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भारत
राजनीति
मध्य प्रदेश में स्थानीय निकायों में जनभागीदारी के बहाने पार्टी कार्यकर्ताओं का सत्ता में सीधा भर्ती अभियान!
कभी शांत प्रदेश कहा जाने वाला मध्य प्रदेश इन दिनों सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला बन रहा है उसमें स्थानीय निकायों में अपने कार्यकर्ताओं को शामिल करने से उन तत्वों को न केवल सत्ता का खुला संरक्षण मिलने जा रहा है बल्कि इनाम के तौर पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया जा रहा है।

सत्यम श्रीवास्तव
31 Aug 2021
 मध्य प्रदेश में स्थानीय निकायों में जनभागीदारी के बहाने पार्टी कार्यकर्ताओं का सत्ता में सीधा भर्ती अभियान!


मध्य प्रदेश में ग्राम पंचायतों, जनपद पंचायतों और जिला पंचायतों के अलावा नगरीय निकायों जैसे नगर पालिका व नगर निगम के चुनाव कोरोना के मद्देनज़र स्थगित किए गए हैं और वस्तुत: मध्य प्रदेश में इस समय स्थानीय निकायों में निर्वाचित जन प्रतिनिधि प्रभार में नहीं हैं।

इस परिस्थिति में मध्य प्रदेश सरकार की कैबिनेट की स्वीकृति के बाद 10 अगस्त 2021 को स्थानीय निकायों के लिए दीन दयाल अंत्योदय समितियों के गठन को लेकर राजपत्र में अधिसूचना जारी कर दी है। इन समितियों में भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और इसके आनुषंगिक संगठनों जैसे बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को अशासकीय सदस्यों के रूप में मनोनीत किया जाएगा।

दैनिक नई दुनिया ने 11 जुलाई के भोपाल संस्करण में लिखा है कि स्थानीय निकायों में दीन दयाल अंत्योदय समितियों के माध्यम से प्रदेश के भाजपा व इसके आनुषंगिक संगठनों के करीब पाँच लाख कार्यकर्ताओं को सत्ता में सीधी भागीदारी मिलेगी।

मध्य प्रदेश में स्थानीय निकायों की संख्या का आंकलन करें तो प्रदेश में 52 जिले, 10 संभाग, 313 जनपद पंचायतें, 23,992 ग्राम पंचायतें, 294 नगर परिषद, 98 नगर पालिकाएं और 16 नगर निगम हैं।

इन समतियों का गठन हर स्तर पर होना है। फण्ड्स, फंक्शन और फंक्शनरीज़ के विकेन्द्रीकरण के लिए गठित होने वाली इन दीनदयाल अंत्योदय समितियों में राज्य स्तरीय समिति की अध्यक्षता खुद मुख्यमंत्री करेंगे विभागीय सचिव समिति के सदस्य होंगे। इस समिति में मुख्यमंत्री 52 अशासकीय सदस्यों को नामांकित करेंगे।

इसके बाद जिला स्तरीय समितियों में जिले के प्रभारी मंत्री अध्यक्ष होंगे और भारतीय जनता पार्टी के जिला अध्यक्ष इनमें सचिव होंगे। इन समितियों में 10 से 31 अशासकीय सदस्य होंगे जिन्हें प्रभारी मंत्री नामांकित करेंगे।

जनपद (विकासखंड) स्तरीय समितियों में 10 से 21 अशासकीय सदस्य होंगे जिन्हें प्रभारी मंत्री मनोनीत करेंगे। इन्हीं सदस्यों में से अध्यक्ष बनेगा। इस समिति का सचिव राजस्व विभाग के अनुविभागीय अधिकारी को बनाया जाएगा।

ग्राम पंचायत स्तरीय समितियों में 5 से लेकर 11 अशासकीय सदस्य होंगे जिन्हें प्रभारी मंत्री मनोनीत करेंगे। इन्हीं मनोनीत सदस्यों में समिति का अध्यक्ष बनेगा और सचिव किसी शासकीय या अर्द्ध शासकीय व्यक्ति को बनाया जाएगा।

इसी प्रकार नगरीय निकायों यानी प्रत्येक नगर निगम, नगर परिषद और नगर पालिका में 10 से 21 अशासकीय सदस्य बनाए जाएँगे। जिन्हें प्रभारी मंत्री मनोनीत करेंगे।

इन समितियों के माध्यम से भाजपा ने लंबित निकाय चुनावों में अपनी पैठ मजबूत कर ली है। इन समितियों के सदस्यों में भाजपा कार्यकर्ताओं के मनोनयन से उन्हें सत्ता में सीधी भागीदारी मिलेगी और एक तरह से पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के काडर को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मौद्रिक लाभ भी मिलेंगे।

इन अशासकीय सदस्यों के पास जो मूलत: भाजपा के लिए निष्ठावान होंगे हर स्तर पर सरकार की योजनाओं के लिए लाभार्थियों और पात्र व्यक्तियों के चयन के अधिकार होंगे। इसके अलावा योजनाओं की निगरानी और सामाजिक अंकेक्षण जैसी जवाबदेही के मकसद से बनाई गयी निगरानी प्रक्रियाओं संचालित करने जैसे काम होंगे।

संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के माध्यम से वजूद में आयी इस त्रि-सतरीय पंचायती राज व्यवस्था का मूल मकसद सत्ता का अधिकतम विकेन्द्रीकरण, फण्ड्स, फंक्शन और फंक्शनरीज़ के विकेन्द्रीकरण के माध्यम से करना था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा इसका प्रस्ताव रखा गया था। हालांकि उनके रहते यह व्यवस्था अमल में नहीं पायी लेकिन उनकी मंशा को 1992 के बाद संविधान में संशोधन के जरिये तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अमली जामा पहनाया था।

इन 29 सालों में गाँव गाँव में तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद ‘अपनी सरकार’ को लेकर न केवल उत्साह देखा गया बल्कि ग्राम सभा जैसी सांवैधानिक संस्था के जरिये ‘स्व-राज’ की दिशा में सशक्त माहौल बना था। मध्य प्रदेश में अभी तक त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में राजनैतिक दलों की भूमिका नहीं रही है। यानी राजनैतिक दलों के चुनाव चिह्न का इस्तेमाल नहीं होता है। हालांकि सत्तासीन दल का एक अघोषित दबदबा रहता आया है। लेकिन यह संकल्पना भी बनी रही कि इन निकायों को किसी भी राजनीतिक दल से अप्रभावित होना चाहिए और कोई भी निरपेक्ष व्यक्ति इसमें प्रत्यक्ष हिस्सेदारी कर सके।

इन समितियों के गठन से पंचायती राज व्यवस्था की मूल संकल्पना पर गहरा आघात होने जा रहा है इसे सत्तासीन दल के सीधे हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जा रहा है। इन समितियों में चुन-चुन कर भाजपा कार्यकर्ताओं को अशासकीय सदस्यों के रूप में मनोनीत किए जाने से इन निकायों के चुनावों में भी निष्पक्षता व अवसरों की समानता को गहरी ठेस पहुँचने जा रही है।

जिला पंचायत या जनपद पंचायत जैसी व्यवस्था प्रशासन की चली आ रही व्यवस्था के समानान्तर एक ऐसी व्यवस्था के रूप में बीते 29 सालों से चली आ रही है जिसमें निर्णय के अधिकार सीधे जनप्रतिनिधियों के पास रहे हैं। इन समितियों के अमल में आने के बाद जिले के प्रभारी मंत्री को सर्वोच्चता सुनिश्चित हो जाएगी और ज़ाहिर सी बात है कि जिले का प्रभारी मंत्री सत्तासीन दल से ही होगा जिसके पास एक एक जिले में हजारों अशासकीय सदस्यों को मनोनीत करने के अधिकार होंगे। इसके अलावा ये सदस्य एक तरह से इन निकायों का प्रतिनिधित्व करेंगे जो प्रभारी मंत्री को रिपोर्ट करेंगे।

मध्य प्रदेश में ऐसा ही एक प्रयोग 1990-1992 के दौरान सुंदरलाल पटवा ने भी मुख्यमंत्री रहते समय किया था जिसे मध्यावधि चुनावों के बाद बनी कांग्रेस की सरकार ने खारिज कर दिया था।

कभी शांत प्रदेश कहा जाने वाला मध्य प्रदेश इन दिनों सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला बन रहा है उसमें स्थानीय निकायों में अपने कार्यकर्ताओं को शामिल करने से उन तत्वों को न केवल सत्ता का खुला संरक्षण मिलने जा रहा है बल्कि इनाम के तौर पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया जा रहा है।

जिस सांप्रदायिक नफरत और उससे पैदा हो रही घटनाओं को भाजपा सरकार द्वारा दिया जिस तरह से प्रोत्साहन व संरक्षण दिया जा रहा है उससे इन आशंकाओं को भी बल मिलता है कि योजनाओं के लाभ से उन लोगों को वंचित किया जाएगा जो एक ‘धर्म विशेष’ से आते हैं या जो लोग इनकी पार्टी व विचारधारा के आलोचक हैं। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों में शामिल लोगों को भी तमाम कल्याणकारी योजनाओं से महरूम रखा जाएगा क्योंकि सांप्रदायिकता महज़ मज़हबी आधार पर ही नहीं बल्कि जातीय आधार पर भी जड़ें जमा चुकी है।

इन समितियों के गठन को न केवल आने वाले निकाय चुनावों के लिए एक मुकम्मल तैयारियों के तौर पर देखा जा रहा है बल्कि आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं और ऐसे लोग जो अब तक पार्टी में नहीं रहे उन्हें समितियों में स्थान देकर उनकी वफादारी को पार्टी के निमित्त बनाए जाने की कवायद के तौर भी देखा जा रहा है।

इन समितियों की दखल निर्वाचन से जुड़ी प्रक्रियाओं में नहीं होगी ऐसा इस अधिसूचना में कहीं लिखा नहीं गया है जिससे यह आशंका भी जताई जा रही है कि मतदाता सूची बनाने, उसमें सुधार करने और अद्यतन किए जाने के दौरान इन कार्यकर्ताओं की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भागीदारी होगी। इससे निर्वाचन की अपेक्षित प्रक्रियाओं को प्रभावित किया जाएगा जिससे अंतत: भाजपा को सभी चुनावों में लाभ होना तय है।

जानकार लोग इसे एक खास विचारधारा और दल के लिए समर्पित नौजवानों के लिए सीधी भर्ती प्रक्रिया भी बता रहे हैं। ऐसे समय में जब मध्य प्रदेश में बेरोजगार युवाओं की अभूतपूर्व फौज खड़ी हो चुकी है और उन लोगों को भी अब तक नियुक्तियाँ नहीं मिली हैं जिन्होंने किसी नौकरी के लिए निर्धारित मापदंड पूरे कर लिए हैं, यह योजना एक तरह से उन युवाओं को मुंह चिढ़ाने जैसा है।

अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते जब 18 अगस्त 2021 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में उन अभ्यर्थियों को पुलिस ने बेतहाशा पीटा जिन्हें बीते तीन सालों से नियुक्ति पत्र नहीं मिले हैं। ऐसे समय में जब प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा का वर्तमान और भविष्य घनघोर अंधरे में जा चुका है। परीक्षा में चयनित शिक्षक अपनी नियुक्तियों को लेकर तीन सालों से इंतज़ार कर रहे हैं। जब वो संगठित होकर राजधानी में जाते हैं तो उनके साथ ऐसा बर्ताव किया गया।

इन समितियों के जरिये राज्य सरकार व केंद्र सरकार की सफल -असफल योजनाओं का प्रचार-प्रसार गाँव गाँव में किया जा सकेगा। जैसा कि हमने हाल में प्रधानमंत्री अन्न योजना को फूहड़ महोत्सव में तब्दील होते हुए देखा है जिन्हें गाँव गाँव में मौजूद पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आयोजित किया।

प्रदेश में लोक अभिकरणों के माध्यम से दीन दयाल अंत्योदय समितियों का गठन 1991 के अधिनियम के अनुसार होगा। इस अधिनियम के अनुसार इन समितियों की कानूनी वैधता भी होगी। इन समितियों के गठन के पीछे यह मकसद भी बतलाया जा रहा है कि इससे सरकार को अपनी योजनाओं की वास्तविक जानकारियाँ मिल सकेंगीं। अब यह जानना दिलचस्प है कि क्या अब तक पंचायती राज व्यवस्था में निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिये सरकार को जमीनी सच्चाई और उनकी जानकारियाँ नहीं मिल रहीं थीं? 28-29 सालों से एक सुव्यवस्थित, पारदर्शी और जवाबदेही की यान्त्रिकी क्या वाकई अपना औचित्य खो चुकी है या यह पूरी व्यवस्था अब तक बिना निगरानी तंत्र, जवाबदेही और पारदर्शिता के बिना ही चल रही थी?

इन समितियों का कार्यकाल पांच साल के लिए होगा। इसका मतलब यह हुआ कि अगर समितियों का गठन निकाय चुनावों से पहले हो जाता है और जिस तेज़ी से भाजपा के पदाधिकारी इस काम को अंजाम दे रहे हैं उससे लगता है कि निकाय चुनावों की घोषणा से पहले ही इनका गठन हो जाएगा। तब सवाल ये है कि निकाय चुनावों में किन लोगों के निर्वाचन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं? इसका जवाब बहुत आसान है कि जब भाजपा और संघ के कार्यकर्ता इन समितियों में होंगे तब उनका प्रभाव हर स्तर पर बढ़ेगा जो अंतत: चुनावों को प्रभावित करेगा।

प्रदेश में सरकार बदलने की सूरत में इन समितियों को भंग कर दिया जाएगा लेकिन अगर बदली हुई सरकार इसी परिपाटी को अपनाती है तब गाँव गाँव में राजनैतिक दलों के आधार पर ध्रुवीकरण के लिए एक स्थायी अवसर मिल जाएगा। इससे पंचायती राज व्यवस्था की उस मूल संकल्पना पर स्थायी रूप से नकारात्मक प्रभाव जिसके अनुसार गाँव में ‘सामूहिक सहमति’ और ‘एकता’ के जरिये स्व-राज की स्थापना हो।

बहरहाल यह भाजपा जैसे काडर आधारित पार्टी के लिए अपने दल के कार्यकर्ताओं को संतुष्ट रखने उनका राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने और तमाम योजनाओं में अपने लोगों को लाभ पहुंचाने की कोशिश है जो लोकतन्त्र की प्राथमिक संस्थाओं की शक्तियों के अपहरण किए जाने जैसा है। यह मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य में बेरोजगार युवाओं को सांप्रदायिक राजनीति की तरफ आकर्षित करने और उन्हें कानूनी संरक्षण देने का एक कुत्सित प्रयास है।

(लेखक क़रीब डेढ़ दशक से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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