कि जब किसानों को ऋण की सख़्त ज़रूरत थी और इसे किसी तरह हासिल करने के लिए वे निजी साहूकारों की ओर भाग रहे थे, उस समय देश के बैंक अभूतपूर्व सीमा तक रुपयों से लबालब थे, लेकिन इस सब के बावजूद वे किसानों को ऋण देने के लिए तैयार नहीं थे। यह गिरावट इस स्तर तक पहुँच गई, कि कृषि के लिए ऋण की विकास दर भी पहले से धीमी हो गई थी।

ऐसा न हो कि यह मान लिया जाय कि उसी अफ़रातफ़री के कारण क़र्ज़ देने की गति धीमी थी,क्योंकि हमें ध्यान देना चाहिए कि मार्च 2017 के बाद भी इस मामले में सुधार नहीं हुआ। उल्टा, मार्च 2017 के बाद से तो "कृषि और संबद्ध गतिविधियों" के लिए ऋण में वृद्धि दर में और भी अधिक गिरावट देखने को मिलती है: जहाँ जून 2016 से जून 2017 के बीच की वृद्धि दर 7.5% थी, वो मार्च 2016 मार्च और मार्च 2017 के बीच 12.4% से भी कम थी। और मार्च 2017 से मार्च 2018 के बीच इस क्षेत्र में ऋण में वृद्धि दर मात्र 3.8% रह गई। बैंकिंग प्रणाली में संसाधनों के इस असाधारण अभिवृद्धि के दौर में खेती किसानी में ऋण वृद्धि की यह सुस्त रफ़्तार भारतीय अर्थव्यवस्था के कामकाज के संबंध में एक उच्च शिक्षाप्रद परिघटना के रूप में याद रखा जाना चाहिए।

इसकी प्रकृति नव-उदारवादी दौर के समय नज़र आने वाले रुझान से पूरी तरह मेल खाती है, जिसमें खेती किसानी से संस्थागत ऋण अधिकाधिक बाहर कर दिया जाता है और देखने को मिलता है कि मेज़बान के तौर पर निजी साहूकारों की एक पूरी फ़ौज इसका स्थान ले रही है। औपनिवेशीक काल की तुलना में ये एक नई नस्ल का निर्माण करते हैं,लेकिन सूदखोरी के मामले में ये किसी भी तरह से अपने औपनिवेशिक पूर्ववर्तियों से पीछे नहीं हैं।

इस स्थिति में सरकार का रवैया भी उतना ही शिक्षाप्रद है। सबको पता था कि नकदी के अभाव में किसान बेहद ख़स्ता-हाल है, लेकिन बैंकों में भरपूर नकदी होने के बावजूद सरकार ने अपनी ओर से बैंकों को खेती-किसानी के लिए पहले से कहीं अधिक ऋण देने का सुझाव नहीं दिया। बैंकों ने सरकारी बॉन्ड के रूप में धन मुहैय्या किये, जहाँ वह अपने धन को सुरक्षित रख सकते थे (जिसके चलते सरकार और अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं थी) के बावजूद अभी तक इन संसाधनों का उपयोग करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए, जिससे किसानों को पर्याप्त ऋण दिया जा सके। सरकार की इस बेरुखी के चलते संकट में घिरे किसानों को निजी साहूकारों पर और अधिक निर्भर होने के लिए मजबूर होना पड़ा।

ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने इससे पहले कभी विशेष क्षेत्रों में ऋण देने के लिए बैंकों पर दबाव न डाला हो। वास्तव में, यह सरकारी दबाव ही था जिसने इस सदी के शुरुआती वर्षों में होने वाले बुनियादी ढाँचे के क्षेत्र में भारी निवेश को बैंक ऋणों के माध्यम से संभव कर दिखाया। लेकिन सरकार का ध्यान इस तरह कभी भी खेती-बाड़ी के प्रति आकर्षित नहीं हो पाया।

काश! सरकार अगर खेती-बाड़ी के प्रति कहीं अधिक चौकस रहती तो एक तीर से दो शिकार किये जा सकते थे: एक- नकदी के संकट से जूझ रहे किसानों की मदद की जा सकती थी, और दूसरा- बिना किसी प्रकार के विशेष बांडों जैसे असाधारण उपायों का सहारा लिए भी बैंकों की लाभप्रदता बहाल की जा सकती थी। लेकिन ऐसे विचारों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। यह एक बार फिर से एक नवउदारवादी राज्य सत्ता के लक्षणों की पुष्टि करता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Demonetisation and the Question of Bank Credit

Neo-liberal policies
demonetisation
Agriculture Credit

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