NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
शिक्षा
समाज
भारत
राजनीति
भारत में स्त्री शिक्षा : प्रतिगामी शिथिलता
स्कूलों की दुर्दशा के साथ-साथ इस पहलू पर अलग से गौर करना होगा कि अभिभावक अपनी बेटियों की तालीम पर कम ध्यान क्यों देते हैं?
श्याम कुलपत
27 Sep 2020
शीर्षक : उड़ान, कैनवस पर ऐक्रेलिक रंग
प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार। शीर्षक : उड़ान, कैनवस पर ऐक्रेलिक रंग। कलाकार- मंजु प्रसाद

हमारे एक मित्र ने पछतावे के साथ बताया, "मैं आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था। गांव के जिस विद्यालय में पढ़ रहा था, उसका मुख्यद्वार स्टेशन रोड की ओर खुलता था। मध्यांतर (interval) की घण्टी बजते ही हम सभी विद्यार्थी स्टेशन की ओर भागते थे। स्टेशन की ओर जाने का सबसे बड़ा आकर्षण था, साढ़े बारह बजे आने वाली छुक-छुक गाड़ी। यानी भक-भक करता, कोयला खाता, काला धुआं उड़ाता इंजन और भाप शक्ति से चलती सवारी रेलगाड़ी को देखने का लुत्फ़ उठाना, दूपहरिया के लिए नमकीन व बिस्कुट, टॉफी और लेमनचूस,  लाई-रामदाना, समोसा,  आलू-कचालू आदि खरीदना-खाना और उछल कूद एवं उधमबाजी करना।"

मित्र ने यह सब बातें बताईं। इसलिए बताईं कि एक ठेठ गांव में आने वाली रेलगाड़ी का क्या आकर्षण होता है। वह भी बालमन लड़के-लड़कियों में। दोस्त ने आगे बताया, 'मेरी बहन तेज दिमाग की थी,छठे में पहुंच गई थी, उसका बचपना बरकरार था। सभी बच्चे मध्यांतर में रेलगाड़ी आने के समय पर स्टेशन पर टहलने  जाते थे। मेरी बहन भी अपनी सहेलियों के साथ मध्यांतर में स्टेशन घूमने गई थी। बप्पा भी, रात की ड्यूटी करके (चीनी मिल की नौकरी) बारह बजे वाली गाड़ी से उतरे। बहन को सहेलियों के साथ स्टेशन पर टहलता देख गुस्से से भर गये। बच्ची (मित्र बहन को बच्ची कहता था) के पास जाकर बप्पा बोले,'स्कूल चलो।' रास्ते में पिता-पुत्री में कोई संवाद नहीं हुआ। स्कूल पहुंच कर बप्पा ने शिक्षक से बात की, घर ले जाने की सूचना शिक्षक को दी। फिर बच्ची से कहा,'अपना बस्ता उठाओ, घर चलो'। बच्ची ने चुपचाप बस्ता उठाया और बप्पा के पीछे-पीछे चलने लगी। घर के दुआरे पर पहुंचते ही बप्पा ने अरहर के डण्डे से पीटना शुरू कर दिया। चाचा-चाची किसी तरह बच्ची को पीटने से बप्पा को रोक पाये। इस घटना के बाद बच्ची का स्कूल जाना छुड़ा दिया गया।

इस घटना का प्रभाव यह हुआ कि दो साल बाद मित्र के पिता ने अचानक फैसला लिया और पूरे परिवार को लेकर चीनी मिल कालोनी के आवास में रहने लगे। सभी भाई-बहनों का दाखिला मिल कालोनी में स्थित हाई स्कूल में कराया गया। बच्ची का भी सातवीं कक्षा में दाखिले का फार्म मित्र ले आया था। जिस दिन बच्ची को साथ लेकर स्कूल जाना था उसी दिन बप्पा की दूर के रिश्ते की भाभी जी धमक पड़ीं। उन्हें जब बताया गया कि मित्र बच्ची का स्कूल में दाखिला कराने जा रहा है तो आंखें फाड़ कर बप्पा से बोलीं,' सठिया गये हो का आप लोग, अब जब बिटिया का वर-विवाह, ढूंढना-करना है तब आप चले हो स्कूल में दाखिला कराने, जितना पढ़ लिया वह बहुत है! अब आगे पढ़ कर क्या करेगी, हाकिम-कलक्टर बनेगी का? बहिन-बिटिया को ज्यादा पढ़ाना अच्छी बात ना है!! ऊपर से जितना पढ़ाई वह से  दुगना तिलक-दहेज। रोंवा बेच डालो तब भी लड़के वाले खुश नहीं होने वाले हैं। यहि लिये दाखिला-फाखिला छोड़ो! जितना जल्दी हो शादी-विवाह करो अऊर गंगा नहावो।

इस तरह मित्र बहन 'बच्ची' का दाखिला नहीं करा पाया। बप्पा को ताई की सलाह जमाने के लिहाज से वाजिब लगी। दोस्त की सलाह उन्हें नये जमाने के रौ में बह रहे नवजवानों का लड़कपन भरा जोश मात्र लगा। लड़के की सोच को नज़रअंदाज करते हुए और भाभी श्री की सलाह पर अमल करते हुए बच्ची की शादी हेतु वर ढूंढना शुरू कर दिया। अगले साल की पहली लगन में बेटी की विवाह तिथि निर्धारित हो गई और इस प्रकार एक किशोरवय बच्ची की शिक्षा प्राप्ति की इच्छा की बलि तिथि भी निश्चित हो गई।

भारत में नारी शिक्षा की स्थिति पर दृष्टिपात करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपना मत व्यक्त किया, 'बीसवीं सदी में नारी शिक्षा स्तर में सुधार बहुत ही सुखद लगता है। स्वतंत्रता प्राप्ति  के बाद तो इस दिशा में विशेष रूप में बहुत प्रगति हुई।' बावजूद अपनी इस सहमति के वह इस उपलब्धि को पर्याप्त नहीं मानते। इस संबंध में अन्य देशों की उपलब्धियों से तुलना करने पर वे अपने लोगों को पिछड़े हुए पाते हैं। 'नारी साक्षरता की दृष्टि से तो भारत सहारातर अफ्रीका से भी पीछे चल रहा है। भारत में 15 से 19 वर्ष की आधी महिलाएं निरक्षर हैं जबकि चीन में यही निरक्षरता केवल दस प्रतिशत रह गयी है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की स्थिति तो चीन से भी बेहतर है।'

नारी साक्षरता की इस समस्या के लिए भारत की स्कूल व्यवस्था की दुर्दशा ही जिम्मेदार है। अमर्त्य सेन ने बल देते हुए लिखा, 'यह बात गलत नहीं होगी कि प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में सरकारी की विफलताओं का सबसे अधिक दुष्प्रभाव नारी शिक्षा पर पड़ रहा है।' भारतीय समाज की जमीनी समस्या के सच को चिह्नित करते हुए श्री सेन स्पष्ट करते हैं,-''लड़के तो फिर भी पढ़ जाते हैं, उन्हें दूर दराज़ के गांवों में भी भेज दिया जाता है, किन्तु लड़कियां पूरी तरह से ही शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। सरकारी स्कूल की हालत खराब होने की दशा में लड़कों को तो ज्यादा फीस खर्च करके निजी स्कूलों में भी दाखिल करा दिया जाता है, पर अक्सर अभिभावक लड़कियों को गांव से बाहर भेजने से कतराते हैं- या फिर निजी स्कूलों की फीस भरने से बचना चाहते हैं।”

लड़कियों की तालीम पर एक अन्य तथ्य का बहुत ही नकारात्मक असर पड़ता है। भारत में महिला अध्यापकों की संख्या अत्यधिक कम है। अखिल भारतीय स्तर पर मात्र 29 प्रतिशत प्राथमिक अध्यापक महिलाएं हैं। केरल में यह अनुपात 63 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश  में कुल मिलाकर 18 प्रतिशत महिला अध्यापक हैं। ग्रामीण इलाकों में यह अनुपात सिर्फ 13 प्रतिशत हो जाता है। अक्सर कई दफा उत्तर भारत में अलग बालिका पाठशालाओं के अभाव में अथवा महिला अध्यापकों की कमी  होने की वजह से लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है।

यह मानना सही नहीं प्रतीत होता है कि देश में नारी शिक्षा का न्यून स्तर होने की महज एक वजह स्कूल इंतजामिया की खस्ता हालात ही है। पाया गया है जिन स्थानों पर स्थानीय स्तर पर अध्यापन, पठन-पाठन व्यवस्थित रूप से चल रहा है, वहां भी लड़कियों की तुलना में लड़के ही अधिक नजर आते हैं। इसलिए स्कूलों की दुर्दशा के साथ-साथ इस पहलू पर अलग से गौर करना होगा कि अभिभावक अपनी बेटियों की तालीम पर कम ध्यान क्यों देते हैं?

प्रथमतः देश का समाज बुनियादी रूप से पुरूष प्रधान समाज है। पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में मातृ सत्तात्मक परिवार-समूहों के हिस्सों तथा केरल की कुछ मातृ प्रधान  जातियों को छोड़ कर, शेष भारतीय समाज का बहुलांश पुरूष प्रधान सोच, मर्द वर्चस्व एवं नर श्रेष्ठता ग्रंथि  से प्रेरित व संचालित है। श्रम विभाजन लिंग के आधार पर, संपत्ति उत्तराधिकार में ज्यादातर लड़कों को तरजीह मिलना। यह वह सारे कारक हैं जो स्त्री शिक्षा के लाभों के आकर्षण को धूमिल कर देता है। गांव की लड़कियां थोड़ी बड़ी होने पर अपनी मां की सहायिका  हो  जाती हैं। अभिभावकों की इस कथित दूरदर्शी सोच के तहत कि लड़की मां के कामों में हाथ बटाने के साथ-साथ भावी गृहस्थी के गुण-ढंग सीख जायेगी जो शादी के बाद  ससुराल में काम आयेंगे। बिटिया काम-काज में दक्ष, मेहनती, अच्छे स्वभाव वाली, गुण-ढंग से भरपूर और मां-बाप के ऊंचे संस्कारों में पली-बढ़ी बहू पाकर ससुराल वाले निहाल हो जायेंगे। मां-बाप का सर सदैव गर्व से ऊंचा रहेगा। लड़की की असली पढ़ाई वही है जिससे ससुराल में सास-ससुर और पति खुश रहे। नैहर कोई शिकवा संदेश न आए तो मां-पिता खुश एवं संतुष्ट! उनकी सीख-सलाह और गुण-शिक्षा सार्थक भयो।

एक बृहद भारतीय समाज नारी शिक्षा के बारे में इससे अधिक, इसके आगे कुछ नहीं सोचता। वह चाहे किसी भी धर्म का हो, जाति का हो, वर्ग का हो, समुदाय का हो; सबकी सोच नारी शिक्षा के प्रति नकारात्मक रूप में अखिल भारतीय स्तर पर संगठित है।

"भारतीय समाज में बेटी एक अतिथि की भांति रहती है -उसकी शिक्षा पर किये गये निवेश का लाभ अंततः किसी दूर दराज़ के प्रायः किसी अपरिचित परिवार को पहुंचता है। इस कारण भी मां-बाप को नारी शिक्षा के सम्भावित लाभ अपेक्षाकृत बहुत गौण प्रतीत होते हैं।" अमर्त्य सेन ने लड़कियों के प्रति भारतीय मनःस्थिति को तेलुगु में प्रचलित कहावत से पुष्टि करते हुए लिखा,''बेटी को पालना तो पराए आंगन के बिरवे को सींचना भर है।"

कहावत को व्याख्यायित करते हुए श्री सेन स्पष्ट करते हैं, पितृवादी धारणाएं सिर्फ उत्तरी भारत तक ही सीमित नहीं रहीं - इनका कुछ न कुछ प्रभाव दक्षिण भारतीय मानस पर भी अवश्य रहा है।  

तीसरा प्रमुख सूत्र है, दहेज व्यवस्था तथा अपने से उच्चस्तरीय परिवार में बेटी के विवाह की आकांक्षा। इस वजह से भी बेटी को पढ़ाना भारी पड़ जाता है। शिक्षित बेटी के लिए और ज्यादा पढ़ा-लिखा वर तलाशना एवं इसीलिए और अधिक दहेज देना पड़े तो निश्चित रूप से लड़की को पढ़ाना महंगा व स्वप्न सदृश प्रतीत होगा। सामाजिक अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह केवल निर्मूल आशंका भर नहीं है। असंख्य मां-पिता इस मसले से जद्दोजहद करते हुए मिल जाएंगे। 

स्त्री शिक्षा के सवाल पर बीसवीं सदी में भी देश के बड़े हिस्से, उत्तर भारत में, 'स्त्री शिक्षा' में मन्द गति की विकास-दर एक निराशाजनक व प्रतिगामी शिथिलता को प्रदर्शित करता है। 'लड़के और लड़कियों की शिक्षा के स्वरूप को तय करने वाले तत्वों की पृथक-पृथक कारणों को स्पष्ट करते हुए अमर्त्य सेन अपना मत व्यक्त किया, "बेटों की शिक्षा के पीछे आर्थिक उत्प्रेरणाएं बहुत सशक्त होती हैं - शिक्षा से उनकी रोजगार एवं उपार्जन- क्षमता बढ़ जाती है, अतः माँ-बाप अपने पुत्रों की आर्थिक संवृद्धि एवं प्रगति की आधार स्वरूप शिक्षा में निवेश आवश्यक मान लेते हैं। किसी सीमा तक इसे अपनी वृद्धावस्था का बीमा मान बैठते हैं (कमाऊ पूत बुढ़ापे की लाठी होता है)। अनेक पारिवारिक सर्वेक्षणों में पुत्र की शिक्षा के पीछे इस प्रकार के आर्थिक चिंतन का प्रभाव बहुत ही स्पष्ट रूप से उभरा है। 'आर्थिक लाभ की आशा एवं माँ-बाप के अपने आत्म लाभ की कसौटी पर बेटियों की शिक्षा पूरी नहीं उतर पाती- समाज में विद्यमान श्रम विभाजन, विवाह परंपराओं और संपत्ति अधिकारों की व्यवस्था के कारण बेटियों की शिक्षा इतनी महत्वपूर्ण नहीं हो पाती।”

यक्ष-प्रश्न यह है कि पुत्रियों की शिक्षा को लेकर सामाजिक नज़रिये में व्याप्त संकीर्णता, अभिभावकीय निष्क्रियता को कैसे खत्म किया जाए!!

वर्तमान समय में जबकि बेटियों को संवैधानिक व कानूनी तौर पर संपत्ति में उत्तराधिकारी (वारिस) की मान्यता मिल गयी है, तब इस परिप्रेक्ष्य में लड़कियों को शिक्षित किया जाना अब एक अनिवार्य आवश्यकता हो गयी है। लड़कियों का संपत्ति में उत्तराधिकारी होने से लड़की की स्थिति अपने भाई के साथ वैसी ही हो जाती है जैसा दो सगे भाईयों की आपसदारी, संग-साथ उन्हें एक दूसरे की ताकत और हिम्मत बना देते हैं। ठीक इसी प्रकार एक उत्तराधिकारिणी बहन अपने सगे भाई के लिए ताकत एवं हिम्मत बन जाती है सगे भाई के समान। इसलिए बहन को भाई की मजबूती के लिए शिक्षित होना जरूरी है। बहन की अशिक्षा भाई को उसी प्रकार कमजोर करेगा जैसा कि कमजोर व परनिर्रभर भाई अपने दूसरे सगे भाई को कमजोर करता है। नारी शिक्षा को लेकर सामाजिक दकियानूसी, अभिभावकीय लापरवाही-सुस्ती संतानों के प्रति (लड़की-लड़का दोनों को कमजोर करेगा) हम मानवता के प्रति अवरोधक व संवेदनहीन होने के अपराधी सिद्ध होंगे!

(लेखक एक कवि-संस्कृतिकर्मी और स्वतंत्र विचारक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

education
Women Education
Female education in India
patriarchal society
gender discrimination
Indian society women education

Related Stories

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

कर्नाटक पाठ्यपुस्तक संशोधन और कुवेम्पु के अपमान के विरोध में लेखकों का इस्तीफ़ा

जौनपुर: कालेज प्रबंधक पर प्रोफ़ेसर को जूते से पीटने का आरोप, लीपापोती में जुटी पुलिस

बच्चे नहीं, शिक्षकों का मूल्यांकन करें तो पता चलेगा शिक्षा का स्तर

अलविदा शहीद ए आज़म भगतसिंह! स्वागत डॉ हेडगेवार !

कर्नाटक: स्कूली किताबों में जोड़ा गया हेडगेवार का भाषण, भाजपा पर लगा शिक्षा के भगवाकरण का आरोप

शिक्षा को बचाने की लड़ाई हमारी युवापीढ़ी और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई का ज़रूरी मोर्चा

नई शिक्षा नीति बनाने वालों को शिक्षा की समझ नहीं - अनिता रामपाल

बीएचयू: लाइब्रेरी के लिए छात्राओं का संघर्ष तेज़, ‘कर्फ्यू टाइमिंग’ हटाने की मांग

बिहारः प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट आईटीआई में शिक्षा महंगी, अभिभावकों को ख़र्च करने होंगे ज़्यादा पैसे


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License